25 June, 2022
ग़ज़ल | रिवायतें अब बदल रही हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
11 June, 2022
ग़ज़ल | यूं लगेगा कि प्यार करता है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
04 June, 2022
कविता | लाखा बंजारा झील | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | युवा प्रवर्तक
20 May, 2022
ग़ज़ल | यादों को उसकी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
18 May, 2022
कविता | वस्त्र के भीतर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नेशनल एक्सप्रेस
13 May, 2022
ग़ज़ल | मंज़र सारे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
12 May, 2022
कविता | मेरी भावनाएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
09 May, 2022
कविता | बहुत छोटा है प्रेम शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
29 April, 2022
कविता | @कंडीशन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
28 April, 2022
कविता | वह चूहानुमा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कविता
चूहानुमा
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक विशेषता है
मनुष्य योनि में हो कर भी
चूहा होना,
वह भी
जहाज का चूहा
जो जहाज के
डूबने की
आशंका में ही
छोड़ देता है
जहाज को
मुझे नहीं लगता
कि कर सकता है ऐसा
मनुष्य
यदि उसके भीतर है
सच्ची मनुष्यता
होने को तो ...
सुकरात को
विष का प्याला
दिया था मनुष्यों ने ही
ब्रूटस भी मनुष्य ही था
जिसने सीजर के पीठ पर
भोंका था छुरा
वह मनुष्य ही था
जिसने
ज़हर पिलाया मीरा को
और परित्याग कराया सीता का
वह मनुष्य ही था
जिसने
बापू गांधी के सीने मेंं
उतार दी गोलियां
और करा दी थीं हत्याएं
जलियांवाला बाग में
अवसरवादिता
लिबास बदलती है
और ढूंढ लेती है
नित नए आका
कभी सत्ता
तो कभी जिस्म
तो कभी ताक़त
कभी ये सभी
ज़्यादातर राजनीति में
लेकिन अब
चूहानुमा
मानवीय नस्ल
राजनीति से
आ गई है
प्रेम में भी,
छोड़ जाती है साथ
संकट की घड़ी में
प्रेम रह जाता है
हो कर आहत
एक
डूबे जहाज की तरह
कृतघ्न चूहा क्या जाने
रच देते हैं प्रेम का इतिहास
टूटे /डूबे जहाज भी
और निभाते हैं प्रेम
अनंत गहराइयों में
अनंत काल तक।
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23 April, 2022
कविता | अपराध | डॉ शरद सिंह | प्रजातंत्र
10 April, 2022
ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 10.04.2022 को "हमको जीने की आदत है" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
अपने सुघड़ उजालों को तुम, रक्खो अपने पास।
हमको जीने की आदत है, काले दिन, उच्छ्वास।
चतुर शिकारी जाल डाल कर बैठा सारी रात
सपनों को भी लूट रहा है, बिना दिए आभास।
बढे़ दाम की तपी सलाखें, दाग रही हैं देह
तिल-तिल मरता मध्मवर्गी, किधर लगाए आस।
बोरी भर के प्रश्न उठाए, कुली सरीखे आज
संसद के दरवाज़े लाखों चेहरे खड़े उदास।
जलता चूल्हा अधहन मांगे, उदर पुकारे कौर
तंग ज़िन्दगी कहती अकसर-‘तेरा काम खलास!’
अनावृष्टि-सी कृपा तुम्हारी, और खेतिहर हम
धीरे-धीरे दरक चला है, धरती-सा विश्वास।
सागर बांध लिया पल्लू में, और पोंछ ली आंख
मुस्कानें फिर ओढ़-बिछा लीं, बना लिया दिन ख़ास।
तड़क-भड़क की इस दुनिया में, करें दिखावा लोग
फिर भी अच्छा लगता हमको, अपना फटा लिबास।
यही धैर्य का गोपन है जो, रहे ‘शरद’ के साथ
आधा खाली मत देखो, जब आधा भरा गिलास।
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09 April, 2022
मुक्तक | धूप को धूप जो नहीं लगती | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
02 April, 2022
सुप्रभात !!! - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
31 March, 2022
27 March, 2022
मेरी तन्हाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
21 March, 2022
विश्व कविता दिवस | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
#विश्व_कविता_दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷
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कविता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
भावनाओं की तरंगों पर
सवार
शब्द-यात्री
है वह,
जिसके चरण पखारते हैं
विचार
और चित्त में बिठाते हैं
रस, छंद, लय, प्रवाह
जिसका अस्तित्व है
मां की लोरी से
मृत्युगान तक
जो है भरती
श्रम में उत्साह
जो दुखों को
कर देती है प्रवाहित
दोने में रखे
दीप के समान
वह है तो वेद हैं
वह है तो महाकाव्य हैं
उसके होने से
मुखर रहते हैं भारतीय चलचित्र,
वह रंगभेद के द्वंद्व में
गायन बन कर
श्रेष्ठता दिलाती है
अश्वेतों को,
वह वैश्विक है
क्योंकि
मानवता है वैश्विक
और वह है उद्घोष
मानवता की।
वह नाद है, निनाद है
प्रेम है, उच्छ्वास है
वह कविता ही तो है
जो प्रेमपत्रों से
युद्ध के मैदानों तक
चलती रही साथ।
जब लगता है खुरदरा गद्य
तब रखती है
शीतल संवेदनाओं का फ़ाहा
कविता ही,
कविता समग्र है
और समग्र कविता है।
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20 March, 2022
अंत नहीं शुरुआत नहीं | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.03.2022 को "अंत नहीं शुरुआत नहीं" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
अंत नहीं शुरुआत नहीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
कैसे लिख दें राम-कहानी, लिखने वाली बात नहीं।
नभ-गंगा हैं भीगी आंखें, पानी भरी परात नहीं।
समय-डाकिया लाया अकसर, बंद लिफाफा क़िस्मत का
जिसमें से बाधाएं निकलीं, निकली पर सौगात नहीं।
तलवों में है दग्ध-दुपहरी, माथे पर झुलसी शामें,
जी लें जिसमें पूरा जीवन, नेहमयी वह रात नहीं।
तेज हवा ने तोड़ गिरा दी, लदी आम की डाल यहां
अपना आपा याद रख सके, इतनी भी अभिजात नहीं।
उमस रौंदती है कमरे को, तनहाई जिसमें ठहरी
ऊंघ रही दीवारें अब तक, सपनों की बारात नहीं।
नुक्कड़ के कच्चे ढाबे में, उपजे प्यालों की खनखन
मुक्ति दिला दे जो विपदा से, ऐसा भी संधात नहीं।
अपना भावी, निरपराध ही, दण्ड झेलता दिखता है
लिखने को अक्षर ढेरों हैं, क़लम नहीं, दावात नहीं।
शबर-गीत हैं शर-धनुषों में, कपट नहीं, छल-छद्म नहीं
भोले-भाले भील-हृदय में, चुटकी भर प्रतिघात नहीं।
टूटे तारे के संग ढेरों सम्वेदन जुड़ जाते हैं
बिना राह से फिसले लेकिन, होता उल्कापात नहीं।
शिविर समूहों में खोजा है, खोजा है अख़बारों में
मिले हज़ारों लेखन-जीवी, मिला नहीं हमज़ात कोई।
खण्ड काव्य है, महाकाव्य है और न कोई गीत-ग़ज़ल
चूड़ी जैसी पीर हमारी, अंत नहीं, शुरुआत नहीं।
गिर पड़ते हैं अर्ध्य सरीखे, अंजुरी जैसी आंखों से
‘शरद’ आंसुओं को पीने में, इतनी भी निष्णात नहीं।
(निष्णात = माहिर)
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06 March, 2022
ग़ज़ल | हम बस्ते में बंधे रह गए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
05 March, 2022
नन्हा शेवचेन्को | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
नन्हा शेवचेन्को
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
यह बात नहीं है
युक्रेनी कवि
तरास शेवचेन्को उर्फ़
कोबज़ार तरास की
जो जन्मा
प्रथम विश्व युद्ध के प्रारंभ में
और चला गया
द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत
उसने देखा था त्रासदी
दोनों विश्व युद्धों की
और कहा बस,
अब नहीं
और नहीं
और युद्ध नहीं चाहिए
आज एक शेवचेन्को
भर्ती है अस्पताल में
हो चुका अनाथ
शायद अपनी एक टांग भी
खो दे
यह नन्हा बालक
शेवचेन्को है,
तरास शेवचेन्को नहीं
जिसने
होश आते ही पुकारा था -
मां को
पिता को
दादी को
और पौधे को
हां, उसने लगाया था
एक पौधा
बाल्कनी के गमले में
और सोचा था
बड़ा हो जाएगा पौधा
रातोंरात
एक मिसाइल-रॉकेट से
खण्हर हो गया उसका घर
ध्वस्त हो गई बाल्कनी
गमले और पौधे का
पता ही नहीं
नन्हा शेवचेन्को
समझ जाए शायद
इस युद्ध के बाद
रातोंरात पेड़ बड़े नहीं होते
छिड़ जाते हैं युद्ध रातोंरात
और
सब कुछ तबाह हो जाता है
रातों-रात
नन्हा शेवचेन्को
अगर बचा रहा
तो समझ जाएगा सब कुछ।
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01 March, 2022
शिवत्व | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
20 February, 2022
चांद गया था दवा चुराने | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
मित्रो, "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.02.2022 को "चांद गया था दवा चुराने" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
चांद गया था दवा चुराने
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
गेरू ले कर दीवारों पर शुभ-शुभ शब्द उकेर।
जाने कैसा दिन गुजरेगा, बैठा काग मुण्डेर।
सप्तपदी चल, टूटे बंधन, सुलगे हैं खलिहान
नदी सूख कर तड़क गई है, छोड़ प्यास का ढेर।
मैकल-पर्वत की सी पीड़ा, झील सरीखी आंख
सपनों की वंशी को ले कर, डोले समय- मछेर।
धुंआ उगलती खांस रही थी, मावस डूबी रात
चांद गया था दवा चुराने, खाली ज़ेबें फेर।
लिए हथकड़ी दौड़ रही है हवा, मुचलका भूल
छत पर चढ़ कर सूरज झांके, देखे आंख तरेर।
चाहे जितना बचना चाहो, जलना है हर हाल
छनक-छनक कर ही जलती है,घी में बची महेर।
हाॅकर-छोरा सुबह-सवेरे घूमे सब के द्वार
जैसे कलगी वाला मुर्गा, रहे दिवस को टेर।
बारह बरस बिता कर चाहे, फिरें घूर के भाग
पर, कुछ तो बदलाव हमेशा होता देर-सवेर।
यह दुनिया बिखरी टुकड़ों में, दूर-दूर विस्तार
किन्तु ‘शरद’ का मन, बस चाहे दो बांहों का घेर।
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12 February, 2022
ग़ज़ल | एक तुम्हारे न होने से | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
06 February, 2022
आजकल | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
05 February, 2022
कविता | प्रेम और वसंत | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
31 January, 2022
रोज़ ढूंढती हूं | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
28 January, 2022
ज़िन्दा रहने के लिए | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
26 January, 2022
गणतंत्र हमारा | गणतंत्र दिवस | काव्य | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
23 January, 2022
जाड़े वाली रात | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत
20 January, 2022
अब कठिन हो चला है | कविता | डॉ शरद सिंह
15 January, 2022
ग़ज़ल | जाड़े वाली रात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Jade Waali Raat, Ghazal, Dr (Ms) Sharad Singh |
ग़ज़ल
जाड़े वाली रात
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
सूनी-सूनी डगर हमेशा, जाड़े वाली रात
बर्फ़ जमाती नहर हमेशा, जाड़े वाली रात
चंदा ढूंढे कंबल-पल्ली, तारे ढूंढे शॉल
हीटर तापे शहर हमेशा,जाड़े वाली रात
पन्नीवाली झुग्गी कांपे, कांप रहा फुटपाथ
बरपाती है क़हर हमेशा जाड़े वाली रात
जिसके सिर पर छत न होवे और न कोई शेड
लगती उसको ज़हर हमेशा, जाड़े वाली रात
छोटी बहरों वाली ग़ज़लों जैसे छोटे दिन
लगती लम्बी बहर हमेशा,जाड़े वाली रात
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05 January, 2022
टोहता है गिद्ध | कविता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | 6 जनवरी अर्थात् युद्ध अनाथों का विश्व दिवस पर | World Day Of War Orphans
02 January, 2022
नए साल में | ग़ज़ल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज "नए साल में" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
नवभारत के लिए....
नए साल में
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
नए साल में हर नई बात हो।
ख़ुशियों की हरदम ही बरसात हो।
हो इंसानियत की तरफ़दारियां
सभी के दिलों में ये जज़्बात हो।
मुश्क़िल जो आई गए साल में
नए साल में उसकी भी मात हो।
सभी स्वस्थ रह कर जिएं ज़िन्दगी
दुखों का न कोई भी अब घात हो।
‘शरद’ की दुआ है अमन, चैन की
चमकता हुआ दिन भी हो, रात हो।
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हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
02.01.2022
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