31 December, 2022

ग़ज़ल | वक़्त गया तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी

वक़्त गया तो जाते-जाते, दिल पर छाला छोड़ गया।
ट्रक से टपके  तैल सरीखा,  धब्बा-काला छोड़ गया।

पगुराती गायों की गलियों से हो कर जो पल गुज़रा
अलसाए जीवन के  ऊपर, मकड़ी-जाला छोड़ गया।

गांव भागते शहर चुरा कर, चौर्यवृत्ति इस क़दर बढ़ी
अधुनातन होने का लालच, सद्गुण-माला छोड़ गया।

दो कानों  की  बात हमेशा, पड़ी मिली  चौराहे पर
जिसका भी दिल आया, उस पर, मिर्च-मसाला छोड़ गया।

प्लेटफाॅर्म के हरसिंगार ने, देखा है  उस इंजन को
बेफिक्री से बीड़ी पी जो, धुंआ - उछाला छोड़ गया।

घर से भागे असफल-प्रेमी, जैसा खोया-खोया मन
‘एक शहर की मौत’ ले गया, पर ‘मधुशाला’ छोड़ गया।

चांद रात को आया था जब, तारों की चुग़ली करने
कुर्सी के पुट्ठे पर अपना, फटा दुशाला छोड़ गया।

कलाकार निस्पृह होता है, यही सिद्ध काने, शायद
खजुराहो की रंगभूमि पर, एक शिवाला छोड़ गया।

दूर यात्रा पर जब निकला, सोच-विचारों का छौना
खोल गया  सारे दरवाज़े, चाबी-ताला  छोड़ गया।

बेहद  भूखा था  वह शायर, रोटी खाने  बैठा था
नई ग़ज़ल की आहट पा कर, हाथ निवाला छोड़ गया।

फिर लगता है, किसी अभागिन ने पीपल का वरण किया
सूरज अपने  पीछे-पीछे,  लाल उजाला छोड़ गया।

कच्ची स्लेटों पर अक्षर भी, कच्चे- कच्चे  उगते हैं
किन्तु मजूरी की ख़ातिर वह अपनी शाला छोड़ गया।

आंधी का इक तीखा झोंका, रिश्ते  में ढल कर आया
निष्ठुरता से दीप बुझा कर,  सूना आला छोड़ गया।

अहसासों का पंछी आ कर, जब-जब कांधे पर बैठा
आंखों में आंसू का बहता, इक परनाला छोड़ गया।

हम बस्ते में बंधे रह गए, ‘शरद’ फ़ाइलों के जैसे
हमको दस्तावेज़ बना कर, लिखने वाला छोड़ गया।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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(उपरोक्त  ग़ज़ल मेरे ग़ज़ल संग्रह "पतझड़ में भीग रही लड़की" से)

30 December, 2022

ग़ज़ल | क्या कीजिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
नफ़सियाती* दौर है, क्या कीजिए।
ज़िन्दगी बे-तौर**  है, क्या कीजिए।
दिख रहा जो, वो नहीं, हरगिज़ नहीं
मसअला कुछ और है, क्या कीजिए।
एक  दल उसको  सुकूं  देता   नहीं
वो  बदलता   ठौर  हैं, क्या कीजिए।
बदज़ुबानी का फ़कत मक़्सद नहीं
चाहता   वो  ग़ौर   है, क्या कीजिए।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

*नफ़सियाती= मानसिक, सायकोलॉजिकल
**बे-तौर = बेढब, अस्तव्यस्त

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19 December, 2022

शायरी | दग़ा का दाग़ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरे लिबास पे तारे  थे  टांकने  जिसको
दग़ा का दाग़ वही शख़्स दे गया मुझको
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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17 December, 2022

शायरी | फिर कहो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी | फिर कहो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आइना देखो,  सम्हल लो,   फिर कहो 
ख़ुद से तो बाहर निकल लो, फिर कहो 
बेअसर   लगने    लगीं    बातें   तुम्हारी
झूठ का  लहज़ा  बदल लो, फिर कहो 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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13 December, 2022

शायरी | मावठ की बारिश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी
मावठ* की बारिश पड़ती है, 
हम ख़ुश होते हैं
उनकी सोचें जो फुटपाथों 
पर ही सोते हैं।
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
(*मावठ - जाड़े की बारिश जो  फसल के लिए अच्छी मानी जाती है।)

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12 December, 2022

शायरी | नहीं देखा किसी ने | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी
आस्तीनों में छिपे ख़ंजर 
नहीं देखा किसी ने
साथ देखा और समझा
आशना मेरा सभी ने
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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07 December, 2022

शायरी | तौबा कर के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शायरी
उसका  कोई  कैसे   अब ऐतबार करे
तौबा  कर के   धोखा जो हर बार करे
दिल से बढ़ कर दुश्मन कोई और नहीं 
जीने दे,  और  जीना  भी  दुश्वार   करे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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02 December, 2022

शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हमारी  क़िताबों  के  ख़ामोश  पन्ने 
बहुत शोर करते हैं, गर कोई पढ़ ले 
इनमें  हक़ीक़त  की  ऐसी है  मिट्टी 
जो  इंसान  चाहे  नई  रूह  गढ़ ले 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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03 November, 2022

कविता | मात्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


कविता / मात्र...

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


प्रेम की खाद

और 

मीठे बोलों का जल

सिवा इनके 

नहीं चाहिए

मन के पौधे को

और कुछ भी।

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कविता | मात्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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31 October, 2022

ग़ज़ल | ठंड | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ठंड  खिल रही  धीरे-धीरे।
धूप  ढल   रही  धीरे-धीरे।

दिन तेजी से दौड़ लगाता
रात  चल   रही  धीरे-धीरे।

कोट, पुलोवर, स्वेटर वाली
सुबह मिल  रही  धीरे-धीरे।
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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28 October, 2022

ग़ज़ल | शायरी | ये भी कोई जीना है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


ग़ज़ल / शायरी 

दिल पर पत्थर रख कर जीना,
ये भी कोई जीना है?
कोई मुझे बताये आख़िर
कितने आंसू पीना है?

          - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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09 October, 2022

मुक्तक | पूनम का चांद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


अमृत   वर्षा  कर  रहा है, पूनम का चांद।
मन को हर्षित कर रहा है, पूनम का चांद।
शारदीय  इस  रात्रि की  हुई कालिमा दूर
जग को जगमग कर रहा है,पूनम का चांद।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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08 October, 2022

कविता | वज़ूद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वज़ूद
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सफ़र में हूं
कि है कांधे पे
याद का
कांवर

पता नहीं
पहुंचूंगी कहां
काशी 
या
मगहर 

ढूंढना बाद मेरे
लिक्खे हुए
पन्नों में तुम्हें
प्रेम का शब्द भी
दुबका हुआ
मिल जाएगा

छूट जाने के लिए
ख़ुद से ही
शरमाएगा

पर करूं क्या
कि...

नहीं, और तो
कुछ भी है नहीं
जो
वसीयत में लिखूं
और छोड़ जाऊं यहां

मेरा वज़ूद भी
तुमसे तो
भूल जाएगा।
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01 October, 2022

कविता | प्रेम करूंगी यक़ीनन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
प्रेम करूंगी यक़ीनन
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

तुम कहते हो
मैं प्रेम करूं 
चिड़ियों सी चहकूं 
नदी सी खिलखिलाऊं
थाम कर हाथ
निकल जाऊं
सुदूर वनप्रांतर में

पर कैसे?

प्रेम तो 
मौसमों में जीता
प्रकृति से ऊर्जा लेता
दिलों में धड़कता
एक मधुर अहसास
हुआ करता था

हम बदल रहे हैं 
मौसमों को,
बदल रहे प्रकृति को,
इंसानों के दिल
ख़ुद ही बन चुके हैं
छिद्रित ओजोन परत

अहसासों में 
भले ही गरमाहट हो
बढ़ते तापमान की,
पर स्वार्थी स्पर्श की ठंडक
शून्य से चालीस डिग्री नीचे
कर रही है फ्रीज़ 
संबधों को

प्रेम घुट रहा है
वातानुकूलित कमरों में
जैसे वेंटिलेटर पर हो
कोई मरीज

यदि तुम दे सको
सांस भर
प्रदूषण रहित, स्वच्छ 
खुली हवा
सुधार दो मौसमों को
संवार दो प्रकृति को
चूम लूंगी माथा
पूरे प्रेमावेग के साथ,
है ये वादा !
  ----------

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30 September, 2022

कविता | धूप बारिश के बाद की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


धूप बारिश के बाद की
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कुछ अधिक
गरमाने लगी है
धूप
बारिश के बाद की
नमी, उमस
और उष्णता से भरी धूप
कर देती है व्याकुल
देहरी लांघते ही

धूप का काम है
तपना
वह तप रही है,
झुलसा रही है
अनावृत चेहरों को

चेहरे,
अपरिचित चेहरे
धूप के लिए भी
और
मेरे लिए भी,
भीड़ से गुज़रते हुए
हम नहीं देख पाते
चेहरों को
ठीक से
और देख भी लें
तो नहीं पढ़ पाते
उनकी अहमियत को
धूप भी नहीं पढ़ पाती
दिलों को
वरना
कर के महसूस
मेरे भीतर के
विसूवियस
मुझे
और न तपाती।
    ---------------

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24 September, 2022

रात | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता

रात
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रात आ गई है
मेरे कांधे पर
सिर रख कर
सोने ,
जानती है
मुझे तो है जागना 
ताज़िन्दगी
गिनते हुए
पहर के पहाड़े
यादों के सिरहाने
बैठ कर

अब वो ही देखेगी
मेरे हिस्से के ख़्वाब
ओढ़ेगी चादर
ख़्वाहिशों की
भोर होने तक

और मेरी आंखें
पढ़ती रहेंगी
वक़्त की किताब
पन्ने-दर-पन्ने।
  ------------
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22 September, 2022

कविता | बारिश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बारिश
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बूंदें गिरती हैं
मेरे सिर पर
और उलझतीं हुई
बालों में
सरक जाती हैं धीरे से
मेरी गर्दन
और कांधों पर

कुछ बूंदें
भिगोती हैं कुर्ते को
और कुछ 
जा पहुंचती हैं
धड़कन के पास
गोया यह जांचने
कि उसमें
अभी भी
वह रफ़्तार है या नहीं

या फिर 
देह पर उतर कर
सूंघना चाहती हैं
उस गंध को
जो महकती है कस्तूरी-सी 
किसी के प्रेम में

पागल बूंदें
नहीं जानतीं
कि प्रेम 
अब नहीं रहा वैसा
जैसा देखा है उसने 
चातक में
चकोर में
चकवा में,
इंसानी प्रेम 
ढल गया है अब
जाति में, धर्म में,
ग्रीनकार्ड में

पागल बूंदें
पिघला नहीं सकतीं
उदासी के कोलोस्ट्रोल को,
न ही कर सकती हैं 
इसका अनुभव कि
कैसे तंग हो रही हैं सांसें
शुद्ध प्रेम के बिना

वर्जित क्षेत्र में प्रविष्ट
नासमझ बूंदें
धड़कनों को समझ पाने से पहले
सूख जाएंगी
पा कर देह की तपन
सील कर रह जाएगी
दिल की
अधखुली किताब

जितना भिगो रही है
मुझे बारिश
खुद भी भीग जाएगी
मुझसे मिल कर
यक़ीनन।
     -----------
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10 September, 2022

कविता | इन दिनों | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता 
इन दिनों 
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बादलों का लिहाफ़ 
ओढ़कर
सोता है चांद
इन दिनों,
घुट रही है चांदनी
 पहर-दर-पहर।    
----------------   
#कविता #poetry #हिन्दीकविता 
#डॉसुश्रीशरदसिंह #चांद #चांदनी #बादल #drmssharadsingh 

07 September, 2022

कविता | तुमने तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
तुमने तो ....
  - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मुझे पसंद है
बारिश में भीगना 
पर तुमने तो 
बादल ही सुखा दिए 
मेरे आसमान के!
   
But you...

I love
 Getting wet in the rain
 but you
 the clouds dried up
 of my sky!
-------------
#कविता #Poetry #poetrysociety #हिन्दीकविताएँ
#डॉसुश्रीशरदसिंह
#DrMsSharadSingh

03 September, 2022

ग़ज़ल | धूप बारिश की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


#अर्ज़कियाहै  - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
हार्दिक धन्यवाद #युवाप्रवर्तक
यह ग़ज़ल आप इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं - https://yuvapravartak.com/69213/
-----------------------------
ग़ज़ल : धूप बारिश की
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसकी यादों सी सुनहरी है, धूप बारिश की।
फिर भी तन्हा है, इकहरी है, धूप बारिश की।

अपने हालात के   बारे में   सोचती रहती
एक गुमसुम सी दुपहरी है, धूप बारिश की।

उसने पैरोल पे छोड़ा है बादलों को अभी
खुद ही जज, खुद ही कचहरी है, धूप बारिश की।

सीलनें छन के चली जाएंगी बिस्तर से सभी
क्योंकि झीनी सी मसहरी है, धूप बारिश की।

छत से, मुंडेर पे, दीवार से कांधे पे "शरद"
इक फुदकती सी गिलहरी है, धूप बारिश की।
           -----------

#डॉसुश्रीशरदसिंह #ग़ज़ल #शायरी

25 August, 2022

ग़ज़ल | उसकी यादें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल 
उसकी यादें
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसकी यादें दरवाज़े पर दस्तक बन टकराती हैं।
दिल की चौखट रो पड़ती है, आंखें भर-भर आती हैं।

ज़िन्दा रहना कमिट किया है, सांसें तो लेनी होंगी
वरना अब तो इच्छाएं भी, मुझसे ही कतराती हैं।

मुस्कानों का मास्क लगा कर, दर्द छिपाना बहुत कठिन
आंसू की बूंदें तो अकसर आंखों में उतराती हैं।

कभी-कभी ऐसा लगता है, मौन साध लें दुनिया से
अपनेपन की मृगतृष्णा भी राहों में भटकाती है।

जब तक हिम्मत साथ दे रही, लोहा लेंगे क़िस्मत से
देखें क़िस्मत हमको कितने, कैसे खेल खिलाती है।

वर्षा के बिन 'शरद' आएगी, कब तक आखिर ऋतुओं में
बदल रहे मौसम के क्रम अब, बात यही उलझाती है।
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#अर्ज़कियाहै 
#डॉसुश्रीशरदसिंह #DrMissSharadSingh 
#ग़ज़ल #शायरी #यादें #दरवाज़े #दिल

22 August, 2022

मुक्तक | दर्द हमेशा सच्चा है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मुक्तक |  दर्द हमेशा सच्चा है
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कुछ भी ना होने से कुछ दर्दों का होना अच्छा है।
प्यार ग़लत हो सकता है पर दर्द हमेशा सच्चा है।

दिन भर की तनहाई लेकर, रात पहाड़े पढ़ती है
दिल को क्या समझाएं, दिल तो इक पागल-सा बच्चा है।
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#अर्ज़_किया_है ...
#दर्द  #हमेशा  #सच्चा है...
#डॉसुश्रीशरदसिंह #शायरी

20 August, 2022

आज फिर | ग़ज़ल | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक सांझ ढल गई आज फिर
एक आस छल गई आज फिर
सूर्य फिर उतर गया पहाड़ से
एक रात मिल गई आज फिर
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#अर्ज़कियाहै #आजफिर
#डॉसुश्रीशरदसिंह #हिंदीशायरी 
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14 August, 2022

गीत | हर घर तिरंगा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 14.08.2022 को युवाप्रवर्तक में प्रकाशित मेरा यह गीत....

गीत 
हर घर तिरंगा

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

लहराए तिरंगा हर घर में
फहराए तिरंगा हर घर में....

रहे हरित से हरियाली
श्वेत रंग से खुशियाली
जोश भरे केसरिया रंग
नील चक्र भी भरे उमंग

मुस्काए तिरंगा हर घर में
लहराए तिरंगा हर घर में
फहराए तिरंगा हर घर में....

यही हमारा है अभिमान
यही   हमारा है  सम्मान
इसके लिए समर्पित हैं
अपने   तन, मन  प्रान

इतराए तिरंगा हर घर में
लहराए तिरंगा हर घर में
फहराए तिरंगा हर घर में....

हमको इस पर है नाज़ सदा
इसको  छूऐ न   कभी मृदा
ये है स्वतंत्रता की  पहचान
ये  सबसे  सुंदर  और  ज़ुदा

बस जाए तिरंगा हर घर में
लहराए तिरंगा हर घर में
फहराए तिरंगा हर घर में....
      -------------
🇮🇳 #हरघरतिरंगा 🇮🇳
#गीत #indipendenceday2022 #HarGharTiranga # #TirangaMeraAbhiman 
#indianindependence 
हार्दिक धन्यवाद #yuvapravartak 🙏
इस गीत को इन लिंक्स पर भी पढ़ सकते हैंः

And..

21 July, 2022

ग़ज़ल | हकीक़त से हमने बुनी है कहानी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मित्रो, ये है मेरी ग़ज़ल का वह टुकड़ा जो मैंने भारत भवन में अपने वक्तव्य के दौरान सुनाया था...
पढ़ी है कहानी,  सुनी है कहानी 
इसी  ज़िंदगी  से  चुनी है कहानी
नहीं खेल लफ़्ज़ों का, है आईना ये
हकीक़त से हमने बुनी है कहानी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#DrMissSharadSingh #shayari #ghazal  #ghazallovers 
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh #hindipoetry  #शायरी 
#डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह

11 July, 2022

ग़ज़ल | अश्क़ अपने | डॉ (सुश्री) शरदसिंह

ग़ज़ल
अश्क़ अपने
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

क्या बताएं, किस तरह, कैसे जिए हैं?
टिमटिमाती  लौ  लिए  बुझते दिए हैं।

अब न रोएंगे, किया वादा है  ख़ुद से
अश्क़ अपने बेदख़ल सब कर दिए हैं।

वक़्त ने जो रंग बदला,  लोग बदले
साथ थे जो , आज  वो  दूजे ठिए हैं।

हम शिक़ायत क्या करें हालात से
लिख दिए हिस्से  हमारे  मर्सिए हैं।

अब फ़क़ीरी है 'शरद' की ज़िंदगी में
हो भला उसका, दग़ा जिसने किए हैं।
                  --------------
#शरदसिंह #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह
#SharadSingh #shayari #ghazal #GhazalLovers
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh #hindipoetry  #शायरी 

02 July, 2022

ग़ज़ल | प्यार की बातें करो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

 


Ghazal - Nafraton Ke Daur Me .. Dr (Ms) Sharad Singh


ग़ज़ल

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

नफ़रतों के  दौर में  मनुहार की बातें करो।

एकता की, मित्रता की, प्यार की बातें करो।

न मिले मौक़ा यहां  फ़िरक़ापरस्ती के लिए

आपसी सद्भाव की, सत्कार की बातें करो।

हम अमन औ शांति के पथ पर हमेशा ही चलें

विश्व में आतंकियों के हार की बातें करो।

-------------

25 June, 2022

ग़ज़ल | रिवायतें अब बदल रही हैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रिवायतें अब   बदल रही हैं 
नए लिबासों में मिल रही हैं

अदब के  क़िस्से  हुए पुराने
बेअदबियां अब मचल रही हैं

ख़तो-क़िताबत चलन से बाहर
फ़िज़ाएं चैटिंग में ढल रही हैं।

जिसे भी देखो हुआ सियासी
हवाएं कैसी   ये चल रही हैं

"शरद" थकन का ना ज़िक्र लाओ
अभी तो सांसें सम्हल रही हैं
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#SharadSingh #shayari #ghazal #GhazalLovers
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh #hindipoetry  #शायरी 

11 June, 2022

ग़ज़ल | यूं लगेगा कि प्यार करता है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

यूं लगेगा कि प्यार करता है
इस सलीक़े से वार करता है

बात जज़्बे की मत करो उससे
रूह भी तार - तार  करता है

मुफ़लिसी झूठ-सी लगे उसको
दौलतें   जो   शुमार   करता है

वो कभी  सच  न  देख पाएगा
खु़द ही अपना हिसार करता है

और ये है 'शरद' का दिल पागल
जो  सदा   ग़म-गुसार  करता है
       --------------
*हिसार = क़िलेबंदी
*ग़म-गुसार = दुख-दर्द का बाँटने वाला, सहानुभूति प्रकट करने वाला

04 June, 2022

कविता | लाखा बंजारा झील | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | युवा प्रवर्तक

प्रिय मित्रों,  मेरी कविता "लाखा बंजारा झील" वेब मैगजीन "युवा प्रवर्तक" में आज प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं भाई देवेंद्र सोनी जी की हार्दिक आभारी हूं 🙏 
यह कविता आपके शहर की भी हो सकती है... इसे पढ़ें और महसूस करें...
इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं..
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=570862761342376&id=108584627570194

आप सभी की सुविधा के लिए टेक्स्ट भी दे रही हूं.....
कविता
लाखा बंजारा झील
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सूखी झील के 
रेगिस्तान में
देखा है
इन दिनों मैंने
शहर के गर्व नमी को
मछली-सा तड़पते हुए

झील
जो बनवाई 
एक बंजारे ने,
झील
जिसे रखने को जीवित
आत्मबलिदान किया
एक जोड़े ने
झील
जो हर बजट में
लिटाई जाती रही
कथित उद्धार के
ताबूत में

हर साल
चलते रहे फावड़े
उठती रहीं कुदालियां
श्रमदान की तस्वीरों से
सजते रहे अख़बार
गोया झील एक मंच थी
राजनीतिक नाट्यदल की,
बड़बोले समाजसेवियों की,
प्रशासन के झोलाछाप
उच्चाधिकारियों की।

जबकि
रिसता रहा
झील का लहू
गिरता रहा
ऑक्सीजन स्तर
मरते रहे जलजन्तु,
हम ख़ामोशी से 
पढ़ते रहे खबरें 
पल पल मरती झील की

झील
आज है
उद्धार के
ऑपरेशन टेबल पर
दरवाज़े पर जलती
लालबत्ती
कब होगी हरी?
पता नहीं !
ऑपरेशन 
कब होगा पूरा
पता नहीं !

हां,
मेरे शहर की झील
टंगी है इनदिनों
प्रशासनिक सूली पर
बाट जोहती
एक बार फिर
तरंगायित होने की
जल से, जीवन से।
    ------------

20 May, 2022

ग़ज़ल | यादों को उसकी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

यादों को उसकी भुलाना कठिन है
हथेली पे  सरसों  उगाना कठिन है
मुद्दत  से   देखा  नहीं  है  भले ही
ज़ेहन से उसको मिटाना कठिन है।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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18 May, 2022

कविता | वस्त्र के भीतर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नेशनल एक्सप्रेस

मित्रो, नई दिल्ली से प्रकाशित "नेशनल एक्सप्रेस" के साहित्यिक परिशिष्ट "साहित्य एक्सप्रेस" में मेरी आज एक कविता प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है "वस्त्र के भीतर"। आप भी पढ़िए।
हार्दिक धन्यवाद गिरीश पंकज  ji🙏
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कविता
वस्त्र के भीतर 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मन का जुलाहा
बुन रहा 
विचारों और
भावनाओं का ताना-बाना

डाल रहा सुनहरे बूटे
कल्पनाओं के
बुनने 
दिल की चादर

खट्खट् चलती
धड़कनें
सांसों की सुतली से बंधीं
फ्रेम-दर-फ्रेम

त्रासदियों के शटल 
गसते बुनावट को
फिर भी बचे रहते 
संभावनाओं के छिद्र
ताकि
आ सके प्राणवायु
देह के रेशे-रेशे में
दुनियावी
वस्त्र बदलने तक

आवरण है वस्त्र तो
जिसे पड़ता है बुनना
वरना 
हर देह रहती है नग्न
अपने वस्त्र के भीतर
वस्त्र चाहे रेशम का हो 
या सूत का,
वस्त्र मिलता है 
दुनिया में आकर 
और छूट जाता है यहीं

वस्त्र ढंकते हैं देह को
देह आत्मा को
और एक अनावृत आत्मा 
हमारा अंतर्मन ही तो है
वस्त्रों की अनेक परतों के भीतर
यदि उसे 
देख सकें हम।
     ----------

13 May, 2022

ग़ज़ल | मंज़र सारे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मंज़र सारे  फ़ीके,  धुंधले  नज़र आ रहे
अश्क़ों के  पर्दे  आंखों को  ढंके  जा रहे
इश्क़ का  शीशा टूटा, किरचें  बिखर गईं
जख़्मी पैरों से आखिर हम किधर जा रहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


#Ghazal #शेर #Shayri #Poetry 
 #Literature #डॉसुश्रीशरदसिंह #ग़ज़ल #SharadSingh #ShayariLovers 
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh

12 May, 2022

कविता | मेरी भावनाएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
मेरी भावनाएं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाएं
कभी सुप्त विसूवियस 
तो कभी
अलकनंदा की
कल-कल लहरें

भावनाएं
कभी थिर ध्रुव तारा
तो कभी
उल्काओं की बारिश

भावनाएं
कभी सीधी लकीरें
तो कभी
पिकासो की पेंटिंग्स

भावनाएं
कभी स्टेयरिंग व्हील
तो कभी
घूमते पहियों की रिम

भावनाएं
कभी हथेली की मेंहदी
तो कभी
मुट्ठी से फिसलती रेत

भावनाएं
कभी गोपन अंतःध्वनि
तो कभी
कलरव, कल्लोल

भावनाएं
कभी जादुई छुअन
तो कभी
कटीले तारों की बाड़

भावनाएं 
कभी कविता के शब्द 
तो कभी 
उपन्यास के कथानक

भावनाएं 
चलती हैं अपनी मनमर्जी से 
किसी हुक्मरान के 
हुक्म से नहीं

ये मेरी भावनाएं हैं 
जो बनकर लाल रक्त कणिकाएं
मुझे देती है स्पंदन 
मैं उन्हें नहीं,

वे यांत्रिक नहीं 
वे हैं खांटी प्राकृतिक 
क्योंकि
भावनाएं
बिजली का स्विच नहीं
कि कभी भी
किया जा सके
ऑन या ऑफ 
एक उंगली के इशारे से।
------------------

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09 May, 2022

कविता | बहुत छोटा है प्रेम शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

साहित्यिक सरोकारों वाली वेब मैगजीन "युवा प्रवर्तक" में आज मेरी कविता प्रकाशित हुई है इसका शीर्षक है -"बहुत छोटा है प्रेम शब्द"।
इस लिंक्स पढ़िए -
https://yuvapravartak.com/63091/
तथा युवा प्रवर्तक के फेसबुक पर भी -
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=553367486425237&id=108584627570194

कविता
बहुत छोटा है प्रेम शब्द
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

काश!
वह सड़क लम्बी हो जाए
टूर से
घर लौटने वाली,
तुम्हारी यात्रा
बढ़ जाए
एक घंटे और 
दो घंटे और 
तीन घंटे और 
चार घंटे और 
और ..और ..और..
चाहता है स्वार्थी मन 
बस इतना ही
कि तुम अनवरत चलते रहो 
और 
बातें करते रहो मुझसे
मन की 
दुनिया की 
ब्रह्मांड की
समता की
विषमता की
वर्तमान की
अतीत की
आशा की
निराशा की
बातें ही तो हैं 
जो जोड़े रखती हैं 
परस्पर हम दोनों को 
एक-दूसरे से 
वरना इस दुनियावी चक्र में 
मैं पृथ्वी हूं 
तो तुम सुदूर प्लूटो 
कोई नहीं साम्य नहीं 
कोई नहीं मेल 
कोई नहीं अपेक्षा  
कोई नहीं संभावना 
कोई नहीं वादा
कोई नहीं इरादा
बस दो ग्रहों की भांति 
एक आकाशगंगा में 
विचरते हुए हम 
बातें ही तो करते हैं 
अपने एंड्राइड फ़ोन में
परअंतरक्षीय तरंगें उतारकर
मिटा लेते हैं
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरी
जो कोई ग़ुनाह नहीं 
इसीलिए 
चाहती हूं तुम्हारी यात्रा 
हर दफ़ा सड़क की लंबाई को 
ज़रा और बढ़ाती जाए 
और हम अपनी धुरी में घूमते हुए 
एक-दूसरे के अस्तित्व को महसूस कर 
होते रहें ऊर्जावान
अपने अलौकिक अहसास के साथ
बहुत छोटा है प्रेम शब्द 
जिसके आगे।
       ------------
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29 April, 2022

कविता | @कंडीशन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
@कंडीशन
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बहुत है कोलाहल
जीवन में,
शब्दों और ध्वनियों का
सघन समुच्चय
फिर भी मन के 
निर्वात परिसर में
पसरी हुई निःशब्दता
करती है प्रतीक्षा
एक वॉयस-कॉल की
क्योंकि 
पागल मन
सोच लेता है
कि पूरा होगा
एक आश्वासन
जो 
दिया गया
दफ़्तरी अंदाज़ मेंं
कि - समय मिलते ही 
देख ली जाएगी फाईल 
निपटा दिया जाएगा केस 
सुलझा दी जाएगी समस्या 
...पर समय मिलते ही !
@कंडीशन...
कर ली जाएगी बात
लगा लिया जाएगा फ़ोन
समय मिलते ही...

वादा नहीं
सो, दोष नहीं
कोई गुंजाइश नहीं
उलाहने की

दोषी है कोई यदि
तो
वह
बावरा मन
जो मान बैठा
सदाशयता को
उम्मीद,
जबकि
उम्मीदें तो होती ही हैं
टूटने के लिए।
--------

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#उम्मीद #दोषी #आश्वासन #कोलाहल #ध्वनि #कंडीशन #टूटने

28 April, 2022

कविता | वह चूहानुमा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


कविता
चूहानुमा
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक विशेषता है
मनुष्य योनि में हो कर भी
चूहा होना,
वह भी
जहाज का चूहा

जो जहाज के
डूबने की
आशंका में ही
छोड़ देता है
जहाज को

मुझे नहीं लगता
कि कर सकता है ऐसा
मनुष्य
यदि उसके भीतर है
सच्ची मनुष्यता

होने को तो ...
सुकरात को
विष का प्याला
दिया था मनुष्यों ने ही
ब्रूटस भी मनुष्य ही था
जिसने सीजर के पीठ पर
भोंका था छुरा

वह मनुष्य ही था
जिसने
ज़हर पिलाया मीरा को
और परित्याग कराया सीता का

वह मनुष्य ही था
जिसने
बापू गांधी के सीने मेंं
उतार दी गोलियां
और करा दी थीं हत्याएं
जलियांवाला बाग में

अवसरवादिता
लिबास बदलती है
और ढूंढ लेती है
नित नए आका

कभी सत्ता
तो कभी जिस्म
तो कभी ताक़त
कभी ये सभी
ज़्यादातर राजनीति में

लेकिन अब
चूहानुमा
मानवीय नस्ल
राजनीति से
आ गई है
प्रेम में भी,
छोड़ जाती है साथ
संकट की घड़ी में
प्रेम रह जाता है
हो कर आहत
एक
डूबे जहाज की तरह

कृतघ्न चूहा क्या जाने
रच देते हैं प्रेम का इतिहास
टूटे /डूबे जहाज भी
और निभाते हैं प्रेम
अनंत गहराइयों में
अनंत काल तक।
--------

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#चूहा  #प्रेम #जहाज  #सीजर  #ब्रूटस  #मीरा  #सीता

23 April, 2022

कविता | अपराध | डॉ शरद सिंह | प्रजातंत्र

इन्दौर के  लोकप्रिय दैनिक प्रजातंत्र में आज मेरी एक कविता संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुई है.... जिसका शीर्षक है "अपराध" ... आप भी पढ़िए...
#हार्दिकधन्यवाद  #प्रजातंत्र  🌷🙏🌷

#डॉसुश्रीशरदसिंहकीकविताएं 
#कविता #मेरीकविताएं #अपराध
#PoetriesOfDrMissSharadSingh #Poetry  #mypoetries 

10 April, 2022

ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 10.04.2022 को "हमको  जीने की आदत है" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल | हमको  जीने की आदत है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

अपने सुघड़ उजालों को  तुम, रक्खो अपने पास।
हमको  जीने की आदत है, काले दिन, उच्छ्वास।

चतुर शिकारी  जाल  डाल कर बैठा  सारी  रात
सपनों को भी  लूट रहा है,  बिना दिए  आभास।

बढे़ दाम की  तपी  सलाखें,  दाग रही  हैं  देह
तिल-तिल मरता मध्मवर्गी,  किधर  लगाए  आस।

बोरी  भर के  प्रश्न उठाए,  कुली  सरीखे  आज
संसद के  दरवाज़े  लाखों  चेहरे  खड़े  उदास।

जलता  चूल्हा  अधहन  मांगे, उदर पुकारे  कौर
तंग  ज़िन्दगी कहती अकसर-‘तेरा काम खलास!’

अनावृष्टि-सी कृपा तुम्हारी, और  खेतिहर  हम
धीरे-धीरे  दरक  चला है,  धरती-सा विश्वास।

सागर बांध  लिया पल्लू में,  और पोंछ ली आंख
मुस्कानें फिर ओढ़-बिछा लीं, बना लिया दिन ख़ास।

तड़क-भड़क की इस दुनिया में, करें दिखावा लोग
फिर भी अच्छा लगता हमको, अपना फटा लिबास।

यही धैर्य का गोपन है जो,  रहे ‘शरद’ के साथ
आधा खाली मत देखो,  जब आधा भरा गिलास।
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#ग़ज़ल #शायरी #डॉसुश्रीशरदसिंह  #Ghazal #Shayri #DrMissSharadSingh
#नवभारत


09 April, 2022

मुक्तक | धूप को धूप जो नहीं लगती | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मुक्तक
पी के पानी भी,प्यास है जगती।
छांह भी आजकल मिले तपती।
क्यों दया  आएगी भला उसको
धूप  को  धूप  जो  नहीं  लगती।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

31 March, 2022

नींद का फूल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता


#नींद  का #फूल  - #डॉसुश्रीशरदसिंह
#कविता  #कविताएं  #सपना  #अधूरा  #रतजगा #मुरझाना
#poetry  #poetrylovers

27 March, 2022

मेरी तन्हाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत

"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 27.03.2022 को "मेरी तन्हाई" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
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ग़ज़ल
मेरी तन्हाई
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

मेरी तन्हाई भी मुझसे मिलने से घबराती है।
यादों के सैलाब में अक्सर धड़कन डूबी जाती है।

कहने को दुनिया पूरी है लेकिन कोई नहीं सगा
बेगानों के बीच खुशी भी आने से कतराती है।

तेल ज़रा सा है दीपक में, फिर भी देखो तो हिम्मत
नीम अंधेरे में एक नन्हीं बाती जलती जाती है।

ऊपर वाले को हम कोसें या फिर कोसें क़िस्मत को
एक नदी जब चट्टानों से रह-रहकर टकराती है।

दिल पर पत्थर रखना मैंने, सीख लिया है दुनिया से
होठों की तो छोड़ो अब तो आंखें भी मुस्काती हैं।

रंग बहुत है इंद्रधनुष में, पर बेरंग हालात हुए
कोई भी तस्वीर आंख को अब तो नहीं लुभाती है।

किसके ख़ातिर जीना है अब, किसके ख़ातिर मरना है
एक यही तो बात समझ में, मुझे नहीं अब आती है।

'शरद' सुहाना मौसम बीता, जीवन में पतझार हुआ
अब तो वर्षा आंसू बनकर, आंखों में आ पाती है ।
        
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#SharadSingh #shayari #ghazal #GhazalLovers
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21 March, 2022

विश्व कविता दिवस | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


#विश्व_कविता_दिवस  की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷
...........................
कविता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाओं की तरंगों पर
सवार
शब्द-यात्री
है वह,
जिसके चरण पखारते हैं
विचार
और चित्त में बिठाते हैं
रस, छंद, लय, प्रवाह

जिसका अस्तित्व है
मां की लोरी से
मृत्युगान तक
जो है भरती
श्रम में उत्साह
जो दुखों को
कर देती है प्रवाहित
दोने में रखे
दीप के समान

वह है तो वेद हैं
वह है तो महाकाव्य हैं
उसके होने से
मुखर रहते हैं भारतीय चलचित्र,
वह रंगभेद के द्वंद्व में
गायन बन कर
श्रेष्ठता दिलाती है
अश्वेतों को,
वह वैश्विक है
क्योंकि
मानवता है वैश्विक
और वह है उद्घोष
मानवता की।

वह नाद है, निनाद है
प्रेम है, उच्छ्वास है
वह कविता ही तो है
जो प्रेमपत्रों से
युद्ध के मैदानों तक
चलती रही साथ।
जब लगता है खुरदरा गद्य
तब रखती है
शीतल संवेदनाओं का फ़ाहा
कविता ही,
कविता समग्र है
और समग्र कविता है।
         -------------
#डॉसुश्रीशरदसिंहशरदकीकविताएं
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20 March, 2022

अंत नहीं शुरुआत नहीं | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह | नवभारत


 "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज 20.03.2022 को "अंत नहीं शुरुआत नहीं" शीर्षक ग़ज़ल प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏
----------------------------


ग़ज़ल
अंत नहीं शुरुआत नहीं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

कैसे लिख दें  राम-कहानी, लिखने वाली बात नहीं।
नभ-गंगा  हैं  भीगी  आंखें, पानी भरी परात  नहीं।

समय-डाकिया लाया अकसर, बंद लिफाफा क़िस्मत का
जिसमें से बाधाएं निकलीं, निकली पर  सौगात नहीं।

तलवों में  है  दग्ध-दुपहरी, माथे पर  झुलसी शामें,
जी लें जिसमें  पूरा जीवन,  नेहमयी  वह रात नहीं।

तेज हवा ने  तोड़ गिरा दी, लदी आम की डाल यहां
अपना आपा याद रख सके, इतनी भी अभिजात नहीं।

उमस रौंदती है  कमरे को, तनहाई  जिसमें  ठहरी
ऊंघ रही दीवारें  अब तक,  सपनों की बारात नहीं।

नुक्कड़ के कच्चे ढाबे में, उपजे प्यालों की खनखन
मुक्ति दिला दे जो विपदा से, ऐसा भी संधात नहीं।

अपना भावी, निरपराध ही,  दण्ड झेलता दिखता है
लिखने को अक्षर ढेरों हैं, क़लम नहीं, दावात नहीं।

शबर-गीत हैं शर-धनुषों में, कपट नहीं, छल-छद्म नहीं
भोले-भाले भील-हृदय में, चुटकी भर प्रतिघात नहीं।

टूटे  तारे  के  संग  ढेरों  सम्वेदन  जुड़  जाते हैं
बिना राह से फिसले लेकिन,  होता उल्कापात  नहीं।

शिविर समूहों में खोजा है,  खोजा है  अख़बारों में
मिले हज़ारों लेखन-जीवी,  मिला नहीं हमज़ात कोई।

खण्ड काव्य है, महाकाव्य है और न कोई गीत-ग़ज़ल
चूड़ी  जैसी  पीर  हमारी,  अंत नहीं, शुरुआत  नहीं।

गिर पड़ते हैं अर्ध्य सरीखे,  अंजुरी  जैसी  आंखों  से
‘शरद’ आंसुओं को पीने में,  इतनी भी  निष्णात नहीं।

(निष्णात = माहिर)

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