मित्रो, नई दिल्ली से प्रकाशित "नेशनल एक्सप्रेस" के साहित्यिक परिशिष्ट "साहित्य एक्सप्रेस" में मेरी आज एक कविता प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है "वस्त्र के भीतर"। आप भी पढ़िए।
हार्दिक धन्यवाद गिरीश पंकज ji🙏
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कविता
वस्त्र के भीतर
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
मन का जुलाहा
बुन रहा
विचारों और
भावनाओं का ताना-बाना
डाल रहा सुनहरे बूटे
कल्पनाओं के
बुनने
दिल की चादर
खट्खट् चलती
धड़कनें
सांसों की सुतली से बंधीं
फ्रेम-दर-फ्रेम
त्रासदियों के शटल
गसते बुनावट को
फिर भी बचे रहते
संभावनाओं के छिद्र
ताकि
आ सके प्राणवायु
देह के रेशे-रेशे में
दुनियावी
वस्त्र बदलने तक
आवरण है वस्त्र तो
जिसे पड़ता है बुनना
वरना
हर देह रहती है नग्न
अपने वस्त्र के भीतर
वस्त्र चाहे रेशम का हो
या सूत का,
वस्त्र मिलता है
दुनिया में आकर
और छूट जाता है यहीं
वस्त्र ढंकते हैं देह को
देह आत्मा को
और एक अनावृत आत्मा
हमारा अंतर्मन ही तो है
वस्त्रों की अनेक परतों के भीतर
यदि उसे
देख सकें हम।
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वाह! बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteसच अपनी आत्मा को पहचान लिया तो जग जीत लिया समझो
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
बहुत अच्छी और सुंदर रचना
ReplyDeleteबधाई
पारिभाषित आत्मदर्शन !
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