21 July, 2024

शायरी | असर नहीं होता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दिल धड़कता है मगर जान अब नहीं बाकी,
अब किसी चोट का, उस पे असर नहीं होता।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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01 July, 2024

शायरी | छोड़ गया | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हम बस्ते में बंधे रह गए "शरद" फाइलों के जैसे,
हमको दस्तावेज़ बनाकर लिखने वाला छोड़ गया।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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30 June, 2024

शायरी | नफ़रतें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

नफ़रतें तो किसी काम आती नहीं।
दुश्मनी,  दुश्मनी को मिटाती नहीं।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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25 June, 2024

कविता | प्रेम का पुण्य-स्मरण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
प्रेम का पुण्य-स्मरण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दो दरवाज़े
दो खिड़की वाले
कमरे की 
सवा तीन दीवारों 
में से एक पर
पीठ टिका कर
करती हूं
प्रेम का पुण्य-स्मरण

प्रेम 
जो कभी आया था जीवन में
एक पूरे चांद 
और दिन के उजाले की तरह
ऊर्जा, उष्मा, संभावना, सुख
सब कुछ तो था उसमें
हां,
यही तो लगा था मुझे

किंतु वह प्रेम
तो निकला
रेगिस्तानी 
रेत के टीले
की तरह
एक आंधी में
बदल गया
उसका ठिया

रेत के टीले 
बदलने पर जगह 
नहीं छोड़ते निशान भी

पर मन रेत नहीं, रेगिस्तान नहीं
यह तो रहता है स्पंदित
धड़कन की 
हर थाप के साथ

सो, जब मैं करती हूं
दिवंगत प्रेम का पुण्य-स्मरण
तो भले ही
बदल जाता है कमरा
एक तपते रेगिस्तान में
पर मेरे होठों से 
फूट पड़ते हैं 
श्रद्धांजलि के 
दो शब्द

उसके विछोह नहीं,

अपने टूटे हुए
सपनों के लिए।
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24 June, 2024

ठीक उसी समय | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता

ठीक उसी समय
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

स्वरुचि भोज स्थल के पीछे
धधकते
व्यावसायिक
गैस चूल्हे से उतरा
बांस की कमचियों से
बुनी गई टोकरी में
पसाने को डाला गया
ताज़ा रांधा गया भात
हवा में
घोलता है वह सुगंध
कि जाग उठती है
आदिम
अदम्य
भूख
भात की वह सफ़ेद छटा
भाप के धुंधलके से उभर कर
दिलाती है याद
न जाने कितने
विस्थापित
भटक रहे हैं
एक मुट्ठी
बासी भात के लिए
ठीक उसी पल
दिखता है रक्तरंजित
ताज़े भात का
एक-एक कण
ठीक उसी पल
स्वयं को पाते हैं
कटघरे में
"स्व" "रुचि" और "भोज"।
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08 June, 2024

शायरी | ख़्वाब | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ख़्वाब  तारों  से   टिमटिमाते हैं
सुबह    होते   ही   टूट  जाते हैं
ज़िंदगी  दुश्मनों - सी  लगती है
क्या कहें, किस तरह निभाते हैं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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06 June, 2024

शायरी | ख़ामोश | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरे कमरे में इक ख़ामोश दुनिया आ बसी है 
लिहाज़ा दिल भी  धड़कने से ज़रा डरने लगा है
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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