31 October, 2021

एक और शाम | कविता | डॉ शरद सिंह

एक और शाम
    - डाॅ शरद सिंह

एक और शाम
उदासी के पोखर में
आ गई डुबोने

नहीं जाएगी 
एकांतिक शीत
किसी भी
लिहाफ़ या कम्बल से
न शाॅल, न स्वेटर से

अब कहां
वह उष्मा
जो मिलती 
गोद में सिर रखने से
अब वह 
गरमाहट कहां
जो शब्दों की चाय संग
उतर जाती
दिल में

बुझ गई
ममत्व की अंगीठी
दब गए अंगारे
त्रासदी की राख तले
अभी तो कार्तिक ही आया
आएगा पूस और माघ भी
जब फेंकेगा हीटर-ब्लोअर 
सन्नाटे की ठंडी हवा
कैसे कटेंगी वे
जड़कारे की शामें
दहशत होती है
सोच कर अभी से

ओ शीत !
किसने कहा 
कि तुम आना
उनके पास जो
रह गए हैं अकेले
मत दो उन्हें 
अवसाद की सज़ा
जितना झेला
वह कम नहीं क्या?
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30 October, 2021

शाप की एक और किस्त | कविता | डॉ शरद सिंह

शाप की एक और किस्त
          - डॉ शरद सिंह

धीरे-धीरे टहलता हुआ
आ रहा जाड़ा,
उदास
अवसादी शाम
घोल रही है सूनापन
आंखों की नमी में

गहराने लगता है
संसार की 
नश्वरता का बोध
और एकाकीपन का
बर्फीला अहसास
मन दौड़ता है 
मकरोनिया चौराहे
या सिविल लाईन की
गहमागहमी की ओर

बेचारा, 
बेवकूफ़ मन!
भीड़ के रेले में
तलाशता ठहराव,
हार-थक कर लौटता
सिमटता
अपने एकांत के खोल में
किसी कछुए की तरह
या 
शापित यक्ष की भांति
हो जाता है 
प्रतीक्षारत 
शापमुक्त होने के लिए

शाप
अभी जाड़े में 
और गहराएगा
जब होते जाएंगे
दिन छोटे
और रातें लम्बी
मानो प्रकृति भी 
देगी सज़ा
यक्षी-मन को
बंद कमरा
भर जाएगा 
सिसकियों से
किसी बीहड़ में
सांय-सांय करती
ध्वनि की तरह
निःशब्द रुदन से
शाप की एक और
किस्त बन कर।
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Truth of life | Poetry | Dr (Miss) Sharad Singh

Truth of life
       - Dr (Miss) Sharad Singh

I never saw but 
feel my pain.  
I have never seen but 
feel love. 
I have never felt but 
seen a falling star.  
That is, 
everything felt
cannot be seen 
and 
everything seen 
cannot be felt.
This is 
the truth of life.
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28 October, 2021

क़िस्से | कविता | डॉ शरद सिंह

क़िस्से
        - डॉ शरद सिंह
बंद कमरों में 
लेते हैं जन्म 
क़िस्से कई बार
और रह जाते हैं 
बंद कमरों में ही

नहीं कोई चर्चा करता
दीवारों के उस पार उनकी
नहीं जान पाता पीड़ा
दीवारों के पार उनकी
वे सोए रहते हैं
खोए रहते हैं 
दबे रहते हैं
बंद कमरों में ही

क्योंकि वे क़िस्से
होते हैं स्त्री-जीवन की
त्रासदी के
शोषण के, उत्पीड़न के
घरेलू हिंसा के
ये हैं वे क़िस्से 
जो कभी
लांघ नहीं पाते हैं
घर की चौखट
दरवाज़ा खुला रहने पर भी।
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23 October, 2021

शब्द-शक्ति | कविता | डॉ शरद सिंह

शब्द-शक्ति
    - डॉ शरद सिंह
शब्द 
शब्द को दुत्कारते हैं
शब्द 
शब्द को पुचकारते हैं
शब्द 
शब्द को बचाते हैं
शब्द 
शब्द से निभाते हैं
शब्द 
शब्द को चुराते हैं
शब्द 
शब्द को पकड़वाते हैं
शब्द 
शब्द को उठाते हैं
शब्द 
शब्द को गिराते हैं
शब्द 
शब्द को नचाते हैं
शब्द 
शब्द को घुमाते हैं
शब्द 
शब्द का रास्ता बदलते हैं
शब्द 
शब्द के साथ चलते हैं
शब्द
शब्द से प्रेम निभा देते हैं
शब्द
शब्द से झगड़ा करा देते हैं
शब्द 
शब्द को ज़िंदगी देते हैं
शब्द 
शब्द की जिंदगी लेते हैं
शब्दों को
दरकार नहीं ध्वनि की
लिखे हुए शब्द
शब्द ही नहीं
इंसानी-धड़कन भी
बंद करा देते हैं
न्यायाधीश की
कलम की नोंक
टूटने के बाद।
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20 October, 2021

शरद का चांद | कविता | डॉ शरद सिंह

शरद का चांद
          - डॉ शरद सिंह
शरद पूनम का चांद 
पूरा है
पर
भीतर से
अधूरा है

या फिर
मेरी उदास आंखें
छलछला उठी
उसे देखते ही
और 
दिखने लगा
चांद भी उदास

यादों के धब्बे
कैसे धोएगा चांद
मुझे पता नहीं
और कब तक
रोएगा चांद
मुझे पता नहीं

पता है तो
सिर्फ़ इतना कि
उदासी शीत
उतरा करेगी आंगन में
और
दूब की नोंक पर
दिखेंगे रात के आंसू
बड़े भोर से

शुक्लपक्षी बन कर
उड़े आकाश में
या छिप जाए
कृष्णपक्षी बन कर
चांद उदास रहेगा
ऋतु शरद उदास रहेगी
उदास रहेगी रात
व्यस्तता भरा दिन लिए
सूर्य के आने तक
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17 October, 2021

अब तो चाहिए | कविता | डॉ शरद सिंह

अब तो चाहिए...
          - डॉ शरद सिंह
बहुत थकान होती है -
उधार के रिश्तों को 
जीते हुए, 
जैसे ओढ़ी हुई मुस्कान
थका देती है होंठों को
गालों को 
और आंखों की कोरों को
हां,
बहुत थकान होती है -
जब रिश्तों को जीते हैं
रिश्तों के बिना
जीत की उम्मींद में
फेंके हुए पासों की तरह।

और थक-हार कर 
अकसर सोचता है मन
ये ज़िन्दगी 
थकी-थकी सी है
अनुबंधों के लिबास तले
ओह, अब तो चाहिए 
एक सुई या पिन
जिससे उधेड़ा जा सके
इस लिबास की सीवन को।
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16 October, 2021

अनजाना मुस्तक़बिल | ग़ज़ल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल 
अनजाना  मुस्तक़बिल
           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

निपट  उदासी   बैठी  है  घर  डेरा  डाले
हर  कोने  में  सूनेपन  के   मकड़ी जाले

भरी   दोपहर  अंधियारा  छाया लगता है
या  फिर  दिन  ही  हो बैठे हैं काले-काले

उसकी  बातें   बसी   हुई  हैं  दीवारों   में
इक-इक लम्हा अब तो उसके हुआ हवाले

कब  तक कोई  खुद के  आंसू को  पोंछेगा
तनहा दिल क्या तनहाई को खाक सम्हाले

अनजाना  मुस्तक़बिल*  बैठा  दरवाज़े पर
पलक झपकते  चले गये  दिन  देखे-भाले
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*मुस्तक़बिल = भविष्य
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14 October, 2021

वह लड़का | कविता | डॉ शरद सिंह

वह लड़का
          - डॉ शरद सिंह
वह 
जीवन के नाम पर
एक 
जीता-जागता धोखा

अपनी मां की 
हड़ीली कमर पर
कैंया चढ़ा
उम्र दो साल
वज़न कुल सवा चार किलो
पसलियों से चिपकी चमड़ी
लोहार की धौंकनी-सी
चलती सांसें
ज़रिया है उसका वज़ूद
भीख मांगने का
उसकी मां के लिए,
उसके बाप के लिए,
उसके 
बिज़ूका भाई-बहनों के लिए

अपनी बड़ी-बड़ी आंखें से
दुनिया को देखता
कंधों से लटकी
फटी बुशर्ट 
कटे पंखों सी लटकी
तन नहीं ढांपती उसका
चीथड़े-सी निकर
कूल्हे भी रखती उघारे
धूप, बारिश, जाड़ा
गुज़ारेगा वह इसी तरह,
जब तक रहेगा जीवित

उसे पता नहीं
वह एक
बेहतरीन शो-पीस 
बन सकता है
अगर किसी दिन
किसी को 
कुपोषण के 
विज्ञापन के लिए 
उसकी जरूरत पड़ी,
उसका पिचका-भुखाया पेट 
और एक-एक पसलियां 
चमक उठेंगी 
विशालकाय होर्डिंग्स पर

उसे एक दाना नहीं,
पर मिल जाएगा 
विज्ञापन करने वालों को 
करोड़ों का अनुदान
किसी भी देशी-विदेशी संस्था से,
और वह लटका रहेगा 
अपनी मां की 
हड़ीली कमर पर 
इसी तरह 
अपनी आखिरी सांस तक,
सांसे 
जो शायद कुछ महीने 
या साल भर 
और चल जाएं 
या सिमट जाएं कुछ ही दिन में

फ़िलहाल
उसे सभी ने देखा होगा 
अपने अपने शहर में।
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12 October, 2021

डॉ शरद सिंह सागर की 2021 की 'पिंक सागर' की 100 शक्तिशाली महिलाओं में

पिंक सागर! मेरा नाम सागर की 2021 की 100 शक्तिशाली महिलाओं की आपकी सूची में है...
 इस सम्मान के लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏

Pink Sagar! my name is in your list of Sagar's 100 Powerful Women of 2021...
Hearty Thanks for this Honour 🙏
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#Sagar #WomenPower 
#Thanks #Honour

10 October, 2021

सयानी लड़की | कविता | डॉ शरद सिंह

सयानी लड़की
     - डॉ शरद सिंह

वह लड़की
अपने हड़ीले
कमज़ोर दिखने वाले
बाएं कांधे पर
लाद कर 
प्लास्टिक की बोरी
घूमती है
एक छोकरे के साथ
जो यक़ीनन भाई है उसका

वह बीनती है
भाई के साथ
दारू के खाली पाऊच
और डिस्पोज़ल गिलास
दारू की दूकान  के सामने
अलसुबह से,
जब लोग 
दौड़ रहे होते हैं
अपनी सेहत बनाने

चिरकुट फ्राक वाली
वह आठ सालाना लड़की
जानती है कि
उन पाऊच और गिलासों में
वे भी होंगे
जिन्हें इस्तेमाल किया होगा
कल देर शाम गए
उसके पियक्कड़ बाप ने

हर दिन वह
बीनती है पाऊच और गिलास
बदले में हर दिन
कबाड़ी से पाती है
बीस रुपए
हथिया लेता है उसमें से
पांच रुपए भाई
दस रुपए बाप
और बचे पांच
वह रख देती है
अपनी कुटी-पिटी मां की
सख़्त हथेली पर
स्वेच्छा से
और खुश हो जाती है
पुंगी पा कर बासी रोटी की

है न लड़की सयानी?
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09 October, 2021

असंभव-सा संभव | कविता | डॉ शरद सिंह

असंभव-सा संभव

     - डॉ शरद सिंह
किसी भी समय
उठने लगती हैं
सीस्मिक तरंगें
कांपने लगती है
भावनाओं की सतह
सरकने लगती हैं
विश्वास की
टेक्टोनिक प्लेट्स

मेरी सांसोंं का
सिस्मोमीटर
निरंतर बनाता है ग्राफ
धड़कन के
रिक्टर स्केल पर
और करता है कोशिश
नापने की
पीड़ा से उपजे
भूकंप की तीव्रता को

दौड़ती है तेजी से सुई
और
लॉगरिथमिक प्वाइंट
दर्शाता है तीव्रता
कभी सात 
तो कभी दस

यह असंभव-सा
संभव,
करता है
विचलित मुझे कि
विध्वंस के
अंतिम बिन्दु पर
पहुंच कर भी
बची हुई है
मेरे अस्तित्व की धरती

ये तो हद है-
सोचने लगे हैं
मेरी पीड़ा के
सिस्मोलॉजिस्ट

हैरत तो होगी ही
महाविनाश से
गुज़र कर भी
कोई बचता है भला?
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08 October, 2021

अपराधी | कविता | डॉ शरद सिंह

अपराधी
        - डॉ शरद सिंह

मेरी ख़ुशियों की
मृत देह को
कोई जांचे
मेग्नीफाईन ग्लास से
और कर ले मिलान
मेरी क़िस्मत के लेखे से
तो उसे मिलेंगे
शव की गर्दन पर
तुम्हारे ही फिंगरप्रिंट
हर फोरेंसिक जांच में

तुम्हारे ही पैरों के निशान
मेरे आसपास

स्निफर डॉग पाएगा
तुम्हारी ही गंध
मेरे घर से

हर साक्ष्य
चींख-चींख कर
करेगा इशारा तुम्हारी ओर

मगर
तुम बच निकलोगे साफ़
तुम्हारी सर्वसत्ता
बचा लेगी तुम्हें
हमेशा की तरह,
बावज़ूद
हत्या का 
जघन्य अपराध 
करने पर भी

किन्तु नहीं करेंगी माफ़
मेरी मृत ख़ुशियां तुम्हें
और मैं भी नहीं,
हे ईश्वर !
तुम मेरे अपराधी हो
और
रहोगे सदा अपराधी ही
सबूत और दलीलों से भरी 
मेरी अदालत में
हमेशा-हमेशा।
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04 October, 2021

छापामार उदासी | कविता | डॉ शरद सिंह

छापामार उदासी
        - डॉ शरद सिंह

उदासी
किसी छापामार की तरह 
आ धमकती है- 

बादलों से घिरी
अंधियारती शाम 
या फिर
किसी की याद,
किसी का छोड़ जाना,
किसी मित्र का
हो जाना अजनबी

पेंसिल की नोंक का
पहले ही शब्द पर टूट जाना,
चुक जाना पेन की रिफिल का
चार अक्षर लिखते ही

बात करने की
बलवती इच्छा पर
नेटवर्क व्यस्त मिलना,
या फिर, यूं ही अचानक
अकेला महसूस करना ख़ुद को

बस, एक बहाना
कोई भी, कैसा भी
उदासी 
हरदम 
फ़िराक में रहती है
आ धमकने की
चैन के दो पल भी
ज़ब्त कर लेने की
हताशा-निराशा का 
पंचनामा
लगा देता है
उस पर मुहर
मुस्तैदी से।
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03 October, 2021

सपन कपासी | नवगीत | डॉ शरद सिंह


नेह पियासी

   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह


मीलों लम्बी

घिरी उदासी

        देह ज़रा-सी।


कुर्सी, मेजें,

घर, दीवारें

सब कुछ तो मृतप्राय लगें


बोझ उठाते

अपनेपन का

पोर-पोर की तनी रगें


बंज़र धरती

नेह पियासी

       धार ज़रा-सी।


गलियां देखें

सड़के घूमें

फिर भी चैन न मिल पाए


राह उगा कर 

झूठे   सपने

नई यात्रा करवाए


रोती आंखें

सपन कपासी

     रात ज़रा-सी।

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02 October, 2021

कौन हैं गांधी | कविता | डॉ शरद सिंह

कौन हैं गांधी?
        - डॉ शरद सिंह

गांधी 
मात्र एक शब्द नहीं
मात्र एक उपनाम नहीं
बन जाता है एक विचार 
जब उसमें जुड़ जाते हैं संबोधन
गिरमिटिया
बापू
या महात्मा!

गांधी 
मात्र एक शब्द नहीं
मात्र एक उपनाम नहीं
बन जाता है
जीवन जीने का ढंग
जब उसमें समा जाती है
सत्यता, सादगी और
सहजता

गांधी
नोटों पर छपी 
सिर्फ़ तस्वीर नहीं
वह तो 
समूचे विश्व में
साख है, गारंटी है
भारतीयता की।

कौन हैं गांधी?
क्या वही
जिसके सीने में
उतार दी थीं गोलियां
गोडसे ने।

नहीं,
गांधी
सिर्फ़ वही नहीं
जितना हमने सुना, पढ़ा
गांधी को 
जान सकता है वही,
पूरी तरह
जिसने भी
कभी किया हो
सत्य के साथ कोई प्रयोग,
गांधी को 
जान सकता है वही
पूरी तरह
सिर्फ़ वही!
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