29 June, 2021

लंबी उम्र की दुआ | कविता | डॉ शरद सिंह

लम्बी उम्र की दुआ
           - डॉ शरद सिंह

मत दो मुझे
लम्बी उम्र की दुआएं

क्योंकि-

कौंधने लगता है
मेरी स्मृति में
वह सीरियाई बच्चा
नाम था
एलन कुर्दी 
मिला था मृत
औंधे मुंह पड़ा
तुर्की के समुद्री तट पर
दहल उठी दुनिया
पर
नहीं थमा युद्ध

कौंधने लगता है
मेरी स्मृति में
उगांडा का वह 
भुखमरा बच्चा
अंतिम सांसे गिनता
और 
उसे टोहता गिद्ध
तस्वीर देख
कांप उठी दुनिया
पर ग़रीबी नहीं थमी

कौंध जाता है
मोबाईल पर
पानी मांगता वह स्वर
आईसीयू कोविड वार्ड से
जो मेरी दीदी का था
पौन घंटे तक 
नहीं मिल सका था उन्हें पानी
मैं रोती रही अपनी लाचारी पर
मैं तुरंत नहीं पिला सकी पानी
न उन्हें
न और कोविड मरीजों को
दीदी चली गयीं
कुछ और मरीज भी

अब कहो,
लहूलुहान आत्मा के साथ
क्या करूंगी 
लम्बी उम्र का?
अपनी लाचारी के 
अपराधबोध के बीच
 यूं भी चुभती है तनहाई
हीरोशिमा विध्वंस के बाद के
सन्नाटे-सी।
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28 June, 2021

इन दिनों | कविता | डॉ शरद सिंह

इन दिनों
       - डॉ शरद सिंह

मेज पर रखी
अपनी हथेली पर
देखती हूं
ठहरी हुई धूप
गोल, चमकीले धब्बे-सी

देर तक देखती हूं तो
चौंधिया जाती हैं आंखें
अकुलाकर 
मूंदती हूं आंखें
दिखते हैं
काले-काले धब्बे

बदल जाता है धूप का चरित्र
आंखों में समाते ही

सोचती हूं तभी-
यानी इंसान 
धूप से भी तेज है
चरित्र बदलने में
बदल जाता है वह तो
पलक झपकते ही

धूप को पढ़ती हुई
जान रही हूं 
अपनी ज़िम्मेदारियों को
ज़रूरतों को
और
इंसान के प्रकारों को
इन दिनों।
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27 June, 2021

बेचारा प्रेम | कविता | डॉ शरद सिंह

बेचारा प्रेम
        - डॉ शरद सिंह

कल रात
मैंने सपने में देखा
बौखलाया
झुंझलाया
दिग्भ्रमित प्रेम

हर पल 
बदल रहा था
उसका रूप-
कभी टूटा पत्ता
तो कभी 
बिना हैण्डल का मग
कभी तुड़ामुड़ा काग़ज़
तो कभी
उखड़ी कॉलबेल
कभी गिड़गिड़ाता भिखारी
तो कभी
रुदन करती रूदाली

उसे व्यथित देख
पूछा -
दुख क्या है तुम्हें?

वह बोला-
छल करते हैं लोग
मेरा मुखौटा लगाकर
मुझे रहने नहीं देते 
मेरी मनचाही जगह,
मैं चाहता हूं रहना
सीरियाई, तंजानिया 
और बुरुंडी के 
शरणार्थी शिविरों में,
मैं चाहता हूं रहना
धारावी की स्लम बस्ती
और 
सोनागाछी के तंग कमरों में,
मैं चाहता हूं रहना
उन हथेलियों में
जिनमें नहीं है भाग्यरेखा
उन पन्नों में 
जिन पर नहीं लिखा गया
मेरे नाम का पत्र
उन आंखों में
जो देखना चाहती हैं मुझे
उन सांसों में
जो संचालित होना चाहती हैं
मुझसे.....

वह देर तक बोलता रहा
मैं देर तक सुनती रही
फिर रोते रहे 
गले लग कर 
हम दोनों
नींद खुलने तक

बेचारा प्रेम
नहीं है वहां
जहां चाहता है होना,
ठीक मेरी तरह।
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26 June, 2021

धर्म और प्रेम | कविता | डॉ शरद सिंह

धर्म और प्रेम
        - डॉ शरद सिंह

उसके मन ने
कहा उससे
प्रेम करो

किससे
इंसान से?
नहीं-नहीं
लोग क्या कहेंगे...

और चुन लिया उसने
पाषाण-मूर्ति को
प्रेम के लिए

प्रशंसा करते हैं लोग
उसकी
वह मुस्कुराती
अपने भीतर की
रिक्तता छिपाती 
जी रही है
लौकिक और अलौकिक के
द्वंद्व में फंसी
कहे-सुने जाने से
भयभीत

अरे, कोई समझाए 
उस पगली को
जहां भय हो
वहां
न होता है धर्म
और न प्रेम।
     -------------

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25 June, 2021

प्रेम | कविता | डॉ शरद सिंह

प्रेम
     - डॉ शरद सिंह

उसने सोचा
वह जाएगा
थैला भर प्रेम 
ले आएगा
सब्ज़ी-भाजी की तरह

वह गया
जेबें खाली की
बाज़ार में,
एक-एक टुकड़ा
खरीदता रहा
प्रेम का
दूकानों से

काला-सफ़ेद प्रेम
रंग-बिरंगा प्रेम
मखमली प्रेम
खुरदरा प्रेम
धारदार प्रेम
घिसापिटा प्रेम
हंसता हुआ प्रेम
रोता हुआ प्रेम
हथेली पर रखा प्रेम
आंखों में बसा प्रेम
रूमाल में कढ़ा प्रेम
किताब में लिखा प्रेम

लौट कर घर
उसने जोड़ा
सारे टुकड़े
प्रेम के

और यह क्या?

सारे टुकड़े 
परस्पर जुड़ते ही
बन गया
एक प्रोडक्ट
मल्टीनेशनल कंपनी का
पर
नहीं बना प्रेम
वह ठगा-सा खड़ा
देखता प्रोडक्ट
टुकुर-टुकुर
नहीं मिला प्रेम
ज़ेबें खाली कर के भी
आख़िर 
सच्चा, साबुत प्रेम 
बाज़ारू जो नहीं होता।
        --------------

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24 June, 2021

है ज़रूरी | कविता | डॉ शरद सिंह

है ज़रूरी
      - डॉ शरद सिंह
जब कोई भुला दे
किसी को
तो मानें
कि या तो वह
ड्रामा कर रहा है 
भूलने का 
या फिर 
उसने कभी 
याद रखा ही नहीं।

याद उसे रखते हैं 
जिसे करते हैं प्रेम
यानी उसने 
कभी प्रेम किया ही नहीं

प्रेम है चांद
प्रेम है सूरज
प्रेम है युद्ध
प्रेम है शांति
प्रेम है मृत्यु
प्रेम है जीवन
प्रेम है लौकिक
प्रेम है अलौकिक

हां,
एक तरफा प्रेम भी 
प्रेम ही तो है
कांच में एक तरफा लगे 
पारे से बने दर्पण की तरह 
जो दिखाता है प्रतिबिंब 
भावनाओं का
इसीलिए है ज़रूरी 
पीछे देखने की
दर्पण के
सच को जान लेने के लिए।
           ----------

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23 June, 2021

इश्क़ बिना | कविता | डॉ शरद सिंह


इश्क़ बिना 
      - डॉ शरद सिंह

पुरानी क़िताब के पन्नों-सी
पीली पड़ी यादें
अचानक हरियल हो उठीं
जब मैंने सोचा
अपने कॉलेज के दिनों को
ढीली बेलबाटम और
कसी शर्ट
पोनीटेल में कसे बाल
हाथ में नोटबुक और बॉलपेन
सब कुछ बेपरवाह-सा
पर, चाक-चौबंद क्लासेज
और नोट्स
आश्चर्य कि 
'लव लेटर्स' के बाद भी
मुझे छू न सका था 
इश्क़

सहेलियां और उनके प्रेमी
डिगा नहीं पाए थे
मेरे भीतर के खिलंदड़ेपन को
न होना था, न हुआ 
इश्क़
फिर भी 
कुछ बात थी उन दिनों 
पता नहीं क्या, पर कुछ तो थी

यूं तो था उन दिनों मुद्दा -
ईराक, ईरान, 
गाज़ापट्टी का
था उन दिनों नाम -
आयातुल्लाह खुमैनी,
फीडेल कास्ट्रो का
और था मसला यहां -
बिहार के भूमिहारों का
दलितों का
स्त्रियों का
फिर भी
हम ख़ुश थे अपने आप में
इतने ख़ुश कि 
आज भी हरिया उठता है मन
उन दिनों को याद कर

याद ही तो है
जो निर्बाध, निडर, निःशंक
आती-जाती रहती है,
दिल से दिमाग़ तक
छाती रहती है
वक़्त की क़िताब भले पीली हो
पर रहती हैं यादें 
हमेशा हरी, ताज़ा 
और ओस में नहाई हुई
इश्क़ बिना भी।
      -------------

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21 June, 2021

वॉल ऑफ फेम | कविता | डॉ शरद सिंह

वॉल ऑफ फेम
          - डॉ शरद सिंह

वो सबसे ऊपरवाली तस्वीर...
मैंने पूछा था - कौन-सी साड़ी?
और दूसरे ही पल
सामने थी मेरे 
गुलाबी रंग की साड़ी, चूड़ी 
और लिपिस्टिक

वह बीच वाली तस्वीर...
मेरे पूछ पाने से पहले ही
सामने थी मेरे
पीली सिल्क साड़ी
प्लास्टिक की पीली चूड़ी
और लाल लिपिस्टिक

वह सबसे नीचे वाली तस्वीर...
जिसमें मैं नहीं
तैयारी हुई थीं दीदी
अपने ग़ज़ल संग्रह के
लोकार्पण के लिए
तय की थी उन्होंने नहीं
मैंने उनके लिए
साड़ी, बिन्दी, चूड़ी

दर्जनों तस्वीरें
दर्जनों अहसासात

बदल गए हैं मायने
आज हर तस्वीर के
आज ये सभी तस्वीरें
याद दिलाती हैं मुझे
इवेंट्स की नहीं,
तैयारी 
जाने की इवेंट्स में
आज ये सभी तस्वीरें
याद दिलाती हैं मुझे
उस बहनापे की
जो छिन गया मुझसे
असमय 

मेरे घर के ड्राइंगरूम की 
दक्षिणी दीवार 
जो कभी थी मेरे लिए 
'वॉल आफ फेम'
आज ढल गई है 
यादों की दीवार में
मन को कुरेदते सूने संसार में।
       --------------

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20 June, 2021

दो दुनियाएं | कविता | डॉ शरद सिंह

पांव-पांव चादर
          - डॉ शरद सिंह

रोज़ रात को 
जब पड़ती हैं बिस्तर पर
सिलवटें
मेरी करवटों से
जागता है रतजगे का अहसास
नापती हूं अपनी चादर को

कभी चादर बड़ी
और पांव छोटे
तो कभी पांव बड़े
और चादर छोटी
किसी दिहाड़ी मज़दूर की 
आमदनी की तरह
कभी कम तो कभी ज़्यादा
चादर बदलती रहती है अपनी नाप
या फिर मेरे पांव ही
होते रहते हैं 
कभी छोटे तो कभी बड़े

नींद की लम्बाई
करती है तय
पांव और चादर की नाप को
और
नींद वश में है बेचैनी के

बेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
सत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर 
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर

यह खेल 
हर रात का,
यह खेल पांव-पांव चादर का
आया है मेरे हिस्से में
नियति बन कर।
      ------------

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19 June, 2021

पांव-पांव चादर | कविता | डॉ शरद सिंह

पांव-पांव चादर
          - डॉ शरद सिंह

रोज़ रात को 
जब पड़ती हैं बिस्तर पर
सिलवटें
मेरी करवटों से
जागता है रतजगे का अहसास
नापती हूं अपनी चादर को

कभी चादर बड़ी
और पांव छोटे
तो कभी पांव बड़े
और चादर छोटी
किसी दिहाड़ी मज़दूर की 
आमदनी की तरह
कभी कम तो कभी ज़्यादा
चादर बदलती रहती है अपनी नाप
या फिर मेरे पांव ही
होते रहते हैं 
कभी छोटे तो कभी बड़े

नींद की लम्बाई
करती है तय
पांव और चादर की नाप को
और
नींद वश में है बेचैनी के

बेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
सत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर 
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर

यह खेल 
हर रात का,
यह खेल पांव-पांव चादर का
आया है मेरे हिस्से में
नियति बन कर।
      ------------

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18 June, 2021

रंग और कैनवास | कविता | डॉ शरद सिंह

रंग और कैनवास
        - डॉ शरद सिंह

(1)
खाली कैनवास को
आसान है
रंगों से भरना
मगर
आसान नहीं
रंगों में 
खाली कैनवास को रखना

(2)
रंग 
कैनवास पर
कब्ज़ा कर 
मुस्कुराते, इठलाते
मिलते हैं
संवाद करते
और कैनवास
रह जाता है पढ़ता
ब्रश-स्ट्रोक की लेखनी।

(3)
आख्यान है कैनवास पर
लियोनार्डो द विंची की
'द लास्ट सपर'
तो, विद्रोह की दुंदुभी
पिकासो की  ‘गुएर्निका’ 
क्रांति गढ़ती
काज़िमिर मालेविच की
'ब्लैक स्क्वायर'
जो सीख लो
रंगों को पढ़ना
तो पढ़ सकोगे
कैनवास पर रचा
रक्तरंजित
मानव इतिहास।
    ------------
(इतालवी चित्रकार लिओनार्दो दा विंची द्वारा बनाई गई। यह पेंटिंग यीशु का उनके 12 शिष्यों के बीच अंतिम भोजन की घटना को दर्शाता है।
पिकासो ने अपनी पेंटिंग ‘गुएर्निका’  में दूसरे विश्वयुद्ध की भयावहता को दर्शाया जिसके कारण उन्हें देश निकाला दे दिया गया था।
काज़िमिर सेवरिनोविच मालेविच - एक उत्कृष्ट रूसी कलाकार जिसने अपनी पेंटिंग 'ब्लैक स्क्वायर' के जरिए "एक सफेद पृष्ठभूमि पर काले वर्चस्व वाले वर्ग" को ललकारने क्रांतिकारी विचार व्यक्त किया।)

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17 June, 2021

एक पल | कविता | डॉ शरद सिंह


एक पल
      - डॉ शरद सिंह

कांच के 
रंग-बिरंगे कंचे-से दिन को
जब वक़्त की उंगली
गिरा देती है जब गड्ढे में
एक सधी हुई हल्की-सी हरक़त से
समझ में नहीं आता
जीत हुई कि हार
मन बच्चों-सा झगड़ता है
अपने-आप से

सहसा जाग उठते हैं
बचपन के दिन
बड़ों से घिरे,
सुरक्षित,
ज़िद्दी,
निश्चिंत
और 
बंदिशों का घेरा तोड़ कर 
निकल भागने लालायित
जल्दी-जल्दी बड़े हो जाने को आतुर
अपने फ़ैसले ख़ुद लेने के इच्छुक

एक दिन
घेरा टूटते ही
बड़े होते ही
जब रह जाते हैं
निपट अकेले
तब
याद आता है बचपन
याद आते हैं कंचे
याद आते हैं बड़े
याद आती हैं बंदिशें
तब खुद को पाते हैं 
वर्तमान के साथ अतीत के गड्ढे में
जीत और हार
सब बेमानी हो जाते हैं उस पल

अकेलापन
बदल देता है
जीवन का अर्थ
एक पल में
हमेशा के लिए।
     ----------
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15 June, 2021

मेरी याद | कविता | डॉ शरद सिंह

मेरी याद
      - डॉ शरद सिंह
तुम मुझे कैसे याद करोगे
पता नहीं
शायद रात से जूझते
दूज के चांद की तरह
या, दिन में 
रेतीली आंधी में फंसे
सूरज की तरह,
जुगनू की तरह
या तितली की तरह,
या शेल्फ में सजी
किसी सजावटी क़िताब की तरह
सजा कर रखोगे
पर पढ़ोगे नहीं,
या फिर मेरी याद को
बेच दोगे किसी कबाड़ी को
रद्दी अख़बार की तरह,
क्या मेरी याद
कोई अर्थ रखेगी
मेरे जाने के बाद
तुम्हारे लिए?
तुमने तो भुला दीं
गिलोटिन से कटी गरदनें
और बोल्शेविक क्रांति भी
गुलामी की त्रासदी
और युद्ध का क़हर भी
फिर कैसे करोगे
मुझे याद
मेरी याद तो रहेगी बहुत छोटी सी
दूब की नोंक पे रखी
ओस की बूंद जैसी
क्या छू सकोगे
मन की उंगली से?
        ----------------

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13 June, 2021

सिर्फ़ यही चाह | कविता | डॉ शरद सिंह

सिर्फ़ यही चाह
         - डॉ शरद सिंह

वह दिन आएगा
जब बंद हो जाएंगी
मेरी आंखें
थम जाएंगी
मेरी सांसें
देह हो जाएगी निर्जीव
उस दिन 
न भूख होगी
न प्यास होगी
न होगी 
ऑक्सीजन की दरकार
न प्रेम, न सहयोग
न दवा, न दया

उस दिन
मिल जाए मेरे हिस्से की 
रोटी, पानी, कपड़े, छत 
और ऑक्सीजन
उनमें से किसी को भी
जो हैं एकाकी,
दया पर निर्भर
शरणार्थी शिविरों में,
हाथ में कटोरा लिए
मंदिरों के सामने,
हाथ फैला कर दौड़ते
गाड़ियों के पीछे

वह चाहे
स्त्री हो या पुरुष
बूढ़ा या बच्चा
उसे मिले 
मेरे हिस्से का 
सब कुछ अच्छा-अच्छा
सिर्फ़ यही चाह
हो जाए पूरी
विलोपित हो जाएं  
वे सब
जो इच्छाएं
रह गईं अधूरी।
      -------------

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12 June, 2021

मेरी पांच कविताएं | डॉ शरद सिंह | दैनिक सत्यशोधक राही में प्रकाशित

प्रिय ब्लॉगर साथियों, मुंबई से प्रकाशित होने वाले दैनिक "सत्य शोधक राही" के साहित्यिक परिशिष्ट "साहित्य राही" में आज 12.06.2021 को मेरी पांच कविताएं प्रकाशित की गई हैं जिसके लिए मैं सुश्री अलका अग्रवाल सिंगतिया जी की आभारी हूं 🙏
हार्दिक धन्यवाद दैनिक #सत्य_शोधक_राही

11 June, 2021

ज्वार | कविता | डॉ शरद सिंह

ज्वार
       - डॉ शरद सिंह

पीड़ा, प्रेम
आकुलता, व्याकुलता
भावनाओं का ज्वार ही तो है
जो बहा लाता है
अपने साथ यादों को
जो बहा ले जाता है
अपने साथ वादों को

बस, रह जाती है स्तब्धता
कस कर बंधी हुई मुट्ठी में
गीली रेत की तरह
    --------------

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09 June, 2021

उदासी | कविता | डॉ शरद सिंह

उदासी
     - डॉ शरद सिंह

कहने को एक शब्द है
उदासी

लेकिन इस शब्द के भीतर
है एक आदिम गुफा
जहां पुकारने पर
लौटती हैं
अपनी ही ध्वनियां
अपने कानों तक
एक कंपा देने वाली
अनुगूंज के साथ

इस शब्द के भीतर 
हैं रेल की ऐसी पटरियां
जो अब काम नहीं आतीं
जिन पर नहीं गुज़रती
कोई रेल
बेलिहाज़ वनस्पतियों के बीच दबे
स्लीपर्स 
साथ छोड़ने लगते हैं
पटरियों का
बेजान पटरियां सिसक भी नहीं पातीं

इस शब्द के भीतर 
है अबूझ सन्नाटा
शोर की भीड़ में भी
एक जानी-पहचानी ध्वनि को
ढूंढ पाने में असमर्थ 
सन्नाटा
किसी पागलपन की हद तक
उपजा हुआ सन्नाटा
निगल सकता है 
हरेक शब्द को
सिवा इस शब्द के

इस शब्द के भीतर 
है कांच की तरह टूटे हुए
ख़्वाब की किरचें
जो लहूलुहान कर देती हैं
एहसास के
हाथों को, पैरों को
बल्कि समूचे जिस्म को
लहू रिसता है बूंद-बूंद
आंसू बन कर
और देता है जिस्म के
ज़िन्दा रहने का सबूत

कैसे कहूं कि उदासी क्या है?
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07 June, 2021

गुनाह | कविता | डॉ शरद सिंह

गुनाह
      - डॉ शरद सिंह

खुद को स्थगित रखने से बड़ा
कोई गुनाह नहीं

स्थगित, थमा हुआ पानी
मारने लगता है सड़ांध

स्थगित, थमा हुआ दिन
भर देता है उकताहट से

स्थगित, पड़ी हुई रातें
तरसती हैं सपनों के लिए

स्थगित व्यवहार 
बढ़ा देता है दूरियां

स्थगित संवाद 
घोंट देता है गला ध्वनियों का

स्थगित लेखन
मिटा देता है शब्दों को

स्थगित होना 
यानी
जीते जी मार देना खुद को

जबकि नहीं है यह समय
स्थगित रहने का
क्योंकि 
विश्वास, प्रेम, सुकून
सब कुछ तो है स्थगित।
    ------------

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06 June, 2021

बढ़ा दो दायरा | कविता |डॉ शरद सिंह

बढ़ा दो  दायरा
          - डॉ शरद सिंह

टूट चुके अंतर्मन में
उठता है एक अज़ब द्वंद्व 
देह से परे
रचती हैं स्मृतियां
देह का इंद्रजाल 
जब तक उपयोगी है देह
साथ देती हैं सांसें भी
तभी तो
कभी आने को आतुर
आया भी तो अनमना-सा
भयभीत, डरा-सा
घाव कुरेदने के अलावा
न कोई चर्चा और
न कोई प्रश्न
क्या यही है 
कथित अपनेपन का
स्याह पक्ष
दोष क्या उसे? 
सभी को बना दिया है समय ने 
संवेदनहीन
कोरोना ने फेफड़ों को ही नहीं गलाया
गला दिया है प्रेम को, 
विश्वास को, आत्मीयता को
एक औपचारिक ज़िन्दगी
कब तक जिएगा कोई?
समय कहता है
बढ़ा दो  दायरा 
आत्मीयता का 
और समेट लो उन्हें भी
जैसे पनाह देता है 
यूनाइटेड नेशंस
शरणार्थियों को
जो जीवित तो हैं
पर
नहीं भी
मर चुकी है धड़कन
मगर उनकी सांसें
अभी भी हैं उनकी देह में।
       ----------

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05 June, 2021

बधाई हो पर्यावरण दिवस की | कविता | डॉ शरद सिंह

बधाई हो
        - डॉ शरद सिंह
सबको
बधाई हो पर्यावरण दिवस की !
चलो आज गिनें 
अपनी पर्यावरणीय प्रगति -

जिसे भगीरथ लाया था
धरती पर
अपने अथक प्रयासों से
ताकि धुल जाएं मानवों के पाप
हो जाएं मुक्त मानवीय आत्माएं
वही निर्मल, पावन गंगा
प्रदूषण से 
कर दिया है लबरेज़ हमने उसे
और तो और,
लाशें उगलती है उसकी रेत
कोरोना से मरने वालों की
पछताती होगी आज गंगा भी
कि वह क्यों उतरी 
शिव की जटाओं से
ख़ैर, बधाई हो पर्यावरण दिवस की !

हमने शहर फैलाए
ज़मीनें हड़पी
और
काट दिए वृक्ष
जंगलों से
क्या खूब ! 
कि आज हमारे अपने
तरस-तरस कर मरे हैं 
दो सांस ऑक्सीजन के लिए
फिर भी हम काटेंगे
बेजान हीरों के लिए
जानदार जंगल
तो क्या, बधाई हो पर्यावरण दिवस की !

ग्लेशियर तो बर्फ़ है
पिघलेंगे ही
समुद्र है तो सुनामी आएगी ही
पर्वत हैं तो होगा भूस्खलन भी
इसमें हम मनुष्यों का क्या दोष?
चिंता भी क्यों करें 
मध्यप्रदेश में नहीं आएगी सुनामी राजस्थान में नहीं पिघलेगा ग्लेशियर
केरल में नहीं ढहेंगे पर्वत
ग्लोबल वार्मिंग
जलवायु परिवर्तन 
हमें इनसे क्या?
तो चलो देखें 
गमले में उगे कैक्टस 
और खुश होकर एक दूसरे से कहें-
बधाई हो 
अपनी पर्यावरणीय तरक्की की
और
पर्यावरण दिवस की !
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04 June, 2021

दिल का चेर्नोबिल | कविता | डॉ शरद सिंह

दिल का चेर्नोबिल
         - डॉ शरद सिंह

खुलना लॉकडाउन का
निकलना घरों से
लोगों का
तोड़ देगा चुप्पी
सड़कों, गलियों और चौराहों की।

भय की चादर ओढ़े
धूप रेंगती रहेगी
चेहरे आधे ढंके रहेंगे
आज़ादी होगी और नहीं भी

खुल जाए दुनिया
कितनी भी
नहीं होगा सब कुछ पहले जैसा

एक दुनिया बाहर की
एक दुनिया भीतर की
बाहर की दुनिया
भोपाल गैस त्रासदी के 
दंश को सहलाती आगे बढ़ जाए
मगर सूना घर 
और एकाकी दिल का चेर्नोबिल
शिकार रहेगा उस विकिरण का
जो मिला है 
व्यवस्था की ख़ामियों से 
उसे
जीवन भर तड़पने के लिए।
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03 June, 2021

आदिम बद्दुआएं | कविता | डॉ शरद सिंह

आदिम बद्दुआएं 
              - डॉ शरद सिंह

दीवार के उधड़े हुए प्लस्तर से
झांकती हुई ईटों की तरह
बीते हुए सुखद पल
झांकते हैं
रुलाते हैं
अहसास कराते हैं
उनकी पीड़ाओं का-
जिनके परिजन मारे गए
नात्ज़ी कंसंट्रेशन कैम्प में
जिनके परिजन मारे गए
हीरोशिमा, नागासाकी में
जिनके परिजन मर गए
 देश के बंटवारे में
जिनके परिजन मारे गए
ट्विन टॉवर पर हमले में
जिनके परिजन भूख से मर गए
सूडानी अकाल में
जिनके परिजन डूब गए
अवैध शरणार्थी नावों संग
जिनके परिजन मारे गए
इबोला, एंथ्रेक्स, कोरोना से

उन सभी बचे हुओं की 
पीड़ा, क्रोध और अकेलापन
महसूस करती हूं आज
दिल की गहराईयों से
आत्मा की ऊंचाइयों तक
और निकलती है
हर सांस में
आदिम बद्दुआएं उनके लिए
जिन्होंने रचा मौत का तांडव
महज़ राजनीतिक 
महज आर्थिक
महज अमानवीय  लिप्सा के लिए।
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02 June, 2021

दूर, बहुत दूर | कविता | डॉ शरद सिंह

दूर, बहुत दूर
       - डॉ शरद सिंह

घर की क़ैद से निकल 
दूर, बहुत दूर जाने की इच्छा
बलवती होने लगी है
इन दिनों

अख़बारों की 
कराहती सुर्खियों से दूर
मृतक आंकड़ों की 
चींखों से दूर
सांत्वना के निरंतर
दोहराए जाने वाले
बर्फीले शब्दों से दूर

अस्पताल परिसर की
यादों से दूर
बंद ग्रिल के पीछे
कोविड वार्ड के
ख़ौफ़नाक अहसास से दूर
आधी रात के बाद 
फ़ोन पर आई
उस हृदयाघाती सूचना से दूर

शासन तंत्र की
ख़ामियों से दूर
घोषणाओं की 
झूठी उम्मींदों से दूर
जनता की
आत्मकेन्द्रियता से दूर
प्रजातंत्र के राजा की 
नींदों से दूर

कहीं दूर...
बहुत दूर
जहां सागौन का हो जंगल
संकरी पगडंडी
एक पतली नदी
एक झरना
एक कुण्ड
देवता विहीन
प्राचीन मंदिरों के अवशेष
बंदरों की हूप
और पक्षियों की आवाज़ें

वहां
जहां मैं प्रकृति में रहूं
और प्रकृति मुझमें
न कोई बनावट
न धोखा, न छल
न पंजा, न कमल
ले सकूं खुल कर सांस
प्रदूषण रहित हवा में
न ढूंढना पड़े जीवन
वैक्सीन या दवा में

शायद तब मैं
जी लूंगी
एक बार फिर
जी भर कर।
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01 June, 2021

उसे पढ़ सकूं | कविता | डॉ शरद सिंह

उसे पढ़ सकूं
     - डॉ शरद सिंह
आसमान की ओर
सिर उठा कर
पढ़ती हूं मैं 
काले-सफ़ेद बादलों की आकृतियां
जैसे
कोई नज़ूमी
कॉफी-कप के तलछठ में
पढ़ती है 
क़िस्मत की आकृतियां

दूसरे का सुख-दुख बांचने वाली नज़ूमी
कभी नहीं बांच पाती है
अपनी क़िस्मत
कभी नहीं जी पाती है
मनचाहा सुख
ठीक वैसे ही
जैसे
चौराहे पर 
तोता लिए बैठने वाला ज्योतिषी
लाचार है इन दिनों
लॉकडाउन में बंद है धंधा
भाग्य है मंदा
पिंजरे से निकल कमरे में
फुदकता है परकटा तोता
सोचता है, काश! उड़ पाया होता

नज़ूमी, ज्योतिषी
तोता और मैं
नहीं पढ़ सकते
अपनी क़िस्मत को
क़िस्मत जो खाती जा रही है जंग
ज़्यादा छूने से उसे
ख़तरा है टिटनेस का
फिर भी चाहती हूं छूना
ताकि उसे पढ़ सकूं
भविष्य जान लेने के लिए।
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