27 July, 2021

लड़कियां किसम-किसम की | कविता | डॉ शरद सिंह

लड़कियां किसम-किसम की
               - डॉ शरद सिंह

मूक दर्शक से हम
देखते हैं उन्हें
एक तारीख़
एक दिन
एक समय में -

एक लड़की
रचती है इतिहास
ओलंपिक में

एक लड़की 
जोहती है बाट
सज़ा सुनाए जाने की
अपने बलात्कारी को

एक लड़की
होती है शिकार
बलात्कार का

एक लड़की
करती है सर्फिंग
इंटरनेट पर

एक लड़की
होती है ब्लैकमेल
प्रेम-डूबे वीडियो की
अपलोडिंग पर

एक लड़की
होती है भर्ती 
पुलिस में

एक लड़की
बेचती है देह
रेडलाईट एरिया में

एक लड़की
करती है संघर्ष 
जीने का

एक लड़की
ढूंढती है तरीक़े
आत्महत्या के 

एक लड़की
ख़ुश है अपने
लड़की होने पर

एक लड़की
करती है विलाप-
'अगले जनम मोहे
बिटिया न कीजो'

देखो तो,
इस दुनिया में
कितनी 
किसम-किसम की हैं
लड़कियां,
समाज के सांचे 
और 
ढांचे के अनुरूप

यानी,
लड़कियां 
हमेशा
एक-सी नहीं रह पाती 
हमारे बीच,
एक ही समय में।
     ------------
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26 July, 2021

टूटे पत्ते की तरह | कविता | डॉ शरद सिंह

टूटे पत्ते की तरह
        - डॉ शरद सिंह

भीड़ 
अब नहीं लुभाती मुझे,
तुम्हारे न होने का अहसास
होता है हर जगह
सज़ा है मेरे लिए
सामने दीर्घा में
तुम्हें न देख पाना

जब करता कोई
तुम्हारी चर्चा
"दीदी थीं" के संबोधन सहित,
चींख उठती है
मेरी अंतर्आत्मा
चुभने लगती हैं किरचें
शब्दों की,
उतर जाती है
बलात् ओढ़ी गई 
मुस्कुराहट

मन लगाने को
घर से निकले क़दम
जब लौटते हैं घर
किसी आयोजन के बाद
कांपते हैं हाथ
खोलते हुए ताला 
लड़खड़ाते हैं पैर
सूने घर में
क़दम रखते ही,
कोई नहीं जो 
प्रतीक्षारत हो मेरे लिए
कोई नहीं
जो मेरी बातें सुने
पूछे मुझसे पूरा हाल

घर हो 
या आयोजन
एक शून्य 
रहता है चुभता
निरंतर
हर पल, हर कहीं
ढूंढती रहती हैं  
मेरी आंखें
उस शून्य में भी 
तुम्हें ही

संभव नहीं 
तुम्हारा आना, 
बुला लो मुझे
अपने पास
ख़त्म हो यातना का दौर
वरना
भटकता रहेगा
निरुद्देश्य जीवन
एक टूटे पत्ते की तरह
समय की आंधी में
थपेड़े खाता हुआ।
     ---------------–
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25 July, 2021

चाहती हूं सिर्फ़ एक दिन | कविता | डॉ शरद सिंह

चाहती हूं सिर्फ़ एक दिन
            - डॉ शरद सिंह

मुझे चाहिए 
जीवन का सिर्फ़ एक दिन 
बिना किसी याद  
बिना किसी बात 
बिना किसी तारत्म्य 
बिना किसी तादात्म्य  

मुझे चाहिए 
जीवन का सिर्फ़ एक दिन 
जिसमें फूल हों 
पत्ते हों 
पक्षी हों 
पहाड़ और झरने हों 
लंबी सूनी निचाट सड़कें हों, 
दूर तक देखूं 
तो दिखाई दे सूरज का चढ़ना 
सूरज का उतरना 
और एक सुनहरा दिन 
धूप खिली हुई 
हवा में ठंडक 
एक गुनगुनापन 
न कोई साथ 
न कोई पास
न कोई अपनापन 
न कोई बेगानापन 

न कोई दोस्ती
न कोई दुश्मनी
न कोई आशा
न कोई निराशा
न कोई नींद
न कोई सपना

न कविता, न कहानी
न प्रहसन, न उपन्यास 
न काग़ज़, न लैपटॉप
न पेन, न की-बोर्ड
न शब्द, न अक्षर

कम्प्यूटर की
बाईनरी से दूर
गॉड पार्टिकल से परे
ज़िनोम, सिंड्रोम
कुछ भी नहीं
सूफ़ियाना इश्क़ की
तलाश में
एक एस्टरॉयड की भांति
अनंत अंतरिक्ष में
नक्षत्रों के पास से
गुज़रती हुई

सिर्फ़ एक दिन 
जीना चाहती हूं - 
निर्विरोध, निश्चेष्ट,
 निर्विवाद, नि:शंक 
अपने साथ,
अपने अस्तित्व को 
बूझने के लिए 

और चाहती हूं -
वह दिन हो 
मेरा अंतिम दिन,
शून्य में विलीन हो जाने के लिए 
प्रस्थान बिंदु।
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24 July, 2021

अनर्थ का अर्थ | कविता | डॉ शरद सिंह

अनर्थ का अर्थ
       - डॉ शरद सिंह

रीते हुए
औंधे रखे
घड़े की तरह
शुष्क
रिक्त 
दिन 
बजते हैं
शोक डूबे
अनहद नाद की तरह

व्याकुलता
आदियोगी-सी
करने लगती है तांडव
होने लगता है विध्वंस
दरकने लगती हैं भावनाएं
ढहने लगते हैं
खंडहर 
सपनों के,
बज उठती हैं धड़कने
डमरू की तरह,
विनाश का विन्यास
रचने लगता है
उल्टा स्वस्तिक

देखो तो,
अनर्थ का अर्थ
बांचते
काटना है
शेष जीवन
ऋग्वेद के 
फटे हुए 
पन्ने की तरह।
   -----------
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20 July, 2021

देवशयनी | कविता | डॉ शरद सिंह

देवशयनी
        - डॉ शरद सिंह

सोने जा रहे देवता
चतुर्मास के लिए
गहरी, गाढ़ी नींद में

जब जाग रहे थे
फिर भी
नहीं रोका
मौत का ताण्डव
बच्चे अनाथ हुए
बड़े हुए बेसहारा
बेहाल मानवता
कराहती रही
सिसकती रही
तड़पती रही
एक-एक सांस के लिए
जबकि 
जाग रहे थे देवता
उन दिनों
जब नहीं आई थी
देवशयनी एकादशी

संगमरमरी और ग्रेनाइट के
सुचिक्कन पत्थरों से बने
मंदिरों में 
भजन-पूजन के शोर में डूबे
मालदार भक्तों पर आनंदित
सोते रहे
देवता
जागते हुए भी

चार माह की 
घोषित निंद्रा
के बीच भी
चलती रही है दुनिया
चलती रहेगी दुनिया
क्या फ़र्क़ कि
देवता जागें
या सोएं

सच यही है-
हर आपदा में
मनुष्य ही सम्हालेगा
मनुष्य को
देवता नहीं।
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16 July, 2021

अनर्थ का अर्थ | कविता | डॉ शरद सिंह

अनर्थ का अर्थ
       - डॉ शरद सिंह

रीते हुए
औंधे रखे
घड़े की तरह
शुष्क
रिक्त 
दिन 
बजते हैं
शोक डूबे
अनहद नाद की तरह

व्याकुलता
आदियोगी-सी
करने लगती है तांडव
होने लगता है विध्वंस
दरकने लगती हैं भावनाएं
ढहने लगते हैं
खंडहर 
सपनों के,
बज उठती हैं धड़कने
डमरू की तरह,
विनाश का विन्यास
रचने लगता है
उल्टा स्वस्तिक

देखो तो,
अनर्थ का अर्थ
बांचते
काटना है
शेष जीवन
ऋग्वेद के 
फटे हुए 
पन्ने की तरह।
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15 July, 2021

छूट गए पीछे | कविता | डॉ शरद सिंह

छूट गए पीछे
       - डॉ शरद सिंह

दिन जब चवन्नी थे
मीठे थे
दिन जब अठन्नी थे
नमकीन थे
दिन जब रुपैया हुए
खटमिट्ठे हुए
दिन अब रुपये को
कुचलते हुए 
हो चले हैं कड़वे

धन्नू का टपरा
चाय मीठी थी
कैंटीन की चाय
चाय फ़ीकी थी
कैफे कॉर्नर
चाय थी ही नहीं
होम डिलेवरी में
नहीं है-
चाय, न कॉफ़ी
सिर्फ़ कोल्डड्रिंक

प्रेमपत्र में दर्ज़ प्रेम
भावुक था
किताबों में दबा प्रेमपत्र
संवेदना से तर था
मोबाईल टेक्स्ट पर चला प्रेम
उतावला रहा
अब
मैसेंजर पर चला प्रेम
हो चला है आभासीय
पैंचअप और ब्रेकअप के बीच।

सच,
हम आगे बढ़ गए
पर 
छूट गए पीछे
मिठास, उष्मा और प्रेम।
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14 July, 2021

ग़ज़ल | रूह तन्हा है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल
रूह तन्हा है ...
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रूह तन्हा है, ज़ख़्म गहरा है
ग़म सरे-शाम आ के ठहरा है

याद आती हैं उड़ाने लेकिन
आसमानों पे आज पहरा है

खो गया चैन, सुकूं भी ग़ायब
कल समंदर था, आज सहरा है

और सुनवाई अब नहीं होगी
टूटे दिल का निज़ाम बहरा है

अब दिखेगा न मेरी आंखों को
फिर भी आंखों में एक चहरा है
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11 July, 2021

दुआ है | कविता | डॉ शरद सिंह

दुआ है...
       - डॉ शरद सिंह

ज़िंदगी 
बन जाए जब एक बोझ
सांसे हो जाती हैं और चौकन्नी
चिपट जाती हैं सीने से
नहीं चाहती थमना

धड़कने
हो जाती हैं सजग
किसी भी क़ीमत पर
न रुकने को तैयार

जब देह ही
निभाने लगे शत्रुता
भागने लगे
निरुद्देश्य जीवन के पीछे

उस पर
कोई गिनाता रहे
ग़लतियां,
कोई फैलाता रहे
भ्रमजाल
सुरक्षित भविष्य के 
सपनों के साथ
मैचमेकर बन कर
गोया 
एक का एकाकीपन
मनोरंजन हो दूसरे के लिए

अपनत्व की शून्यता
झूठी मुस्कुराहटों के तले
दबी रहेगी कब तक
बस दुआ है कि
पत्थर हो जाए दिल
या
बंद कर दे धड़कना
ठीक इसी समय
      --------------
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10 July, 2021

स्मृतियां | कविता | डॉ शरद सिंह

स्मृतियां  
       - डॉ शरद सिंह

धड़कती हुई
दीवारें कमरे की
दोहराती रहती हैं
अच्छी-बुरी,
खट्टी-मीठी
ख़ारी-कड़वी
स्मृतियां

हम जीते हैं स्मृतियों में
स्मृतियां जीती हैं हमको
और दीवारें
पान के पत्तों की तरह
उलटती-पलटती रहती हैं
स्मृतियों को
कि वे 
रह सकें ताज़ा

है ज़रूरी दीवार पर
एक अदद खिड़की 
ताकि 
भरपूर सांस ले सके
स्मृतियों से भरा कमरा
एक निजी स्मारक की तरह।
            ---------
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09 July, 2021

अहसास | कविता | डॉ शरद सिंह

अहसास
     - डॉ शरद सिंह

रात 
किसी ठंडे 
अहसास की तरह
दौड़ती है रगों में
थके-थके क़दमों से
हांफती हुई

दिन भर के ख़ुलासे
चेहरों में ढल कर 
आने लगते हैं सामने
किसी चलचित्र की तरह

शब्दों के गुबार
छाने लगते हैं 
एक धुंध की तरह
बोलने वालों के इरादे
छिप जाते हैं
उस धुंध के पीछे

फिर भी
सब कुछ है साफ़ 
प्रस्ताव, प्रहसन, 
झूठी प्रशंसा
संदिग्ध इरादे
इसमें 
कोई जगह नहीं
दर्द या आंसुओं की
नहीं करना साझा
यह किसी को

ज़िंदगी
रात की मानिन्द 
सरक ही जाएगी
पर
सुबह कब होगी
पता नहीं।
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07 July, 2021

तो फिर... | कविता | डॉ शरद सिंह

तो फिर...
     - डॉ शरदसिंह

जो भी है दिखता 
वह सब लौकिक
जो नहीं दिखता
वह अलौकिक

प्रेम में
लौकिक है देह
और प्रेम अलौकिक 

शत्रुता में
लौकिक है देह
और शत्रुता अलौकिक 

मृत्यु में 
लौकिक है देह
और मृत्यु अलौकिक

किताब में छपे अक्षर
लौकिक हैं
भावनाएं अलौकिक

वे सब हैं आज 
अलौकिक
जो नहीं दिखते
शामिल हैं उनमें
तमाम देवता भी

जो नहीं इस धरती पर
नहीं दिखते
जो गए इस धरती से
वे कभी लौट कर नहीं आते
तो फिर
अलौकिक देवता
कैसे आएंगे भला?
अपने-अपने दुख
हम सब को ढोना है
देवता को नहीं 
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05 July, 2021

सज़ा | कविता | डॉ शरद सिंह

सज़ा
      - डॉ शरद सिंह

कब मिलेगी मुक्ति
लोहे की ठंडी सलाख़-सी
जागती रातों से
पथरीले फ़र्श-सा 
हो चला बिस्तर
चुभता है 
पीठ की हड्डियों में
सलवटों से सिकुड़ी चादर
छीलती है देह को
किसी किसनी की तरह

कब पीछा छोड़ेगा
यह अहसास
कि सलीब ढो रही हूं अपना
या तराश रही हूं
अपनी क़ब्र का पत्थर
या जोड़ रही हूं लकड़ियां
अपनी चिता के लिए
जबकि मालूम है-
नगरपालिका का शववाहन
ले जाएगा
एक दिन
एक लावारिस लाश की तरह
फिर भी एक ख़्वाब
उतरता है
जागती आंखों में
कि एक सुबह 
कोई चूमेगा मेरा माथा
और चमकदार रोशनी के साथ
मुंद जाएंगी मेरी आंखें
हमेशा के लिए

सांसों की खड़ियां लेकर 
ज़िंदगी की दीवार पर 
एक-एक दिन की
लकीरे खींचते हुए 
सोचती हूं
एक क़ैदी की तरह 
आख़िर
कब ख़त्म होगी 
जीने की ये सज़ा?
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04 July, 2021

रविवारीय-उत्सव | कविता | डॉ शरद सिंह

रविवारीय-उत्सव
             - डॉ शरद सिंह

पुराने अख़बार के
आख़िरी पन्ने के
निपट कोने में
छपे समाचार की भांति
रविवार का एक दिन और 
तहा कर रख दिया जाएगा
सिरे से भुलाकर
इस डिज़िटल युग में

परन्तु मुझे नहीं भूलते
वे रविवार
जो कभी थे उत्सव की तरह
ब्लैक एंड व्हाईट टीवी में
दूरदर्शन पर प्रदर्शित
दोपहर की
फीचर फ़िल्म के साथ,
हम पॉपकॉर्न नहीं
रखते थे आलू चिप्स
ताज़ा तल कर
और याद करते
हर बार
वे एक-दो फीचर फ़िल्म्स
जो देखी थीं
पड़ोसी की बड़ी टीवी में
उनकी सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स की
धमक के साथ

वे रविवार 
आज भी लगते हैं उत्सव-से
ओटीटी प्लेटफार्म की
उम्दा टेक्नोलॉजी के बावज़ूद
प्यारा-सा वह बुद्धू बक्सा
आज भी है गुदगुदाता
जब होते थे
परिवार के सारे सदस्य
कुछ घंटों के लिए ही सही
एक साथ
एक उत्सव की तरह

वैश्विक बाज़ारवाद में
जन्मे युवा
नहीं जान पाएंगे
इस उत्सव के बारे में
क्योंकि बाज़ार 
सहेजता है 
उन्हीं उत्सवों को
जो हों बिकाऊ
और उठा सकें
तेजी से
सेंसेक्स की लकीर को।
     -------------
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03 July, 2021

वो अब नहीं | कविता | डॉ शरद सिंह

आज पूरे दो माह हो गए वर्षा दीदी तुमको मुझसे हमेशा के लिए दूर गए... जहां भी रहो, तुम्हें सारी खुशियां मिलें...वो भी जो इस जीवन में नहीं मिलीं... हर पल तुम्हें याद करती हूं... कठिन है तुम्हारे बिना जीना...
-------------------
वो अब नहीं
        - डॉ शरद सिंह

जिसको समझ थी 
मेरे दुख-दर्द की
वो अब नहीं

जिसको क़द्र थी
मेरी भावनाओं की
वो अब नहीं

जिसके 
बह निकलते थे आंसू
मुझे ठोकर लगने पर
वो अब नहीं

जिसके दिल में था
मुझे दुनिया से
बचा लेने का जज़्बा
वो अब नहीं

जिसका प्यार
मेरी ताकत थी
हौसला थी
हिम्मत थी
वो अब नहीं

कोई नहीं
जो उसकी तरह
समझ सके मुझे

मैं थी उसकी "बेटू"
और वो मेरी "दीदू"

माफ़ करना "दीदू"
तुम्हारे बिना 
आज भी ज़िन्दा हूं

तुम्हें 
न बचा पाने पर
ख़ुद से शर्मिंदा हूं
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02 July, 2021

सूखे हुए फूल के साथ | कविता | डॉ शरद सिंह

सूखे हुए फूल के साथ
    - डॉ शरद सिंह

पुस्तक के पीले पन्नों की
क़ब्र में सोए हुए 
फूल को 
बहा कर नदी में
कर दूंगी
तर्पण,
कर दूंगी मुक्त
अपने अतीत के
सुनहरे सपनों को

सोचा तो कई बार
कर न सकी

खोलते ही पुस्तक -
वह चपटाया फूल
आज भी
खिल उठता है
लगता है महकने
करने लगता है बातें
चूम लेता है उंगलियां
घबरा कर खींच लेती हूं हाथ
छूट जाता है फूल
जहां के तहां

टूटते ही दिवास्वप्न
लौटती हूं वर्तमान में

गोया
थार के मरुथल में
रेत के टिब्बे
लेने लगते हैं करवट
चलने लगती हैं 
तपती हवाएं
झुलसने लगती है देह
बारिश में भी
धधकती हैं लपटें

कितना मुश्क़िल है
अतीत से बचाना
वर्तमान को
और तय करना
भविष्य की 
अज्ञात यात्रा
किसी सूखे हुए
फूल के साथ।
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01 July, 2021

नहीं लौट पाता प्रेम | कविता | डॉ शरद सिंह

नहीं लौट पाता प्रेम
            - डॉ शरद सिंह

चाहे धूमकेतु हो 
या कोई नक्षत्र
पृथ्वी के पास से 
गुज़र जाता है
बिना टकराए
बिना छुए पृथ्वी को
छोड़ जाता है अनुमान
कि हज़ारों साल बाद
लौटेगा वह
पृथ्वी के पास
एक बार फिर

एक नक्षत्र
गुज़रा था
मेरे भी क़रीब से
मेरी परिधि से दूर
पर
बहुत पास से मेरे
उन दिनों 
उसके होने का अहसास
उठाता रहा
भावनाओं के ज्वार-भाटे
समय-चक्र के साथ
दूर, दूर, दूर 
दूर होता चला गया वह

हज़ारों साल में सही
नक्षत्र लौटता है
पृथ्वी के लिए
किन्तु
नहीं लौट पाता प्रेम
प्रेम के लिए
सशरीर, साक्षात
एक बार फिर
साथ देने को

प्रतीक्षारत
पृथ्वी
प्रतीक्षारत
मैं
पृथ्वी रहेगी
और हज़ारों साल अभी
पर मैं नहीं
लौटेगा नक्षत्र
पर 
वह नहीं।
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