31 January, 2021

चार क़िताबें पढ़ कर | ग़ज़ल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की


Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

चार क़िताबें पढ़ कर


- डाॅ सुश्री शरद सिंह


चार क़िताबें पढ़ कर, दुनिया को पढ़ पाना मुश्क़िल है।

हर  अनजाने को  आगे बढ़,  गले लगाना मुश्क़िल है।


जब  से  उसने  मुंह  फेरा है  और  हुआ बेगाना-सा

तब से उसके  दर से हो कर आना-जाना मुश्क़िल है।


सबको  रुतबे से  मतलब है,  मतलब है ‘पोजीशन’ से

ऐसे लोगों से,  या रब्बा!  साथ  निभाना  मुश्क़िल है।


शाम ढली  तो   मेरी आंखों  से  आंसू की धार बही

अच्छा  है,  कोई  न पूछे, वज़ह  बताना  मुश्क़िल है।


रात-रात भर तारे गिनना,   बीते दिन की  बात हुई

अब तो  सीलिंग के   पंखे  से  आगे जाना मुश्क़िल है।


मन की चिड़िया पंख सिकोड़े बैठी है जिस कोटर में

‘शरद’ उसे अब तिनका-तिनका और सजाना मुश्क़िल है।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह ‘पतझड़ में भीग रही लड़की’ से)


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30 January, 2021

मृतक कथाएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

मृतक कथाएं

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


घिसी हथेली की रेखाएं

जाने कहां-कहां ले जाएं।


घर के बाहर

सिर के ऊपर

सूरज बिना तपन

अंगुल-अंगुल

उभर गया अब

मन का सूनापन


अपनेपन का दाग़ दिखा कर

रिश्ते किरच हो जाएं।



कल की बातें

सपन दिखाते

जाने गईं किधर

पोर-पोर में

रचे-बसे हैं

सूखे फूल इतर


नेह डायरी के पृष्ठों पर

लिखी हुई हैं मृतक कथाएं।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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29 January, 2021

चैन है प्रवासी | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh


नवगीत

चैन है प्रवासी

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


भीड़ में उदासी

ज़िन्दगी

बूंद-बूंद प्यासी।


धुंआ-धुंआ

उजियारा

कलछौंही लालटेन

उंगली की 

पोर से

छूट गई पेन


नेह भी कपासी

ज़िन्दगी

हो गई धुंआ सी।


पोर-पोर

पैनापन

यादों के जाल में

तैर गया

चेहरा

नयन ताल में


देह भी रुंआसी

ज़िन्दगी

है गहन व्यथा सी।


द्वार-द्वार

टूट गए

शुभलाभी सातिए

भीत की

दीवार ने

असगुन रचा लिए


चैन है प्रवासी

ज़िन्दगी

रह गई ज़रा-सी।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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27 January, 2021

हिरणबागों मे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

हिरणबागों में

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


गंध कस्तूरी महकती

हिरणबागों में

नेह धागों में।


भीत के

पीछे उगी

हरियल पहाड़ी पर

हर दफ़ा

उतरा, चढ़ा मन

चाह अपना कर


धूप की बाती चमकती

दिन चराग़ों में

नेह धागों में।


द्वार पर

बैठे हुए

कुछ गुनगुनाते स्वर

सुख दुखों के

फूल से

महके हुए आखर


बांसुरी ज्यों खिलखिलाती

नम परागों में

नेह धागों में।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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25 January, 2021

राष्ट्रीय मतदान दिवस | शुभकामनाएं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr Sharad Singh

25 जनवरी राष्ट्रीय मतदान दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !!!

 प्रिय ब्लॉग साथियों, मेरी माता जी डॉ. विद्यावती "मालविका" का राष्ट्रीय मतदान दिवस के अवसर पर "पत्रिका" समाचार पत्र में वक्तव्य  प्रकाशित हुआ है। ये उनके जीवन के अनुभव हैं जो हमें हमेशा सही राह दिखाते हैं ।

"मतदान लोकतांत्रिक देश के नागरिकों का सबसे बड़ा अधिकार है। मैं सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव से निरंतर मतदान करती आ रही हूं। मतदान कर के हमेशा मैंने महसूस किया है कि जैसे राष्ट्र के विकास और स्वरूप के निर्धारण में मेरा भी महत्वपूर्ण योगदान है।   अब तो "नोटा" के जरिए मतदान को और भी लोकतांत्रिक बना दिया गया है। सभी को विशेष कर युवाओं को अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए।"

- डॉ. विद्यावती "मालविका"

वरिष्ठ साहित्यकार एवं सेवानिवृत्त व्याख्याता, सागर, मध्यप्रदेश

Thank you Patrika 

डॉ विद्यावती 'मालविका' का वक्तव्य 'पत्रिका' समाचारपत्र, 25.01.2021


और इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं मेरे दोहे...

मतदाता जागरूकता के दोहे
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

सब कामों को छोड़कर करना है मतदान। 
रखना है हमको सदा लोकतंत्र का मान।।

जाति धर्म सब भूलकर निर्णय करे समाज। 
होगा खूब विकास फिर होंगे सारे काज।।

विज्ञापन या व्हाट्सएप्प, ये क्या देंगे राय। 
खुद को जो अच्छा लगे, वहीं चुना बस जाय।।

शोर शराबे से कभी, मत होना कंफ्यूज़। 
जो लालच या धौंस दे, करना उसे रिफ्यूज़।।

इक-इक मत है कीमती, यह मत जाना भूल ।
वोटिंग पावर आज है, सबसे बड़ा उसूल।।

शासन मन का चाहिए, तो लो कदम उठाए ।
चिड़िया जो चुग जाएगी, क्या होगा पछताए ।।

'शरद' करे विनती यही, करिएगा मतदान। 
दुनिया भी देखे ज़रा, इस जनमत की शान।।
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# Voter_Awareness #Dohe

गणतंत्र हमारा | ग़ज़ल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

Happy Republic Day - Dr (Miss) Sharad Singh

गणतंत्र हमारा

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह


आजादी का भान कराता है गणतंत्र हमारा।

दुनिया भर में मान बढ़ाता है गणतंत्र हमारा।


खुल कर बोलें, खुल कर लिक्खें, खुल कर जी लें

सबको ये अधिकार दिलाता है गणतंत्र हमारा।


संविधान  के  द्वारा  जिसका  सृजन हुआ

प्रजातंत्र की साख बचाता है गणतंत्र हमारा।


धर्म, जाति से ऊपर उठ कर चिंतन का

इक सुंदर संसार बनाता है गणतंत्र हमारा।


पूरब,  पश्चिम,   उत्तर,   दक्षिण - दुनिया  में

"शरद" सभी को सदा लुभाता है गणतंत्र हमारा।


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23 January, 2021

दर्द का पड़ाव | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

दर्द का पड़ाव

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


पोर-पोर

दर्द का पड़ाव

कभी धूप कभी छांव।


तथाकथित अपनों के

चूर हुए वादे

स्याह कर्म वालों के

वस्त्र रहे सादे


ओर छोर

जन्मते तनाव

कभी पेंच कभी दांव।



टूटते घरौंदों में

थकन की कराहें

रोज़गार बिना सभी

बिखर गई चाहें


कोर-कोर

आंसू के घाव

कभी डूब कभी नाव।



भूख सने होंठों पर

रोटी के गाने

सबके सब दुखी यहां

सड़क, गली, थाने


जोर-शोर

ओढ़ते छलाव

कभी मोल कभी भाव।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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22 January, 2021

मन में घाव उकेरे | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

मन में घाव उकेरे
       - डाॅ सुश्री शरद सिंह

जब से 
दुख ने नाता जोड़ा
सपने चूर हुए
अपनों से
लगने वालों के
मुखड़े दूर हुए।

नागफनी-सा
दर्द उभर कर
मन में घाव उकेरे
भरी दुपहरी
घिर-घिर आए
पलकों तले अंधेरे

जब से
सबने रस्ता छोड़ा
घर नासूर हुए
सूने से 
आंगन में ठंडे
दिन तंदूर हुए।

टुकड़ा-टुकड़ा 
होता जीवन
हाथों फिसला जाए
पोर-पोर पर
दुखती चाहत
गुमसुम गीत सुनाए

जब से 
सूरज हुआ निगोड़ा
रंग बेनूर हुए
छाया से
लगते ये रिश्ते
नामंज़ूर हुए।
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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)
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21 January, 2021

राह का गोपन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

राह को गोपन

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


देह का बोझा

उठाए

अब नहीं उठता।



पेट में है

भूख की चटकन

सीवनों-सी कस गई बांहें

लूटता है

राह को गोपन


एक अंगारा

बुझाए

अब नहीं बुझता।



झोपड़ी के

द्वार में सूखा,

खेत का महका हुआ यौवन

खा गया है

मौसमी धोखा


बिम्ब हरियाला 

उगाए

अब नहीं उगता।



पंछियों के

पर हुए टुकड़े

अब हवाओं से उलझता कौन

हर किसी के

व्यक्तिगत दुखड़े


चैन परदेसी

रुकाए

अब नहीं रुकता।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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19 January, 2021

वर्जनाएं धूप की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

 

Dr (Miss) Sharad Singh 

नवगीत

वर्जनाएं धूप की

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


वर्जनाएं 

धूप की

उंगली उठाए दिन

तुम्हारे बिन।


रेत पर 

छूटे हुए पद-चिन्ह

लहरों से परे

डोंगियां भी

मौन

होंठों पर धरे


हाशियों में 

नाम लिख

सुधियां जगाए दिन

तुम्हारे बिन।



नेह के 

चटके हुए संबंध

टूटा सिलसिला

झील का ये

दर्द

पर्वत से मिला

खाइयों में

अब यही

दुख गुनगुनाए दिन

तुम्हारे बिन।

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)


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17 January, 2021

धूल की बस्ती | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

 धूल की बस्ती

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


बीत जाने के लिए

दिन चले आए

सुबह से रीत जाने के लिए।


धूल की बस्ती

घने पांव उगाए

एक वन

ताश के पत्ते

गिनो हर ओर से

बावन


गिन नहीं पाए

सभी से जीत जाने के लिए।


देह कांखों में

छुपाए नाम की

गठरी

रात जैसे हो गई 

है दर्द की

चारी


छिन गए साए

कि आए मीत जाने के लिए।

      

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)

16 January, 2021

बंधु, मेरे गांव में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | नवगीत | संग्रह - आंसू बूंद चुए

Dr (Miss) Sharad Singh

नवगीत

बंधु, मेरे गांव में

- डाॅ सुश्री शरद सिंह


शब्द

    परतीले हुए हैं

              जब कभी

दूर होते ही गए अपने सभी।


सूर्य फिसला 

उस पहाड़ी के शिखर से

जो नदी का भार भी

न ढो सका

बंधु, मेरे गांव में

कोई अभी तक

चैन से न हंस सका, 

न रो सका


दर्द 

    पथरीले हुए हैं

              जब कभी

टीस बोते ही गए अपने सभी।



रेत पिघली

नम हथेली की जलन से

और सीने पर उतरती

ही रही

बूंद के भ्रमजाल में

बांहे पसारे

नेह हिरनी रात भर 

सोई नहीं


रंग 

   सपनींले हुए हैं

              जब कभी

देह ढोते ही गए अपने सभी।

       

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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)