31 March, 2021

काश, पूछता कोई मुझसे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल


काश, पूछता कोई मुझसे


- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


काश, पूछता कोई मुझसे, सुख-दुख में हूं, कैसी हूं?

जैसे पहले खुश रहती थी, क्या मैं अब भी  वैसी हूं?


भीड़ भरी दुनिया में  मेरा  एकाकीपन  मुझे सम्हाले

कोलाहल की सरिता बहती,  जिसमें मैं ख़ामोशी हूं।


मेरी चादर,  मेरे बिस्तर,  मेरे सपनों में  सिलवट है

लम्बी काली रातों में ज्यों, मैं इक नींद ज़रा-सी हूं।


अगर सीखना है तो सीखे, कोई उससे नज़र फेरना

पहले तो कहता था मुझसे, अच्छी लगती हूं जैसी हूं।


जो दावा करता था पहले ‘शरद’ हृदय को पढ़लेने का

आज वही कहता है मुझसे, शतप्रतिशत मैं ही दोषी हूं।


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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28 March, 2021

होली के छंद | घनाक्षरी | डॉ (सुश्री) शरद-सिंह

[1]
कौन अपना है कौन, कौन है पराया आज 
रंग की   तरंग में  सभी  पे   रंग  डारिए
होली की हुलाल में, उमंग की उछाल में 
दुखी जन प्राणियों को शोक से उबारिए 
कोरोना से बचने को, दूरी भी जरूरी है 
सम्हल के होली, खूब खेलने विचारिए 
भूल भेदभाव, छल, माथे पे तिलक मल 
एकता  के  आईने  में  सबको उतारिए

[2]
धूप फागुनी जो हुई, वन में पलाश खिले 
नदियों के    तट  पर   सरपत  खूब हिले 
भिन्न-भिन्न जात धर्म, भिन्न समुदाय वर्ग
घोर आत्मीयता के  साथ  आज हैं मिले 
लाल हैं गुलाल से सभी के गाल-भाल आज 
हो रहे साकार सुख सपनों  के  क़ाफ़िले 
मन *'घनानंद' और तन ये 'सुजान' हुआ 
प्रेम का कवित्त बना भूल के तमाम गिले

[3]
ऐसे रास रंग में,  उमंग लिए आओ पिया 
**'केशव' मानिंद रस, छंद बन जाओ ज़रा 
मैं बनूं तुम्हारी प्रेयसी 'प्रवीण' नाच उठूं
मेरे  सुर - ताल  से  धनक   उठे  ये धरा 
आज है इजाजत समाज से रिवाज़ से भी 
हम दोहराएं  इतिहास  से  यह सुनेहरा 
'शरद' के  राग  में है  नूतन  विहाग सुनो 
जैसे सपनों में  दिखे  इंद्रधनुषी रंग भरा

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*घनानंद (1673- 17 60) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि माने जाते हैं। घनानंद द्वारा लिखित कई ग्रन्थ है। सबसे पहले भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने ’सुजान शतक’ नामक पुस्तक में घनानंद कविताओं का संकलन किया। इसके अतिरिक्त ’सुजानहित’तथा ’सुजान सागर’ नामक संकलन भी प्रकाश में आया। यह माना जाता है कि "सुजान" घनानंद की प्रेयसी थीं।

**रीतिकालीन कवि केशव (जन्म 1555 ई.) ओरछा के महाराज इन्द्रजीत सिंह के समय के प्रमुख कवि थे।  इन्होंने ब्रज भाषा में रचना की। यद्यपि ये संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे तथापि उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है जिसमें बुन्देली, अवधी और अरबी-फारसी शब्दों का समावेश है। कहा जाता है कि ओरछा की राजनर्तकी रायप्रवीण से इनके प्रेम संबंध थे। रायप्रवीण स्वयं एक उच्चकोटि की कवयित्री थीं।

06 March, 2021

औरतें | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह

औरतें
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

संस्कृति  की  रक्षा   करें औरतें।
अंधेरा   दिलों  का   हरें  औरतें।

ज़मीं पर सफलता की पर्याय जो
हवा   में    उड़ाने    भरें   औरतें।

मुसीबत  कोई  भी  दिखे सामने
कभी  भी  न  उससे  डरें औरतें।

वे घर और दफ्तर दोनों जगह
साबित  स्वयं  को  करें औरतें।

प्रसवपीर हंस कर हैं सहतीं सदा
जीवन  की  कड़ियां  धरें  औरतें।

जो अंगार बनतीं, खुश हों अगर
तो  फूलों  के  जैसे   झरें औरतें।

मौसम 'शरद' का या गर्मी का हो
मेहनत    हमेशा    करें   औरतें।
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02 March, 2021

मोए पढ़न खों जाने हैं | बुंदेली बालगीत | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh 

प्रिय ब्लाॅग साथियों,

बुंदेली बोली का विस्तार वर्तमान मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में है। इनमें मध्यप्रदेश के प्रमुख ज़िले हैं- पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़ तथा दतिया। नरसिंहपुर, होशंगाबाद, सिवनी, भोपाल आदि में बुंदेली का मिश्रित रूप पाया जाता है। उत्तर प्रदेश में झांसी, जालौन, ललितपुर, हमीरपुर तथा चरखारी में बुंदेली अपने शुद्ध रूप में बोली जाती है जबकि मैनपुरी, इटावा, बांदा में मिश्रित बुंदेली बोली जाती है।

बुंदेली बोली में भी विभिन्न बोलियों का स्वरूप मिलता है जिन्हें बुंदेली की उपबोलियां कहा जा सकता है। ये उपबोलियां हैं- मुख्य बुंदेली, पंवारी, लुधयांती अथवा राठौरी तथा खटोला। दतिया तथा ग्वालियर के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों के पंवार राजपूतों का वर्चस्व रहा। अतः इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली बुंदेली को पंवारी बुंदेली कहा जाता है। इनमें चम्बल तट की बोलियों का भी प्रभाव देखने को मिलता है। हमीरपुर, राठ, चरखारी, महोबा और जालौन में लोधी राजपूतों का प्रभाव रहा अतः इन क्षेत्रों की बुंदेली लुधयांती या राठौरी के नाम से प्रचलित है। यहां बनाफरी भी बोली जाती है। पन्ना और दमोह में खटोला बुंदेली बोली जाती है। जबकि सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, झांसी तथा हमीरपुर में मुख्य बुंदेली बोली जाती है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने सन् 1931 ईस्वी में जनगणना के आधार पर बुंदेली का वर्गीकरण करते हुए मानक बुंदेली (मुख्य बुंदेली), पंवारी, लुधयांती (राठौरी), खटोला तथा मिश्रित बुंदेली (बालाघाट, छिंदवाड़ा, नागपुर क्षेत्रा में) का उल्लेख किया था।  वर्तमान में बुंदेली का जो स्वरूप मिलता है वह अपने प्राचीन रूप से उतना ही भिन्न है जितना कि संवैधानिक भाषाओं के प्राचीन तथा अर्वाचीन व्यावहारिक रूप में अन्तर आ चुका है। 


चूंकि मैं भी बुंदेलखंड की हूं... बुंदेलखंड मेरी जन्मभूमि है इसलिए हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी भाषाओं के साथ-साथ मुझे बुंदेली में भी सृजन करना बहुत अच्छा लगता है ....तो आज अपना एक ताज़ा बुंदेली बालगीत आप सबसे साझा कर रही हूं -

बुंदेली बालगीत


मोए पढ़न खों जाने हैं

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह



अम्मा ! मोए मम्मा घांई,

खूब बड़ो  बन जाने है

मोए पढ़न खों जाने हैं ......


बस्ता ले  देओ, बुश्शर्ट दिला देओ

मास्साब   से   मोए     मिला देओ

स्कूले    में    नाम   लिखा    देओ

चल  के  भर्ती  तो   करवा  देओ

मोए पढ़न खों जाने हैं ......


अम्मा ! मोरो  टिफिन   लगा देओ

अच्छो सो कछु   और खिला देओ

मोरी    मुंइया   सोई   धुला   देओ

बाल ऊंछ देओ, मोए  सजा  देओ

मोए पढ़न खों जाने हैं ......


अम्मा ! छुटकी को समझा देओ

ऊको   सोई  स्लेट  दिला   देओ

ऊको  मोरे  संग   भिजवा  देओ

दोई जने  खों  ड्रेस   सिला देओ

मोए पढ़न खों जाने हैं ......

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