प्रिय मित्रों, मेरी कविता "लाखा बंजारा झील" वेब मैगजीन "युवा प्रवर्तक" में आज प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं भाई देवेंद्र सोनी जी की हार्दिक आभारी हूं 🙏
यह कविता आपके शहर की भी हो सकती है... इसे पढ़ें और महसूस करें...
इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं..
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=570862761342376&id=108584627570194
आप सभी की सुविधा के लिए टेक्स्ट भी दे रही हूं.....
कविता
लाखा बंजारा झील
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
सूखी झील के
रेगिस्तान में
देखा है
इन दिनों मैंने
शहर के गर्व नमी को
मछली-सा तड़पते हुए
झील
जो बनवाई
एक बंजारे ने,
झील
जिसे रखने को जीवित
आत्मबलिदान किया
एक जोड़े ने
झील
जो हर बजट में
लिटाई जाती रही
कथित उद्धार के
ताबूत में
हर साल
चलते रहे फावड़े
उठती रहीं कुदालियां
श्रमदान की तस्वीरों से
सजते रहे अख़बार
गोया झील एक मंच थी
राजनीतिक नाट्यदल की,
बड़बोले समाजसेवियों की,
प्रशासन के झोलाछाप
उच्चाधिकारियों की।
जबकि
रिसता रहा
झील का लहू
गिरता रहा
ऑक्सीजन स्तर
मरते रहे जलजन्तु,
हम ख़ामोशी से
पढ़ते रहे खबरें
पल पल मरती झील की
झील
आज है
उद्धार के
ऑपरेशन टेबल पर
दरवाज़े पर जलती
लालबत्ती
कब होगी हरी?
पता नहीं !
ऑपरेशन
कब होगा पूरा
पता नहीं !
हां,
मेरे शहर की झील
टंगी है इनदिनों
प्रशासनिक सूली पर
बाट जोहती
एक बार फिर
तरंगायित होने की
जल से, जीवन से।
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समसामयिक जीवन-छल की जीवंत तस्वीर !
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