28 November, 2021

पाषाण | कविता | डॉ शरद सिंह

पाषाण
      - डॉ शरद सिंह
आज 
आसमान 
कुछ ज़्यादा चमकदार 
कुछ हल्का नीला
कुछ उदारमना
लग रहा
कुछ तटस्थ भी

ऐसा क्यों?
बहुत सोचा
तो हुआ अहसास
आज सुबह से
आंखें नहीं भीगीं
दर्द नहीं गहराया
अपनों का छूटा साथ
कथित मित्रों के
घात, आघात
याद आई
सबकी
पर नहीं घेरा व्यथा ने
अर्थात् 
पाषाण होने की
प्रक्रिया में है हृदय
वेदना और संवेदना से परे।
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27 November, 2021

कौन पैरवी करता मेरी | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कौन   पैरवी    करता    मेरी
वो वकील था, वो ही जज था
उसने  अपनी ही   दलील पर
अपनी पीनल-कोड   बना ली
- डॉ शरद सिंह

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24 November, 2021

सियासत का लहू | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


इक   हक़ीक़त  की  तरह
झूठ  वो   कहता है   सदा,
उसकी    रग  -  रग     में
सियासत का लहू बहता है
- डॉ शरद सिंह

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18 November, 2021

वह | कविता | डॉ शरद सिंह

वह
    - डॉ शरद सिंह
वह 
कई दिन से
ढूंढ रहा है
एक अदद आसरा
एक अदद मालिक
जो दे उसे
कुछ टुकड़े रोटी के
और फुट भर जगह
घर के दरवाज़े पर

कई घर
कई दरवाज़े
देख चुका है वह
कई-कई बार

किसी ने दुत्कारा
पानी डालकर भगाया
किसी ने पुचकारा
दी बासी रोटी भी
पर
पनाह नहीं दी
किसी ने उसे

पसलियों के बीच
धौंकनी-सी
चलती सांसें
जूझ रहीं ज़िंदगी से
मौत की प्रतीक्षा में

मरना कोई नहीं चाहता
वह भी नहीं
भले ही जन्मा
सड़क के किनारे
स्वतंत्र प्राणी के रूप में
पर चाहता है ग़ुलामी
ज़िन्दा रहने के लिए

मगर
अफ़सोस
एक दिन 
किसी कूड़े के ढेर में
या सड़क पर 
कुचली हुई
दिखेगी उसकी देह
ग़ुलामी भी 
नहीं होगी उसे नसीब

ग़ुनाह कि-
उसकी नस्ल
है देसी
नहीं है वह-
अल्सेशियन, पामेरियन, 
डेल्मीशियन, लेब्राडोर,
जर्मन शेफर्ड या बुलडॉग

नहीं हुई है उसकी
ब्रीड क्राफ्टिंग
नहीं जन्मा वह
किसी फार्मिंग स्टेशन में
नहीं है उसकी क़ीमत
हज़ारों रुपयों में
वह तो निपट देसी
सड़कछाप पिल्ला है
चार दिन भटकेगा
करेगा 'कूं कूं'
और फिर 
हो जाएगा ख़ामोश
हमेशा के लिए।
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16 November, 2021

बेअसर | कविता | डॉ शरद सिंह

बेअसर
       - डॉ शरद सिंह
अपशब्द
नहीं कहना चाहती
मेरी वाणी
किन्तु
जब कुछ छिछले कटाक्ष
टकराते हैं कानों से
तो उबाल आता है मन में
बंधने लगती हैं मुट्ठियां
उमड़ता है आवेग
देने को
मुंहतोड़ ज़वाब

तभी
मेरा अवचेतन
खींचने लगता है
चेतना की वल्गाएं
और 
कहता है
दस्तक दे कर
माथे पर
मत बनो उसके जैसी

नहीं करता परवाह
सूर्य, बृहस्पति या शुक्र
छुद्र उल्काओं की
घूमता है अपनी धुरी पर
निस्पृह हो कर
जबकि 
हो जाती हैं राख
स्वतः जल कर
छुद्र उल्काएं

बात सहज है
और नहीं भी
आप्लावित धैर्य
छलक पड़ने को
हो उठता है आतुर
तब 
निकल पड़ते हैं अपशब्द
मेरे भी मुख से
पर उन्हें सुनती हैं
बंद कमरे की
खिड़कियां, दरवाज़े
और दीवारें
चेतन और अवचेतन के बीच 
एक आदिम द्वंद्व
द्वार खुलने तक
शांति का 
तय होता रस्ता
अक्षमताओं की भूमि पर
बोता रहता है
क्षमताओं का बीज

शांत मन
एक बार फिर
काटता है मुस्कुराहट की
लहलहाती फसल
और
सोचते हैं देखने वाले
उफ! ये कितनी बेअसर है।
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11 November, 2021

झुकती पृथ्वी | कविता | डॉ शरद सिंह


झुकती पृथ्वी
        - डॉ शरद सिंह

किसी प्रेमिका
या
नववधू सी
प्रेम के
संवेग से
भर कर नहीं,
मां के ममत्व से
उद्वेलित हो कर नहीं

पृथ्वी
घूम रही है
झुकी-झुकी
अपनी धुरी पर
कटते जंगलों
सूखती नदियों
गिरते जलस्तरों
बढ़ते प्रदूषण
और
ओजोन परत में
हो चले छेदों पर
आंसू बहाती हुई
घबराई-सी।

पृथ्वी
घूम रही है
अपने कक्ष में

हादसों को देखती
झेलती अपराधों को
नापती संवेदना के
गिरते स्तर को
नौकरी के हाट में बिकते
युवाओं को
और सूने घर में
छूट रहे बूढ़ों को
निर्माण से नष्ट की ओर
बढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती

पृथ्वी
अब और
झुक जाना चाहती है
हम इंसानों की
करतूतों पर शरमाती हुई।
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09 November, 2021

वे बच्चे | कविता | डॉ शरद सिंह

वे बच्चे
       - डॉ शरद सिंह

वे जो नन्हें बच्चे
नहीं जानते थे दुनिया
नहीं जानते थे
आग की तपिश
नहीं जानते थे
जीने की मशक्क़त
नहीं जानते थे
कि वे क्यों हैं
अस्पताल में
अब कभी 
जान भी नहीं सकेंगे
ज़िंदगी को
जिसे बचाने
भर्ती किए गए थे वे

वे रहते
तो धीरे-धीरे चढ़ते
उम्र की सीढ़ियां
जाते किसी
सरकारी स्कूल में
कुछ निकलते पढ़ाकू
कुछ पंक्चर जोड़ने वाले
और बनते
अपने परिवार के सहारे

अब 
उनकी किलकारियां
कभी नहीं
सुन पाएंगी मांंएं
नहीं सिखा पाएंगे
उंगली पकड़ कर चलना
उनके पिता

पछताते रहेंगे सिर्फ़
भर्ती करने पर
गोया 
अस्पताल हमीदिया का 
एसएनसीयू वार्ड नहीं
जीवित (शव×) दाहगृह हो
या लापरवाहियों का
अक्ष्म्य, घातक उदाहरण
या फिर
शाम तक 
बासी हो जाने ख़बर।
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07 November, 2021

हादसे | कविता | डॉ शरद सिंह

हादसे
         - डॉ शरद सिंह

एक पेंसिल शार्पनर 
ही तो हैं हादसे
जो बनाते रहते हैं नुकीला
इस ज़िन्दगी को
 
नोंक 
बन जाए चुभने लायक
तो चलती रहती है
अजेय
कुछ देर

भोथरी हो जाए
तो जीने के प्रयासों की 
लिखावट
हो जाती है
भद्दी, बदसूरत
जिसे कोई
पढ़ना न चाहे

और
टूट जाए नोंक 
तो एक और हादसा
छील कर
उतार देता है
आत्मा की पर्तें भी

पेंसिल के अंतिम सिरे तक
जो बच रहता है
पी जा चुकी
सिगरेट के टोटे सा
मृत्यु के जूते तले
कुचले जाने तक
मिट्टी मिश्रित ग्रेफाईट की 
काली सींक की तरह
आशाओं की 
नर्म लकड़ी में दबी
लिखने और टूटने के
संघर्ष में
हादसों से
छिलती रहती है ज़िंदगी।
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04 November, 2021

तनहाई | ग़ज़ल | डॉ शरद सिंह

और नहीं कुछ लिखना मुमकिन
ख़्वाब तलक भी डरा हुआ है
दिल की कापी का हर पन्ना
तनहाई से भरा हुआ है 
- डॉ शरद सिंह

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01 November, 2021

रीती हुई मुट्ठियां | कविता | डॉ शरद सिंह

रीती हुई मुट्ठियां
         - डॉ शरद सिंह
सुबह
सूरज की किरणों के साथ
सहेज कर रखी
एक मुट्ठी आशा
और
एक मुट्ठी उत्साह,
भर गई थीं
दोनों मुट्ठियां

घड़ी के कांटों के साथ
सरकते गए
सेकंड्स, मिनट्स
और घंटे
लुढ़कता गया 
पहर
किसी गेंद की तरह

ढीली पड़ती गई
मुट्ठी की पकड़
फिसल गई
रेत की भांति
आशा और
उत्साह

कचोटने लगा
अपना होना
चुभने लगा
अस्तित्व ख़ुद का
वृथा लगने लगा
लिखा हुआ ख़ुद का
ख़ुद से ही उचटने लगा
मन
गिरने लगे अक्षर
लैपटॉप की स्क्रीन से
ठिठकने लगी उंगलियां
ठहरने लगे विचार

शाम के बाद
शनैः शनैः आती रात
रीती हुई
मुट्ठियों के साथ
गुज़रेगी
ओढ़कर
अवसाद का लिहाफ़
और 
डबडबाती रहेंगी आंखें
तक़िया भिगोती हुईं।
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