01 October, 2022

कविता | प्रेम करूंगी यक़ीनन | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता
प्रेम करूंगी यक़ीनन
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

तुम कहते हो
मैं प्रेम करूं 
चिड़ियों सी चहकूं 
नदी सी खिलखिलाऊं
थाम कर हाथ
निकल जाऊं
सुदूर वनप्रांतर में

पर कैसे?

प्रेम तो 
मौसमों में जीता
प्रकृति से ऊर्जा लेता
दिलों में धड़कता
एक मधुर अहसास
हुआ करता था

हम बदल रहे हैं 
मौसमों को,
बदल रहे प्रकृति को,
इंसानों के दिल
ख़ुद ही बन चुके हैं
छिद्रित ओजोन परत

अहसासों में 
भले ही गरमाहट हो
बढ़ते तापमान की,
पर स्वार्थी स्पर्श की ठंडक
शून्य से चालीस डिग्री नीचे
कर रही है फ्रीज़ 
संबधों को

प्रेम घुट रहा है
वातानुकूलित कमरों में
जैसे वेंटिलेटर पर हो
कोई मरीज

यदि तुम दे सको
सांस भर
प्रदूषण रहित, स्वच्छ 
खुली हवा
सुधार दो मौसमों को
संवार दो प्रकृति को
चूम लूंगी माथा
पूरे प्रेमावेग के साथ,
है ये वादा !
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1 comment:

  1. आदरणीया मैम , बहुत ही भावपूर्ण , मर्म स्पर्शी रचना । जिन शब्दों में आपने मानव की भावनाओं और संबंधों के गिरते स्तर को दर्शाया है , वह मन को झकझोर देता है । यदि हम माँ प्रकृति के प्रति और अपने आस-पास लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हों और स्वार्थ की भवन का त्याग करें , तब कहीं जा कर हमारे हृदय में पुनः प्रेम पनप सकेगा ।

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