13 September, 2010

घरेलू हिंसा बनाम स्त्रियों के अधिकार

- डॉ. शरद सिंह 
    
स्त्रियां भारतीय संस्कृति, समाज और परिवार की एक महत्वपूर्ण कड़ी ही नहीं वरन् समाजीकरण की प्रक्रिया के विकास की सशक्त माध्यम भी हैं। इसीलिए किसी भी राष्ट्र का बहुमुखी विकास उस राष्ट्र की स्त्रियों की स्वतंत्रता एवं उनके अधिकारों के साथ गुणात्मक संबंध रखता है। सामाजिक न्याय व्यवस्था की आशा भी वहीं की जा सकती है जहां स्त्री-पुरुषों के लिए समान न्याय व्यवस्था हो। भारतीय संविधान में स्त्रियों के अधिकारों के लिए अनेक विधान और व्यवस्थाएं निश्चित की गई हैं। भारतीय संविधान की धारा-14 के अंतर्गत स्त्रियों एवं पुरुषों को आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर पर समान अवसर प्रदान किए जाने का प्रावधान है, धारा-15 में लिंग के आधार पर भेद-भाव को अमान्य किया गया है तथा धारा-16 एवं धारा-39 के अंतर्गत् सार्वजनिक नियुक्तियों के मामले में स्त्री-पुरुषों को समान अवसर एवं जीविका के समान अधिकार प्रदान किए जाने का विधान है । समय-समय पर उच्चतम  न्यायालय ने भी ऐसे कानूनों को बनाए जाने की आवश्यकता प्रकट की जिससे कि स्त्रियों के अधिकारों को और अधिक सुरक्षा एवं संरक्षण मिल सके। इस दिशा में शाहबानो एवं प्रतिभारानी (1984उ.न्या 648) प्रकरणों के निर्णयों को रेखांकित किया जा सकता है। इसी प्रकार अनेक ऐसे अधिनियम पारित किए गए जो महिलाओं के कल्याण तथा उनके विरूद्ध अपराध, अत्याचार एवं शोषण को रोकने की राह में मील का पत्थर साबित हुए। ठीक इसी प्रकार महत्वपूर्ण है घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानून जो 26 अक्टूबर 2006 से पूरे देश में समान रूप से लागू किया जा चुका है। इस कानून के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। सबसे पहला महत्वपूर्ण पहलू तो ये है कि घरेलू हिंसा के विरुद्ध यह कानून सभी स्त्रियों को सार्वभौमिक दृष्टि से देखने वाला है।
         भारतीय स्त्री सदियों से घरेलू हिंसा की शिकार होती आ रही है। इस कानून में किसी भी स्त्री का शारीरिक अथवा यौन उत्पीड़न करने या उसकी धमकी देने, गाली देने, मारपीट, जबरन यौन संबंध बनाने, अश्लील चित्र/फिल्म आदि दिखाने के साथ भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न को भी घरेलू हिंसा के दायरे में रखा गया है। दहेज के लिए किसी स्त्री या उसके परिवारजन को परेशान करने को भी इस कानून में शामिल किया गया है। इस कानून के तहत महिलाएं जिस घर में पुरुष के साथ रहती हों, संरक्षण के लिए कोर्ट से निर्देश जारी करने की मांग कर सकती हैं। इस कानून के अनुसार किसी भी विवाहिता को उसकी ससुराल से निकाला नहीं जा सकता है। यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी अथवा स्त्री साथी, घर में रहने वाली बहन, मां अथवा विधवा स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध हाथ भी लगाता है तो उसे दण्डित किए जाने का प्रावधान है। अर्थात् यह कानून उन औरतों के लिए तो लाभप्रद है ही जो पत्नी, बहन या बेटी के रूप में पारिवारिक प्रताड़ना की शिकार होती रहती है, वरन् यह कानून उन औरतों के हित में भी है जो रक्तसंबंधी अथवा पारिवारिक रिश्तों के दायरे से इतर होते हुए मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना की शिकार होती रहती हैं। कोर्ट इस कानून का उल्लघंन करने वाले के विरुद्ध संज्ञान लेते हुए उसकी गिरफ्तारी के लिए गैर जमानती वारंट जारी कर सकती है यी 20हजार रुपए का जुर्माना या फिर दोनों एक साथ लगाए जा सकते हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास के द्वारा यह आशा करना बिलकुल उचित है कि इस नए कानून के लागू होने से सभी महिलाओं को राहत मिलेगी तथा इससे महिलाओं से संबंधित मौजूद अन्य कानूनों को मजबूती मिलेगी। ब्रिटेन जैसे देश में भी महिलाएं बड़ी संख्या में घरेलू हिंसा की शिकार होती रहती हैं जिसके कारण ब्रिटेन की सरकार ने सन् 2005 में अपने देश में इसी प्रकार का कानून लागू किया।
    भारत जैसे देश में महिलाओं के प्रमुख तीन वर्ग माने जा सकते हैं। पहला वर्ग वह है जो ग़रीबीरेखा के नीचे जीवनयापन कर रहा है और शिक्षा से कोसों दूर है। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है। दूसरा वर्ग उन औरतों का है जो मध्यमवर्ग की हैं तथा परम्परागत पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव में जीवन जी रही हैं। ऐसी महिलाएं पारिवारिक बदनामी के भय से हर प्रकार की प्रताड़ना सहती रहती हैं। पति से मार खाने के बाद भी ‘बाथरूम में गिर गई’ कह कर प्रताड़ना सहन करती रहती हैं तथा कई बार परिवार की ‘नेकनामी’ के नाम पर अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठती हैं। दहेज को ले कर मायके और ससुराल के दो पाटों के बीच पिसती बहुओं के साथ प्रायः यही होता है। महिलाओं का तीसरा वर्ग वह है जिनमें प्रताड़ना का विरोध करने का साहस ही नहीं होता है। इस प्रकार की मानसिकता में जीवनयापन करने वाली महिलाओं के विचारों में जब तक परिवर्तन नहीं होगा तब तक महिलाओं से संबंधित किसी भी कानून के शतप्रतिशत गुणात्मक परिणाम आना संभव नहीं है।