ग़ज़ल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
रिवायतें अब बदल रही हैं
नए लिबासों में मिल रही हैं
अदब के क़िस्से हुए पुराने
बेअदबियां अब मचल रही हैं
ख़तो-क़िताबत चलन से बाहर
फ़िज़ाएं चैटिंग में ढल रही हैं।
जिसे भी देखो हुआ सियासी
हवाएं कैसी ये चल रही हैं
"शरद" थकन का ना ज़िक्र लाओ
अभी तो सांसें सम्हल रही हैं
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वाकई सब कुछ बदल रहा है ।
ReplyDeleteयुगवर्तन की सुंदर संज्ञेय समीक्षा !
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