26 April, 2021

मेरे अश्क़ तुझसे हैं पूछते | मुक्तक | डॉ शरद सिंह

मेरे अश्क़  तुझसे  हैं  पूछते
मेरा क्या गुनाह है मुझे बता
जो बता सको न मुझे कभी
करो और ग़म न मुझे अता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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25 April, 2021

उदास शाम | मुक्तक | डॉ शरद सिंह

उदास शाम का तोहफ़ा मुझे दिया उसने
ख़ुशी भरी जो सुब्ह दे तो शुक्रिया मैं कहूं !

जले जो  साथ  मेरे,  रात  भर  अंधेरे  में
दिले-चराग़ कहूं, उसको इक दिया मैं कहूं
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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23 April, 2021

हे सूरज | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रार्थना

हे सूरज !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हे सूरज! मेरी पृथ्वी की रक्षा तुम करना  
कोरोना के इस संकट में दुख सारे हरना

शिथिल हो चले जीवन बंधन को थामे रहना
प्राणवायु से हर मानव के जीवन को भरना

मानवत्रुटि मानव पर भारी हर पल है दिखती
एक क्षमा का अवसर मानव के हाथों धरना

निज दुख छोटा हुआ जा रहा मानव-दुख के आगे
शोकग्रस्त मानवता के हर दुख को कम करना

"शरद" प्रार्थना करती है, हर संभव तुम करना
सूर्य ! प्रखरता से अपनी, हर पीड़ा को हरना
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16 April, 2021

कमज़ोर हूं मैं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता

 

Dr ( Miss) Sharad Singh

कमज़ोर हूं मैं

           - डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

इन दिनों जांच रही हूं

अपनी भावनाओं को

अनेक मानक हैं मेरे सामने

जो मुझे कराते हैं रूबरू

मेरी कमज़ोरियों से


मेरी मां को "दादी-दादी" कह कर पुचकारतीं

कम उम्र नर्सें

क्या याद रखेंगी उन्हें लम्बे समय तक,

या बेड पर बदलते ही पेशेंट

बदल जाएंगे शब्द और संबोधन


जो मेरे लिए मां हैं, उनके लिए पेशेंट

हर पेशेंट महत्वपूर्ण है उनके लिए

पर मेरे लिए-

मां और सिर्फ़ मेरी मां...


निर्विकार, निर्भाव, निस्पृह

सफ़ेदपोश नर्सों, डॉक्टरों की

जीवट जीवनशैली 

क्या मैं भी जी सकती हूं कभी?

नहीं!!!

कभी नहीं !!!

मैं क्या, कोई भी नहीं

यदि अस्पताल के बेड पर हो मां....

या शायद कोई

पर मैं नहीं,

कमज़ोर हूं मैं


बेहद कमज़ोर...।

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(16.04.2021, 05:45 PM)

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15 April, 2021

नटनी की तरह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता

 

Dr ( Miss) Sharad Singh

नटनी की तरह

         - डॉ (सुश्री) शरद सिंह


शून्य से शून्य तक के सफ़र में

उम्र के अंकों 

और 

आंकड़ों से खेलते

गुज़रते जाते हैं

दिन, सप्ताह, महीने, साल

इस दौरान साथ होती है

स्वप्नों की वह दुनिया

जिसमें होते हैं -

कुछ रात्रिस्वप्न

तो कुछ दिवास्वप्न।


अचानक

एक दिन रिक्त भगोने की तरह

अस्पताल के एक बिस्तर  पर

शिथिल पड़ी देह

प्रज्जवलित करने लगती है

अटूट भावनाओं को

बिना किसी ईंधन के

और खदबदाने लगती हैं इच्छाएं

जीने की

रेशा-रेशा कटती रस्सी पर

अपना खेल पूरा करने को तत्पर

नटनी की तरह।


ठीक उन्हीं पलों में 

महसूस होता है

भिंची मुट्ठी से फिसलती रेत जैसे

संबंध का महत्व

क़रीब आते शून्य को देखते हुए।

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(15.04.2021, 02:15 AM)


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13 April, 2021

बंद गली | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता

बंद गली
        - डॉ शरद सिंह

कुछ समझ नहीं आता है
कांपता है मन
पत्ते की तरह
हर पल आशंकाओं की लहरें
टकराती हैं पत्थर हो चले दिल से
तभी पता चलता है कि-
दिल का पत्थर होना 
तो फ़क़त धोखा है
रेत के टीले सा दिल 
हर बार बिखर जाता है
कुछ समझ नहीं आता है

उसके सीने में धड़कन
रुक-रुक कर चलती है
दर्द मेरे सीने में भी होता है
उसके सूख चले शरीर में
स्निग्धता आज भी बाकी है
ममत्व की,
वहीं मेरी देह 
टूट कर गिर जाना चाहती है
अस्पताल के सुचिक्कन फर्श पर
किसी भी दिलासा से
अब मन नहीं भरमाता है
कुछ समझ नहीं आता है

गोया, मेरी समझ
हो गई है
बंद गली का आख़िरी दरवाज़ा
जिसके आगे
दम तोड़ दिया है
हर रास्ते ने।
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दहशत के बीच | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता


दहशत के बीच
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कुछ होने 
और कभी भी कुछ भी हो सकने की
दहशत के बीच
बहती हैं अनेक नदियां
पीड़ा की।
हज़ार मौत मरती है ज़िंदगी
उसकी - जो बीमार है
उसकी - जो बीमार के साथ हैं
बस, कुछ होने 
और कभी भी, कुछ भी 
हो सकने की दहशत के बीच
दिन पत्थर हो जाते हैं और
रातें गहरे काले धुएं-सी दम घोंटती हैं,
दवाओं की अचाही गंध
और स्लाईन की नलियों से बहती
जीवन धाराएं,
अस्पताल के एक बिस्तर पर 
संघर्ष जीवन और मृत्यु में
बस, कुछ होने 
और कभी भी, कुछ भी 
हो सकने की दहशत के बीच
थमा रहता है सब कुछ
घड़ी, उत्साह, उमंग, उल्लास
और सोई रहती है चैतन्यता
दहशत की चादर ओढ़ कर 

बस, कुछ होने 
और कभी भी, कुछ भी 
हो सकने की दहशत के बीच
समय भारी लगता है
किसी शिला की तरह।
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