21 February, 2021

मालिक | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल


मालिक


- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


अधिक नहीं तो दो मुट्ठी ही धूप मुझे दे देना, मालिक।

बदले में  दो सांसे मेरी  चाहे कम  कर लेना, मालिक।


ढेरों खुशियां, ढेरों पीड़ा,  होती है  सह पाना मुश्क़िल

मन की कश्ती  जर्जर ठहरी, धीरे-धीरे  खेना, मालिक।


मैं तो  हरदम  प्रश्नचिन्ह के  दरवाज़े  बैठी  रहती हूं

मुझे परीक्षा से  डर कैसा, जब चाहे,  ले लेना मालिक।


मोल-भाव पर उठती-गिरती, ये दुनिया बाज़ार सरीखी

साथ किसी दिन चल कर मेरे, चैन मुझे ले देना,मालिक।


बिना नेह के ‘शरद’ व्यर्थ है, दुनिया भर का सोना-चांदी

अच्छा लगता  अपनेपन का  सूखा चना-चबेना, मालिक।


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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19 February, 2021

लहरों पर तैरती ऋचायें | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

लहरों  पर  तैरती  ऋचायें

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


जलपाखी  हृदय  कहां जायेगा?

पोखर के  साथ ही   निभायेगा।


तट का इक पाथर ही तक़िया है

धार-धार  सपने  दिखलायेगा।


ऋषियों का गांव हुआ व्याकुल मन

नित्य  नई  समिधाएं  लायेगा।



हर बीता पल अपनी त्रुटियों को

उंगली की  पोर पर  गिनायेगा।


लहरों  पर  तैरती  ऋचायें जो

हर कोई  बांच  नहीं  पायेगा।


कातरता  भीत  पर उकेरो मत

स्वस्ति-चिन्ह बिखर-बिखर जायेगा।


क्या होगा? कब होगा? प्रश्नों को

सोचो मत,  मनवा  अकुलायेगा।


अनुमोदित पीर है ‘शरद’ की तो

प्रतिवेदन  पढ़ा  नहीं  जायेगा।


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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18 February, 2021

कभी घर नहीं मिला | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

कभी घर नहीं मिला

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


छप्पर नहीं मिला तो कभी दर नहीं मिला।

मानो यक़ीन, मुझको कभी घर नहीं मिला।


जिसमें लिखा सकूं मैं रपट, खोए  चैन की

पूरे  शहर में  एक  भी  दफ़्तर नहीं मिला।


आंखों की  झील में  हैं  कई कश्तियां बंधीं

उतरे जो  पार, कोई  मुसाफ़िर  नहीं मिला।


पिछले पहर की धूप भी  कानों में  कह गई

जब-जब किया तलाश, वो घर पर नहीं मिला।


उठने लगी  हैं  उंगलियां, जब से  हरेक पर

पैरों में  तब से  एक  भी  झांझर  नहीं मिला।


अकसर मिली है धूप   मुझे  राह में  ‘शरद’

राही तो  मुझसे एक भी आ कर नहीं मिला।


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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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15 February, 2021

प्रेम | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

कविता


प्रेम

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


प्रेम

एक शब्द नहीं

ध्वनि नहीं

लिपि नहीं


प्रेम

अनुभूति है

किसी को जानने की

अपना मानने की

एक आत्मिक 

अनवरत उत्सव की तरह

स्वप्न और आकांक्षा से परिपूर्ण


प्रेम

देह नहीं

वासना नहीं

एक संवेग है-

देह के भीतर

पर

देह से परे।

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13 February, 2021

प्रेम और वसंत | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

कविता

प्रेम और वसंत

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


किसी को

देखते ही

जब

शब्द खो देते हैं

अपनी ध्वनियां 

और

मुस्कुराता है मौन 


ठीक वहीं से 

शुरु होता है

अंतर्मन का कोलाहल

और गूंज उठता है

प्रेम का अनहद नाद

बहने लगती हैं

अनुभूतियों की राग-रागिनियां

धमनियों में

रक्त की तरह


भर जाती है

धरती की अंजुरी भी

पीले फूलों के शगुन से


बस, तभी सहसा

खिलखिला उठते हैं 

प्रेम और वसंत

पूरे संवेग से

एक साथ

देह और प्रकृति में।

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11 February, 2021

काश, पूछता कोई मुझसे | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh 
ग़ज़ल

काश, पूछता कोई मुझसे

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


काश, पूछता कोई मुझसे, सुख-दुख में हूं, कैसी हूं?

जैसे पहले खुश रहती थी, क्या मैं अब भी  वैसी हूं?


भीड़ भरी दुनिया में  मेरा  एकाकीपन  मुझे सम्हाले

कोलाहल की सरिता बहती,  जिसमें मैं ख़ामोशी हूं।


मेरी चादर,  मेरे बिस्तर,  मेरे सपनों में  सिलवट है

लम्बी काली रातों में ज्यों, मैं इक नींद ज़रा-सी हूं।


अगर सीखना है तो सीखे, कोई उससे नज़र फेरना

पहले तो कहता था मुझसे, अच्छी लगती हूं जैसी हूं।


जो दावा करता था पहले ‘शरद’ हृदय को पढ़लेने का

आज वही कहता है मुझसे, शतप्रतिशत मैं ही दोषी हूं।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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08 February, 2021

ये किसका अफ़साना है | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

 ग़ज़ल

ये किसका अफ़साना है

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


उसने जाने क्या समझा है, उसने  जाने  क्या  माना है?

मैंने तो कुछ किया नहीं है, फिर ये किसका अफ़साना है?


सिर्फ़ रात  को  नहीं टूटते, दिन में  भी  गिरते हैं तारे

सूरज  वाले  आसमान  पर  उनका  भी आना-जाना है।


सब अपने-अपने हिस्से के दुख-सुख झेल रहे सदियों से

जीवन फिर भी  बुनता रहता, रिश्तों का  ताना-बाना है।


अफ़वाहों  की  गर्म  हवा में  सच्चाई ही झुलसा करती

सबके  अपने  मानक  ठहरे,  सबका  अपना  पैमाना है।


उसकी  शोहरत  उसे  मुबारक़, मेरी  गुमनामी  मुझको

इस दुनिया के रंचमंच पर, अभिनय करना, खो जाना है।


‘शरद’ धूप की  नरमाहट को  गले लगाये  बैठी है जो

इसी धूप को अगले मौसम, शोला-शोला  हो  जाना है।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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06 February, 2021

उसको ये मालूम नहीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

 

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

उसको ये मालूम नहीं

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


मेरा दिल क्या-क्या सहता है, उसको ये मालूम नहीं।

वो   मेरे  दिल  में  रहता है, उसको ये मालूम नहीं।


उसका भोलापन  चेहरे पर   अकसर हंसता रहता है

दुनियादारी  क्या  होती  है,  उसको ये मालूम नहीं।


जब भी मिलता, जिससे मिलता,  शब्दों से जादू कर जाता,

आंखों से वो क्या कह जाता,  उसको ये मालूम नहीं।


जिसको सुख का स्वाद मिल गया, उसको पीड़ा से क्या लेना,

उसके कारण  क्या ढहता है,  उसको ये मालूम नहीं।


‘शरद’ समय की धारा में तो अच्छे-अच्छे बह जाते हैं

कैसे  इक  पत्थर  बहता  है,  उसको ये मालूम नहीं।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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05 February, 2021

ज़रा तुम कहो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

 

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

ज़रा तुम कहो

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


जो कहा न किसी ने ज़रा तुम कहो।

क्या  बनोगे मेरा  आसरा, तुम कहो।


मैं  तुम्हें  मान   लूं   प्यार में  नत गगन

और मुझको क्षितिज की धरा तुम कहो।


एक   स्पर्श   होता   है   सावन  भरा

क्या नहीं दिख रहा सब हरा, तुम कहो।


कल से  दिखने लगे इन्द्रधनुषी सपन

नींद में  रंग  किसने  भरा तुम कहो।


एक मरुभूमि  लहरों  में बदली है जो

अब उसे सज्जला,  निर्झरा  तुम कहो।


प्यार में डूब कर जो जिया हो ‘शरद’

वो किसी से भला  कब डरा, तुम कहो।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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03 February, 2021

धूप चुरा ली | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ग़ज़ल संग्रह | पतझड़ में भीग रही लड़की

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

धूप चुरा ली

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह


उसकी मुट्ठी भरी हुई है, मेरी मुट्ठी  खाली- खाली।

उसने पहले छतरी मांगी, फिर चुपके से धूप चुरा ली।


वो चंदा है  आसमान का,  तारों से  मन बहलायेगा

उसको क्या मालूम पड़ेगा, मावस होती कितनी काली।


कौन पैरवी करता मेरी, वो वक़ील था, वो ही जज था

उसने अपनी ही दलील पर, अपनी ‘पीनल कोड’ बना ली।


इक पत्थर है मेरे आगे, जिसको ईश्वर मान लिया है

कुछ न कुछ तो करना ही था जब दुनिया ने नज़र फिरा ली।


‘शरद’ रात है जितनी लम्बी, आंखें उतनी जागी-जागी

सपनों ने भी जैसे उसी यादों के संग  लगन करा ली।

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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)


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01 February, 2021

किसानों की बातें | ग़ज़ल | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

ग़ज़ल

किसानों की बातें

- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


सियासत नहीं हैं, किसानों की बातें।

तिज़ारत  नहीं हैं, किसानों की बातें।


खेती, किसानी नहीं सब के बस की

नफ़ासत नहीं हैं, किसानों की बातें।


पसीना  बहाए,    लहू  को  सुखाए

शरारत  नहीं हैं, किसानों की बातें।


भले ही  अंगूठा  लगा कर  जिए वो

ज़हालत  नहीं हैं, किसानों की बातें।


जो हक़ मांगने को, उठाए वो बांहें

बग़ावत  नहीं हैं, किसानों की बातें।


'शरद' वो नहीं हैं किसी के भी दुश्मन

अदावत नहीं  हैं,  किसानों की बातें।


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भारतीय किसान | Indian Farmer