26 December, 2021

लड़कियां किस्म-किस्म की | डॉ सुश्री) शरद सिंह | कविता | नवभारत

"नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज "लड़कियां किस्म-किस्म की" शीर्षक कविता प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏

लड़कियां किसम-किसम की
               - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मूक दर्शक से हम
देखते हैं उन्हें
एक तारीख़
एक दिन
एक समय में -

एक लड़की
रचती है इतिहास
ओलंपिक में

एक लड़की 
जोहती है बाट
सज़ा सुनाए जाने की
अपने बलात्कारी को

एक लड़की
होती है शिकार
बलात्कार का

एक लड़की
करती है सर्फिंग
इंटरनेट पर

एक लड़की
होती है ब्लैकमेल
प्रेम-डूबे वीडियो की
अपलोडिंग पर

एक लड़की
होती है भर्ती 
पुलिस में

एक लड़की
बेचती है देह
रेडलाईट एरिया में

एक लड़की
करती है संघर्ष 
जीने का

एक लड़की
ढूंढती है तरीक़े
आत्महत्या के 

एक लड़की
ख़ुश है अपने
लड़की होने पर

एक लड़की
करती है विलाप-
'अगले जनम मोहे
बिटिया न कीजो'

देखो तो,
इस दुनिया में
कितनी 
किसम-किसम की हैं
लड़कियां,
समाज के सांचे 
और 
ढांचे के अनुरूप

यानी,
लड़कियां 
हमेशा
एक-सी नहीं रह पाती 
हमारे बीच,
एक ही समय में।
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24 December, 2021

शीत | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कविता

शीत
धूप का पहाड़ा
कठिन हो चला है
शीत की गिनती
उंगलियों पर है
ठिठुरन बन के...
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

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19 December, 2021

अपशब्द | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत

मित्रो, "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज "अपशब्द" शीर्षक कविता प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏

अपशब्द
       - डॉ शरद सिंह
अपशब्द
नहीं कहना चाहती
मेरी वाणी
किन्तु
जब कुछ छिछले कटाक्ष
टकराते हैं कानों से
तो उबाल आता है मन में
बंधने लगती हैं मुट्ठियां
उमड़ता है आवेग
देने को
मुंहतोड़ ज़वाब

तभी
मेरा अवचेतन
खींचने लगता है
चेतना की वल्गाएं
और 
कहता है
दस्तक दे कर
माथे पर
मत बनो उसके जैसी

नहीं करता परवाह
सूर्य, बृहस्पति या शुक्र
छुद्र उल्काओं की
घूमता है अपनी धुरी पर
निस्पृह हो कर
जबकि 
हो जाती हैं राख
स्वतः जल कर
छुद्र उल्काएं

बात सहज है
और नहीं भी
आप्लावित धैर्य
छलक पड़ने को
हो उठता है आतुर
तब 
निकल पड़ते हैं अपशब्द
मेरे भी मुख से
पर उन्हें सुनती हैं
बंद कमरे की
खिड़कियां, दरवाज़े
और दीवारें
चेतन और अवचेतन के बीच 
एक आदिम द्वंद्व
द्वार खुलने तक
शांति का 
तय होता रस्ता
अक्षमताओं की भूमि पर
बोता रहता है
क्षमताओं का बीज

शांत मन
एक बार फिर
काटता है मुस्कुराहट की
लहलहाती फसल
और
सोचते हैं देखने वाले
उफ! ये कितनी बेअसर है।
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16 December, 2021

रात | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रात
- डॉ शरद सिंह
रात 
एक शब्द मात्र नहीं
है एक ब्लैक होल
जिसमें
विचार भी 
खो बैठते हैं 
अपनी परछाई
और खिंचती चली जाती है
तनहाई
उस रबरबैंड की तरह
जो नहीं टूटती
किसी भी हद तक जा कर।
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11 December, 2021

ग़ज़ल | दर्द का रंग | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल - दर्द का रंग
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक भूखे को दिखे चांद भी रोटी जैसा
दर्द का रंग भी दुनिया में है कैसा-कैसा

उसकी नज़रों में ग़रीबों की जगह कोई नहीं
उसकी नज़रों में हरेक शख़्स है ऐसा- वैसा

वो सियासत की, तिज़ारत की ज़बां कहता है
उसको रिश्तों में भी दिखता है फ़क़त ही पैसा

एक दरिया का किनारों से भला क्या रिश्ता
उसको लम्हा नहीं मिलता है ठहरने जैसा
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