मंज़र सारे फ़ीके, धुंधले नज़र आ रहे
अश्क़ों के पर्दे आंखों को ढंके जा रहे
इश्क़ का शीशा टूटा, किरचें बिखर गईं
जख़्मी पैरों से आखिर हम किधर जा रहे
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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