31 May, 2021

ध्वनियां | कविता | डॉ शरद सिंह

ध्वनियां
     - डॉ.शरदसिंह
मुझे सुनना है-
एन. राजम का वायलिन
हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी
शिवकुमार शर्मा का संतूर
बीथोवन की सिम्फनी
बाख़ की कम्पोजीशन
मोरीत्सेविच का बैलेम्यू़ज़
ध्वनियां, ध्वनियां, 
ढेर सारी ध्वनियां

आए
समा जाए
मेरे कानों में
एक समुच्चय ध्वनियों का
ताकि दब जाए ध्वनि
असमय खोने से उपजे
अंतःरुदन की।
 -------------

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30 May, 2021

एक आवाज़ | कविता | डॉ शरद सिंह

एक आवाज़
        - डॉ शरद सिंह
भरी दोपहर में
बादल छाए आज
गरजे भी, बरसे भी
छा गया अंधेरा
कमरे के एक कोने में
सिकुड़ कर बैठी मैं
करती रही प्रतीक्षा
कि आएगी एक आवाज़
देगी उलाहना मुझे-
क्यों नहीं जलाई लाईट?
कितना अंधेरा हैं कमरे में...

या फिर कहेगी-
चलो, बाहर बैठें, बरामदे में
चाय बनाऊं?
कुछ खाओगी?

या फिर पूछेगी वह आवाज़-
डर तो नहीं रहा है हमारा बेटू
बादल गरजने से?
देख, तेरी दीदू तेरे पास है...

ये तो थी बिन मौसम बरसात
क्या होगा
असली बारिश में?
जबकि-
बादल गरजते रहे
पानी बरसता रहा
गहन अंधेरे में 
डूबा रहा कमरा
नहीं आई कोई आवाज़
तरसते रहे कान
सुनने के लिए
दुनिया की सबसे मीठी, मधुर आवाज़
दुलार, प्यार और मनुहार भरी आवाज़
नहीं आई,
सन्नाटा चीरता रहा कलेजे को
रिसता रहा लहू
ताज़्जुब !
कि फिर भी ज़िंदा हूं मैं
उस एक आवाज़ के इंतज़ार में
स्याह अंधेरे कोने में सिमटी हुई।
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जो बचे हुए हैं | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित

मेरी कविता "जो बचे हुए हैं" को आज 30.05.2021  को "नवभारत" के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया गया है....

 हार्दिक आभार "नवभारत"🙏


29 May, 2021

सीने में समुद्र | कविता | डॉ शरद सिंह

सीने में समुद्र
           - डॉ. शरद सिंह
एक समुद्र दुख का
हहराता रहता है सीने में
टकराती हैं लहरें तट से
फिर चली आती हैं
रेत पर दूर तक
बिछा जाती हैं -
सीप, घोंघे और शंख
जिनमें रखे होते हैं
यादों के मोती,
प्रारब्ध के वलय
और पवित्र ध्वनियां
प्रेम की, अपनत्व की, 
जीवन के सपनों की
बेशक़, सुंदर बहुत सुंदर
पर 
होते हैं मृत
सीप, घोंघे और शंख
जिन्हें फेंक  देता है समुद्र
गहरे पानी से बाहर उलीच कर
उलीचने का यह क्रम 
नहीं होता कभी ख़त्म
सीने में रहते हैं शेष
अनंत जीवाश्म
जब तक देह में 
रहती है धड़कन
तब तक हहराता है
सीने में समुद्र
और उलीचता रहता है
निर्जीव पदार्थों को
यूं भी, उसका उलीचा जीवन
कभी जीवित नहीं रहता देर तक
दम तोड़ देता है छटपटा कर
जमने लगती है गाद (सिल्ट)
मगर न थमा है समुद्र
न रुकी हैं लहरें
किसी गाद से
न चाहते हुए भी
जीना पड़ता है 
जीवाश्मों के साथ ही।
       ------------

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28 May, 2021

क़लम की नोंक पर ठहरी कविता | कविता | डॉ शरद सिंह

क़लम की नोंक पर ठहरी कविता
                      - डॉ शरद सिंह
मेरी क़लम की नोंक पर
ठहरी हुई
एक कविता
आतुर  है काग़ज़ पर उतरने को
इस कविता में है-
'प्रसाद' की 'कामायनी'
प्रेमचंद की 'पूस की रात'
गुलेरी की 'सुबेदारनी'
कमलेश्वर का 'राजा निरबंसिया'
टॉल्सटॉय की 'अन्नाकरेनीना'
गोर्की की 'मां'
सर्वेंटीज का 'डॉन क्विकजोट'
और
शेक्सपियर की 'डेसडिमोना' भी

यह कविता
कर सकती है प्रेम
लड़ सकती है लड़ाईयां
सुला सकती है कायरता
जगा सकती है विद्रोह

यह कविता जाति, धर्म, रंग से परे
संवाद है 
मनुष्य से मनुष्य का
यह कविता दिखा सकती है
व्यवस्था की ख़ामियां
शासन-प्रशासन की लापरवाहियां

इस कविता के पास
पांच उंगलियां और है एक अंगूठा
जिससे बन सकती है
तर्जनी भी और मुट्ठी भी
यह कविता 
सिखा सकती है जीना
और आवाज़ उठाना

इसीलिए
यह कविता ठहरी है
कलम की नोंक पर
कि लोग तैयार हो जाएं
इसे पढ़ने के लिए
कुछ कर गुज़रने के लिए।
      -----------

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27 May, 2021

सपने | कविता | डॉ शरद सिंह

सपने
     - डॉ शरद सिंह
कुछ आम से सपने
कुछ नीम से सपने
कुछ पंछी के अधखाए 
अमरूद से सपने
कुछ गिलहरी के कुतरे सपने
कुछ ज़मीन पर उतरे सपने
कुछ पूनम से सपने
कुछ ग्रहण से सपने
कुछ सुलाए रखने वाले सपने
कुछ डरा कर जगा देने वाले सपने
मगर सपनों के लिए शर्त है
कि नींद आए
नहीं आते सपने रतजगे में
जैसे अमावस में नहीं आता चांद
जैसे काले बादल से नहीं गिरती धूप
जैसे पहले-सा नहीं जुड़ता टूटा हुआ कांच
जो देखना चाहे सपने
उसे करना होगा
नींद का जुगाड़

सपने देखना बुरा नहीं
बुरा है टूट जाना सपनों का
जागने से पहले ही।
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बचे रह जाना | कविता | डॉ शरद सिंह

बचे रह जाना
          - डॉ शरद सिंह

पतझड़ ने कर दिया पेड़ को ठूंठ
कुछ भी न बचा
जीवन का चिन्ह
सिवाय एक पत्ते के
जो फड़फड़ा रहा है
तीखी धूप और गर्म हवा में
ख़ुद को कोसता हुआ
कि वही क्यों रह गया शेष
जब सब झरे
तो झर जाना था उसे भी

जैसे सोचता था
वह मोची
जो बैठता था इस पेड़ के नीचे
कि जब ठूंठ हो गया पेड़
तो अब वह बैठेगा 
किसकी छाया में
जब फिर से -
चलने लगेंगी सड़कें
भरने लगेगा कोलाहल
टूटने लगेंगी चप्पलें
फटने लगेंगे जूते
तब उसके पास 
होगी निहाई
होगी रांपी
होगी हथौड़ी
होगी सुई
होगा धागा
नहीं होगी तो 
बस, पेड़ की छाया
मोची उदास है
पत्ता उदास है
उदास है पृथ्वी का हर कोना

पतझड़ पसर गया है
हवा गर्म हो चली है
पांव क़ैद हैं घरों के भीतर

पथरा रही हैं आंखें मोची की
सूख चली हैं नसें पत्ते की
दोनों टूट कर भी
नहीं टूटे हैं
पर क्यों?
वे भी नहीं जानते उत्तर
सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।
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25 May, 2021

एक हंसी | कविता | डॉ शरद सिंह

एक हंसी
     - डॉ शरद सिंह

जाने कब लौटेगी 
वह हंसी
जो चली गई है तुम्हारे साथ
नहीं होगी तुम्हारी वापसी
तो नहीं लौटेगी
हंसी भी

हंसने का अभिनय
सीख रही हूं
धीरे-धीरे
क्यों कि 
किसी को भी नहीं भाता
मेरे रोने का स्वर

भला कौन रखना चाहेगा
दुख से नाता
ख़ुशी गुदगुदाती है सबको
सबको हक़ है
ख़ुश रहने का
दुख और दुखी को ठुकराने का

अगर रखना है संवाद
ख़ुशहाल लोगों से
तो हंसना होगा मुझे भी
एक हंसी, 
दिखावटी ही सही।
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24 May, 2021

गुनहगार | कविता | डॉ शरद सिंह

गुनहगार
      - डॉ शरद सिंह

सुना है
हुआ करते थे
कस्तूरी मृग
जिनकी नाभि में होता था
इत्र
वह इत्र ही बना अभिशाप
न रहे कस्तूरी मृग
और न इत्र

सुना है
हुआ करते थे
लम्बे दांत वाले हाथी
हज़ारों की संख्या में
दांत ही बन गया जंजाल
अब कुछ सौ बचे हैं
दांतों सहित

सुना है
हुआ करते थे
सुनहरी खाल वाले शेर
बड़ी तादाद में
वह खाल ही बन गई काल
अब बचे हैं
संकटग्रस्त जीवों की
श्रेणी में

कुछ समय बाद
हम कहेंगे
बक्सवाहा के जंगलों में थे हीरे
वे हीरे नहीं साबित हुए शुभ
मानवता के लिए
अब न हीरे बचे हैं
और न जंगल

दरअसल,
कस्तूरी मृग नहीं था अभिशप्त
हाथीदांत नहीं था जंजाल
खाल नहीं थी काल
हीरे नहीं थे अशुभ
हमने इन्हें खोया
क्यों कि हम में थे कायर
क्यों कि हम में थे स्वार्थी
क्यों कि हम में थे लालची
क्यों कि हम में थे
प्रकृति के हत्यारे
और गुनाहगार
आने वाली पीढ़ी के।
   -----------------

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घोषणाएं | कविता | डॉ शरद सिंह

घोषणाएं
         - डॉ शरद सिंह
घोषणाएं 
बनती जा रही हैं
एक चमचमाता हुआ पोस्टर
जो सक्षम है छिपाने में,
ध्यान बंटाने में 
दीवार की बदसूरती से
लेकिन काम नहीं आता
ओढ़ने-बिछाने के भी
यानी
इस  आपदा के दौर में भी
एक घोषणा सर्वसम्मति से
पारित हो कर भी
साल भर में नहीं पहुंच पाई 
दफ़्तरों तक
तो क्या लाभ ऐसी घोषणा का
अविवाहित बेटियां 
भटक रही हैं
और कर रही हैं प्रतीक्षा 
घोषणा से जन्मे 
आदेश की
भरण-पोषण की।
अरे , घोषणा करने वालों को 
कोई तो बताए 
कि सिर्फ़  घोषणाओं से
पेट नहीं भरता 
घोषणाओं पर कर यक़ीन
आम-आदमी है
तिल-तिल मरता।
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23 May, 2021

उसे क्या | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित

मेरी कविता "उसे क्या" को आज 23.05.2021  को "नवभारत" के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया गया है जिसके लिए "नवभारत" का हार्दिक आभार 🙏
उसे क्या ?
      - डॉ शरद सिंह

बुझ गई 
सूरज की एक किरण
टूट गया एक तारा
बिखर गया एक घर

तो क्या?
मृत्यु है साश्वत
इसलिए बन जाओ दार्शनिक
और
मत पूछो कारण मृत्यु का 
मृत्यु टहलती है इनदिनों
अस्पतालों के आईसीयू वार्डों में
फेफड़ों से ऑक्सीजन सोखती हुई
प्राणरक्षक दवाओं को हराती हुई
जीने की उम्मीदों को तड़पाती हुई
उसे क्या
जो सिर्फ़ बची अकेली छोटी बहन
उसे क्या
जो सिर्फ़ बचे बूढ़े दादा और नन्हें पोते
उसे क्या
जो सिर्फ़ बचे अनाथ बच्चे
उसे क्या .....
क्या 'सिस्टम' से  मिलीभगत है उसकी भी?
सुना है किस्सा कि 
एक उलूक-दम्पत्ती ने धन्यवाद दिया था 
तैमूरलंग को 
कि वह जब तक है उजड़ते रहेंगे गांव
और बसते रहेंगे उलूकों के घर...
अब न युद्ध है और न तैमूरलंग
फिर भी मृत्यु ने फैला दिए हैं पंजे
गांवों तक
सुविधा नहीं, सुरक्षा नहीं, चिकित्सा नहीं
तो क्या?
मृत्यु को अच्छे लगते हैं शोकगीत
वह तो गाएगी, 
भले ही फट जाए धरती का कलेजा
उसे क्या....
       ------------------

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22 May, 2021

अंधेरा घिरने पर | कविता | डॉ शरद सिंह

अंधेरा घिरने पर
            - डॉ शरद सिंह

जब दुख बड़ा होता है
तो बौने हो जाते हैं शब्द
इतने बौने
कि नहीं पकड़ पाते हैं
दुख की उंगली
सीने पर हिमालय-सा बोझ
ओढ़ाने लगता है अवसाद की चादर 
आंसू धोने लगते हैं 
सुख के निशानों को
तब 
उठाने लगते हैं सिर अनेक प्रश्न -
जीना अब किसके लिए
जीना अब क्यों
क्यों भटकना एक अदद
फैमिली पेंशन के लिए
क्यों लगाना दफ़्तरों के चक्कर
क्यों विश्वास करना किसी घोषणा का
क्यों चुकाना टैक्स दुनियाभर के
क्यों उम्मीद करना कि कोई
पोंछेगा आंसू आकर
क्यों ख़्वाब देखना कि कोई
देगा साथ जीवन भर

जबकि
साया भी साथ छोड़ देता है 
अंधेरा घिरने पर।
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20 May, 2021

दस्तक | कविता | डॉ शरद सिंह

दस्तक
     - डॉ शरद सिंह
जब तक हम सोते रहेंगे 
तब तक बुरे ख़्वाब जागते रहेंगे
कब आएगा वक़्त
इरादों की फटी चादर सीने का
कहीं ये दस्तक उसी वक़्त की तो नहीं?
जो लाशों के ढेर से गुज़र कर 
आई है याद दिलाने
कि वे ज़िन्दा रह सकते थे
अगर रैलियां न होतीं
अगर कुंभ न होता
अगर समय पर जांच की कमी न होती
अगर बेड...
अगर ऑक्सीजन...
अगर डॉक्टर....
अगर अटेंडेंट....
अगर दवाओं की कालाबाज़ारी....
अगर नकली दवाएं....
अगर....अगर...अगर...
वे सब ज़िन्दा रहते 
यदि 'सिस्टम' में इतने 'अगर' न होते
तो तीन पर्तों में लिपट कर 
विदा न होते हमारे परिजन

तो ध्यान करना होगा एकाग्र
खोलने होंगे कान 
और सुननी होगी वह दस्तक
जो झुलस कर आ रही है
सामूहिक चिताओं से

कुछ ऐसे भी हैं-
जो जुटे हैं मानवता की सेवा में
जो कर रहे हैं विधान 
लावारिस कर दी गई 
आत्माओं की शांति के लिए
जो खिला रहे हैं भूखों को खाना
जो पोंछ रहे हैं आंसू बचे हुओं के
उठ खड़े होना होगा उनके साथ
आख़िर वे भी तो इंसान हैं
निर्भीक इंसान,
दस्तक यही तो कह रही है
जागें और ध्यान से सुनें
अपनी धड़कन
कि हम अभी ज़िन्दा हैं
कि देख सकते हैं बुरे ख़्वाबों के
अंधेरे से बाहर
तो क्यों न दें सबूत ख़ुद को
और जोड़ दे कड़ियां
दस्तकों की
हर खोखले 'सिस्टम' से परे।
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19 May, 2021

इतिहास में हम | कविता | डॉ शरद सिंह

इतिहास में हम
          - डॉ शरद सिंह

हम कोसते हैं हिटलर को
हम कोसते हैं मुसोलिनी को
हम कोसते हैं सद्दाम को
हम कोसते हैं उन सभी को जो
इतिहास में दर्ज़ हैं / होते जा रहे हैं
जनता विरोधी शासक के रूप में
क्यों नहीं खुल कर कोसते 
उनको भी
जो हैं हत्यारे मानवता के 
और बेचते हैं नकली इंग्जेक्शन
नकली दवाएं
नकली ऑक्सीजन
गिद्ध या हायेना से भी बदतर
नोंच-नोंच कर खाने वाले
जीवन की उम्मीदों को
नरभक्षी नहीं तो और क्या?

खुले चौराहे में संगसार होने लायक़
खुलेआम फांसी चढ़ा दिए जाने लायक़
कब तक छुपे रहेंगे
संगमरमर की दीवारों के पीछे
वक्त की लाठी तो पड़ेगी ही उन पर
एक दिन

काश! 
जनता की लाठी भी पड़ती उन पर
लम्बे कानूनी दांव पेंच से पहले
फिर हम जब इतिहास बनते
तो दर्ज़ न होते
एक आक्रोशहीन भीरु की तरह।
           -----------------

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18 May, 2021

अहसास | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अहसास
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अव्यवस्थाओं के अभ्यस्त हम
चुराने लगे हैं नज़रें
मौत की ख़बरों से

हम नहीं जानना चाहते
कि ख़ामी कहां है
हम नहीं जानना चाहते
कि दोषी कौन है
हम नहीं जानना चाहते
कि जिम्मेदार कौन है

हम वो बन चुके हैं
जो बिता देना चाहते हैं
'व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी' के परिसर में
अपना बचा हुआ जीवन

अब नहीं है
सच और झूठ के बीच महीन रेखा
अब है चौड़ी खाई
जिसे नहीं फलांग सकेंगे हम
हमारे पांव हो चुके हैं बौने
हाथ कंधों से ऊपर उठते ही नहीं
गरदन झुक चुकी है
और दिमाग़ हो चला है विचारशून्य
हमारी उंगलियों में तो तर्जनी ही नहीं है
ठीक वैसे ही
जैसे पूंछ का उपयोग न होने पर
हम मनुष्यों ने खो दी अपनी पूंछ
अब हम जीने के आदी हो चले हैं
बिना तर्जनी के,
अच्छा है
बना रहेगा सुरक्षित होने का भ्रम
और हम
अख़बारों में पढ़ते रहेंगे चुटकुले
छांट-छांट कर

परिस्थिति से पलायन
समा गया है हमारे रक्त में
बदल रहा है हमारा डीएनए
बदल रहा है हमारा जिनोम

तो क्या

ज़िन्दा रहने का अहसास
बचा तो है
यह क्या कम है....?
        -------------

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17 May, 2021

जो रह जाता है बचा | कविता | डॉ शरद सिंह


 रह जाता है बचा
                  - डॉ शरद सिंह

अनुभवों की नहीं होती है कोई सीमा
अकसर हम सोचते हैं
कि हमने देख लिए हैं -
दुख के सारे रंग
तभी टूट जाता है कुर्सी का पाया
निकल जाता है गाड़ी का पहिया
आ जाती है सामने से बेकाबू ट्रक
या पता चलता है
आखिरी स्टेज़ का कैंसर या कोरोना
वह भी खुद को नहीं
उसको जो प्रिय है खुद से भी ज़्यादा
वज़ूद को हिला देने वाला यह अनुभव
तोड़ देता है
पिछले सारे अनुभवों के रिकॉर्ड
टूट जाती हैं -
सारी आस्थाएं
सारी मान्यताएं
सारे विश्वास
मन हो जाता है नास्तिक
हो जाती है विरक्ति
फूल, दीपक, अगरबत्ती, धूप, हवन, आचमन से

व्यवस्था की ख़ामियों
राजनीतिक लिप्साओं
तमाम संवेदनहीनताओं
को कोसता, छटपटाता
उस हृदयाघाती अनुभव से गुज़र कर
जो रह जाता है बचा
वह
वह नहीं रहता
जो पहले हुआ करता था।
        -------------

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16 May, 2021

आंकड़ें कभी सांस नहीं लेते | कविता | डॉ शरद सिंह

आंकड़ें कभी सांस नहीं लेते
              - डॉ शरद सिंह
इन दिनों
सूखी हुई है
नदी नींद की

आंसुओं के साथ भाप बन चुका है
सारा पानी
स्वप्न पड़े हैं तलछठ में
कंंकड़, पत्थर और मृत घोंघों की तरह

रेत के कणों में
दब कर रह गई आकांक्षाएं
बुझ जाएंगी
किसी टूटे तारे की तरह
पृथ्वी घूमती रहेगी अपनी  धुरी पर
अमीर और अमीर
ग़रीब और ग़रीब होते रहेंगे
दस्तावेज़ों पर शर्णार्थियों की तरह
जुड़ जाएगा एक और कॉलम
कोरोना से हुए अनाथों का

और कुछ नहीं बदलेगा
कहीं भी
सिवा इसके कि
अनेक जीवित इंसान
बदल चुके होंगे
मृतकों के आंकड़ों में
न नाम, न पता, सिर्फ़ आंकड़ें

आंकड़ें कभी सांस नहीं लेते
और न ही देखते हैं स्वप्न।
         -------------

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15 May, 2021

काले दिन | कविता | डॉ शरद सिंह

काले दिन 
            - डॉ शरद सिंह

आपस में न मिल पाना भी
मार देता है संवेदनाओं को

साक्षात देखना
चेहरा पढ़ना
हाथ मिलाना
स्पर्श के खेतों में उपजी
आत्मीयता की फसल
पेट भर देती है दिलों के 

पर इन दिनों 
पसरता जा रहा है सन्नाटा
नहीं खुलते दरवाज़े 
नहीं खेलते बच्चे
कभी बालकनी तो कभी 
छत पर से
परस्पर
पूछना कुशलक्षेम
लगता है महज़
वीडियो-का्ंफ्रेंसिग तरह

अच्छे दिनों का सपना लिए
चले गए अनेक
अनन्त यात्रा में
बचे हुओं ने छोड़ दी है
अच्छे दिन की आस
हाथ लगे हैं
ब्लैक फंगल वाले काले दिन

अब तो संघर्ष है
सिर्फ़ बचे रहने का
उद्देश्य संकुचित हो चला है
जीवन का
और दूर हो चले हैं हम
परपीड़ा, परदुख से
बढ़ते हुए मौत के आंकड़ों के बीच
शोकसंवेदना के लिए भी 
न जा पाना
हमें कहीं कर न दे संवेदनाहीन
और लगाते रहें ठहाके बुरे दिन।
         ------------
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14 May, 2021

तुम्हारे बिना ईद | कविता | डॉ शरद सिंह

तुम्हारे बिना ईद
           - डॉ शरद सिंह

तुम होतीं
तो चांद दिखने की ख़बर पा कर
फोन करतीं शमीम आपा को, कहतीं-
"ईद मुबारक़"

सुब्ह होते ही 
छलकता उत्साह कि
आज चलना है ईद पर गले मिलने
सिवैंया खाने

देर तक माथापच्ची करतीं कि
क्या ले चलें उपहार
ये ठीक रहेगा
या वो ठीक रहेगा
दीदी, सच कहूं आंखें भर आती थीं
तुम्हारा आपा से बहनापा देख कर

आज तुम होतीं तो
भले ही घर से मनाते ईद
मगर मनाते ज़रूर और ख़ुश हो लेते

तुम्हारे बिना यह मीठी ईद
डूबी है आंसुओं के खारेपन में।
        -------------
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13 May, 2021

सोचा न था | कविता | डॉ शरद सिंह

सोचा न था
         - डॉ शरद सिंह

कभी सुबह ऐसी भी होगी
सोचा न था
तुम बिन सांसें लेनी होंगी
सोचा न था
आज भी छत पर फूल खिला है
गेंदे का
आज भी छत पर फूल खिला है   
गुड़हल का
आज भी श्यामा-तुलसी 
भीनी महक रही
आज भी छत पर गौरैया हैं
चहक रहीं
सिर्फ़ नहीं हो तुम
तो है सूनी पूरी छत
"बेटू", "बहना" सुनने को हैं
कान तरसते
वो धड़कन हैं कहां ? कि जिनमें
मेरे प्राण थे बसते
दुनिया भी मिल जाए 
पर जो नहीं हो तुम तो
नहीं शेष है मेरे हाथों में
अब कुछ भी

कोरोना बन सांप
तुम्हें डंस लेगा, दीदी
और बिछुड़ना होगा हमको
इतना ज़ल्दी
कभी अकेले जीना होगा
सोचा न था
कभी अकेले रहना होगा
सोचा न था।
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12 May, 2021

जो बचे हुए हैं | कविता | डॉ शरद सिंह

जो बचे हुए हैं
         - डॉ शरद सिंह

जीने की ज़द्दोज़हद में फंसे
जो बचे हुए हैं
उन्होंने झेली है पीड़ा
अपनों के बिछड़ने की
अभी झेलना है पीड़ाओं के नाना रूप

पीड़ा अपरिभाषित होने लगती है
जब हाथ में आता है
पीले रंग का
आयताकार क़ागज़
यानी
जिनकी मृत्यु पर विश्वास न हो रहा हो
उनका 'डेथ सर्टिफिकेट'
उंगलियां कांपती हैं
नाम पढ़ा नहीं जाता है
जागता है एक अफ़सोस
कि काश ! उस नाम की जगह 
मेरा नाम होता!
या फिर किसी का भी नहीं
न कोई आपदा होती
न ही अवसर
पीले क़ागज़ पर नाम लिखे जाने का।

पीड़ा तो अभी और बढ़ेगी
जब उस पीले क़ागज़ को लेकर
घूमना पड़ेगा दफ़्तरों में
ज़िन्दा बच जाने की सज़ा के बतौर।

पीड़ा तो अभी और बढ़ेगी
कलेजे को चीरती हुई
सॉ-मिल की आरे की तरह
दो फाड़ हो जाएगा हृदय
श्वेत पड़ने लगेंगी लाल रक्त कणिकाएं
फिर भी सांसें नहीं थमेंगी
अज्ञात अपराध की
ज्ञात सज़ा 
अभी भोगनी जो है
पीले क़ागज़ के काले अक्षरों के साथ
... ताज़िन्दगी।
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11 May, 2021

उसे क्या ? | कविता | डॉ शरद सिंह

उसे क्या ?
      - डॉ शरद सिंह

बुझ गई 
सूरज की एक किरण
टूट गया एक तारा
बिखर गया एक घर

तो क्या?
मृत्यु है साश्वत
इसलिए बन जाओ दार्शनिक
और
मत पूछो कारण मृत्यु का 
मृत्यु टहलती है इनदिनों
अस्पतालों के आईसीयू वार्डों में
फेफड़ों से ऑक्सीजन सोखती हुई
प्राणरक्षक दवाओं को हराती हुई
जीने की उम्मीदों को तड़पाती हुई
उसे क्या
जो सिर्फ़ बची अकेली छोटी बहन
उसे क्या
जो सिर्फ़ बचे बूढ़े दादा और नन्हें पोते
उसे क्या
जो सिर्फ़ बचे अनाथ बच्चे
उसे क्या .....
क्या 'सिस्टम' से  मिलीभगत है उसकी भी?
सुना है किस्सा कि 
एक उलूक-दम्पत्ती ने धन्यवाद दिया था 
तैमूरलंग को 
कि वह जब तक है उजड़ते रहेंगे गांव
और बसते रहेंगे उलूकों के घर...
अब न युद्ध है और न तैमूरलंग
फिर भी मृत्यु ने फैला दिए हैं पंजे
गांवों तक
सुविधा नहीं, सुरक्षा नहीं, चिकित्सा नहीं
तो क्या?
मृत्यु को अच्छे लगते हैं शोकगीत
वह तो गाएगी, 
भले ही फट जाए धरती का कलेजा
उसे क्या....
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10 May, 2021

आईसीयू में जूझते उत्तर | कविता | डॉ शरद सिंह

आईसीयू में जूझते उत्तर
            - डॉ शरद सिंह

एक बुद्धिजीवी ने प्रश्न उछाला-
"आखिर कब तक चलेगा
यह असंवेदनशील असंवैधानिक दौर ?
व्यवस्था फेल होकर नियति और  प्रारब्ध के रामभरोसे  
बेबस लाचारी का फायदा उठाते लोग..."

प्रश्न गंभीर था

इन दिनों गंभीर प्रश्नों पर ही तो
जी रहे हैं हम सभी
जिनके उत्तर 
छटपटा रहे हैं 
आईसीयू में 
हाईफ्लो ऑक्सीजन पर
जिनके उत्तर 
बाट जोहते हैं 
असली रेमडेसिविर इंजेक्शन का
जिनके उत्तर 
वेंटिलेटर तक भी नहीं पहुंच पाते हैं
जिनके उत्तर 
तीन पर्तों में लपेट कर
सौंप दिए जाते हैं अग्नि को

निरर्थक हैं ऐसे सारे प्रश्न तब तक
जब तक
हम में सामूहिक हौसला नहीं जागता
उत्तरों को 
आईसीयू से 
जीवित बचा लाने का,
निरर्थक हैं सारे प्रश्न।
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09 May, 2021

हम एक्सपेरीमेंटल चूहे | कविता | डॉ शरद सिंह |

 हम एक्सपेरीमेंटल चूहे
                 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इस मौत के तांडव में
कौन आएगा मदद को
कोई भी नहीं
डरे हुए नहीं करते मदद 
और डरे हुओं को नहीं मिलती है मदद
 ग़ाफ़िल रहते हुए इस सोच में-
कि कभी नहीं आएगी हमारी बारी।

सच तो ये है कि
हम खुद को लपेटते जा रहे हैं
अपने भ्रम और भय की अनेक पर्तों में
काल अट्टहास कर रहा है और हम...
हम माला जप रहे हैं
झूठी महानताओं की।

वह
जो बेड और ऑक्सीजन नहीं जुटा सका
वह 
जो प्राईवेट अस्पताल से ज़िंदगी नहीं ख़रीद सका
वह 
जो सरकारी अस्पताल में वेंटीलेटर नहीं पा सका
वह
जिसके हिस्से का जीवन रक्षक इंजेक्शन
बेच दिया गया
वह 
जो भर्ती कराने के बाद
दुबारा नहीं देख सका 
अपनी ज़िंदगी के हिस्से को

कथित 'सिस्टम'
और लाचार हम
एक ज़िंदगी
पर ग़म ही ग़म

बिना मंज़िल की दौड़
दौड़ते हुए
गोया हम बन गए हैं-
एक्सपेरीमेंटल चूहे
किसी बड़ी-सी प्रयोगशाला के।
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08 May, 2021

तीन पर्तों में देवता | कविता | डॉ शरद सिंह

तीन पर्तों में देवता 
             - डॉ शरद सिंह

हां, मुझसे छिन गया
मेरी ज़िंदगी का सुख, सौंदर्य, गर्व
और जीने का मक़सद  
जैसे हरे-भरे वृक्ष पर
चला दे कोई कुल्हाड़ी
और पथरा जाए वृक्ष
बिखर जाएं टूटी शाखाएं

हां, मुझसे छिन गया
विश्वास,
छिन गई आस्था
टूट गई देव प्रतिमा
हो गया दिया औंधा
बह गया तेल
बची हुई, बुझी हुई बाती को
तीन पर्तों में लपेट दिया है मैंने भी

अब कोई देवता
न करे मुझसे
प्रार्थना की उम्मीद

उसने भी नहीं सुनी थी मेरी याचिका
नहीं दी मुझे
मेरे अपनों के जीवन की भीख
अब उसे भी नहीं मिलेगा
कोई भी चढ़ावा
मुझसे

हां, मैंने लपेट दिया है
तीन पर्तों में
देवता को भी
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07 May, 2021

हमारा स्याह आज | कविता | डॉ शरद सिंह

हमारा स्याह आज
               - डॉ शरद सिंह

इतिहास के पन्नों से उतर कर
वर्तमान में गूंजता
नीरो की बांसुरी का स्वर
आशा और निराशा के बीच 
अपनों को बचा लेने का संघर्ष
तीन पर्तों में लिपटे शवों के ढेर
जलती चिताओं पर विधिविधान की ललक
गोया विधिविधान 
रुई के फ़ाहे की तरह
पोंछ देगा लहू में डूबे
दर्द के धब्बों को
चिताएं जल रही हैं
संघर्ष ज़ारी है धब्बे पोंछने का
नीरो की बांसुरी
छेड़ रही है राजनीतिक राग
और चल रही है-
लहर एक
लहर दो
लहर तीन....
लहरें गिन रहे डरे हुए लोग
रोम को जला कर 
नीरो की बांसुरी का स्वर
छीन रहा है 
हर दूसरे, तीसरे घर के
एक न एक सदस्य को
गोया इतिहास जागृत हो गया है
या हम तेजी से बनते जा रहे हैं इतिहास?
सच, यही तो है हमारा स्याह आज...
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03 May, 2021

कोरोना ने मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह को मुझसे छीन लिया....

आज  03.05.2021 को सुबह 02:00 बजे  कोरोना ने  मेरी दीदी Dr Varsha Singh को मुझसे छीन लिया....