Dr (Miss) Sharad Singh |
नवगीत
चैन है प्रवासी
- डाॅ सुश्री शरद सिंह
भीड़ में उदासी
ज़िन्दगी
बूंद-बूंद प्यासी।
धुंआ-धुंआ
उजियारा
कलछौंही लालटेन
उंगली की
पोर से
छूट गई पेन
नेह भी कपासी
ज़िन्दगी
हो गई धुंआ सी।
पोर-पोर
पैनापन
यादों के जाल में
तैर गया
चेहरा
नयन ताल में
देह भी रुंआसी
ज़िन्दगी
है गहन व्यथा सी।
द्वार-द्वार
टूट गए
शुभलाभी सातिए
भीत की
दीवार ने
असगुन रचा लिए
चैन है प्रवासी
ज़िन्दगी
रह गई ज़रा-सी।
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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)
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इन चंद लफ़्ज़ों में बड़ा दर्द छुपा है शरद जी ।
ReplyDeleteदिली शुक्रिया जितेन्द्र माथुर जी 🌹🙏🌹
Deleteधुंआ-धुंआ
ReplyDeleteउजियारा
कलछौंही लालटेन
उंगली की
पोर से
छूट गई पेन...
नेह भी कपासी
ज़िन्दगी
हो गई धुंआ सी।
अत्यंत मार्मिक व भावपूर्ण रचना।।।।।। आपकी लेखनी में एक निरंतरता व नैसर्गिक प्रवाह सा होता है, माँ सरस्वती की कृपा सदैव आप पर बनी रहे।
हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🌹🙏🌹
Deleteचैन है प्रवासी
ReplyDeleteज़िन्दगी
रह गई ज़रा-सी।..बिल्कुल सच.. इन दो पंक्तियों में पूरी कविता का मर्म छुपा है...
बहुत-बहुत धन्यवाद जिज्ञासा सिंह जी 🌹🙏🌹
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