धूप तले छांव
- डाॅ सुश्री शरद सिंह
उंगली में सुई
चुभ गई
पोर-पोर में हुआ खिंचाव
धूप तले छांव।
मोची का ठिया
ढिबरी-सा दिया
रात छुईमुई
हो गई
घर-आंगन काला घेराव
धूप तले छांव।
गेंदे की गंध
गजरे के बंध
फिर से अनछुई-
सी हुई
मंडी में बिकी बिना भाव
धूप तले छांव।
जीवन की शाम
कहे राम-राम
सूखी-सी रुई
उड़ गई
पांव-पांव अंधियारे गंाव
धूप तले छांव।
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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)
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