धूल की बस्ती
- डाॅ सुश्री शरद सिंह
बीत जाने के लिए
दिन चले आए
सुबह से रीत जाने के लिए।
धूल की बस्ती
घने पांव उगाए
एक वन
ताश के पत्ते
गिनो हर ओर से
बावन
गिन नहीं पाए
सभी से जीत जाने के लिए।
देह कांखों में
छुपाए नाम की
गठरी
रात जैसे हो गई
है दर्द की
चारी
छिन गए साए
कि आए मीत जाने के लिए।
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(मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ से)
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी 🌹🙏🌹
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteअनुराधा चौहान जी हार्दिक धन्यवाद 🌹🙏🌹
Deleteरवीन्द्र सिंह जी,
ReplyDeleteचर्चा मंच में मेरे नवगीत को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏
चर्चा मंच में स्थान मिलना सदा सुखद अनुभूति देता है। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका 🙏
- डॉ शरद सिंह
खूबसूरत अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जिज्ञासा जी 🌹🙏🌹
Deleteवाह !
ReplyDeleteदिली शुक्रिया गगन शर्मा जी 🌹🙏🌹
Deleteखूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मीना भारद्वाज जी 🌹🙏🌹
Deleteसुंदर गीत के लिए बधाई शरद जी !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार कल्पना मनोरमा जी 🌹🙏🌹
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शान्तनु सान्याल जी 🌹🙏🌹
Deleteछिन गए साए
ReplyDeleteकि आए मीत जाने के लिए।
बहुत बहुत सुन्दर सृजन
आलोक सिन्हा जी हार्दिक धन्यवाद 🌹🙏🌹
Deleteबहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत धन्यवाद अनीता सैनी जी 🌹🙏🌹
Deleteसुंदर भाव रचना ।
ReplyDeleteछोटे में कितना कुछ कहती कहीं गहरे उतरती।
अभिनव सृजन शरद जी।
इस अमूल्य टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी 🌹🙏🌹
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