19 June, 2025

कविता | प्रेम की पराकाष्ठा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम की पराकाष्ठा
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आंखों सामने
वृहद भीड़
परस्पर बातों का कोलाहल
ध्वनियां... ध्वनियां... 
असंख्य ध्वनियां... 
निरंतर कानों के
पर्दों से टकरातीं
मानो
हहराते समुद्र की
तूफानी लहरें
टकरा रही हों
तट की कृत्रिम
चट्टानों से

या
एक झरना 
गिर रहा हो
सैंकड़ों फीट की
ऊंचाई से
झरझराता हुआ
शोर की सप्तधाराओं को
उपजाता हुआ

तेजगति हवाएं
बजाती हों सीटियां
अरण्य से हो कर
अट्टालिकाओं तक
छू कर निकलती हों
गरदन की
नाज़ुक शिराओं को

फिर भी
प्रतीत हो ऐसा
कि विचरण कर रहा है मन
अंतरिक्ष की
ध्वनि-शून्यता में
तो समझो,
प्रेम की पराकाष्ठा 
पर जा पहुंचीं हैं
अव्यक्त भावनाएं।
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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18 June, 2025

कविता | पुराना गोपन प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता 
पुराना गोपन प्रेम
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

आलमारी के 
सबसे ऊपरी तल्ले में 
रखे कीमती
पर न पहने जाने वाले
कपड़ों में
कभी-कभी 
जरूरी हो जाता है
फिनायल की 
गोलियां रखना
नहीं तो 
बंद अलमारी की सीलन
अपने पांव फैला लेती है 
कपड़ों की तहों में

उन तहों के बीच 
 कुछ यादें 
मिल जाती हैं अचानक
भीग जाता है मन
छूते ही 
पुराने रुमाल में लिपटे 
कागज की तहों में
कुछ रूमानी शब्दों को
 जो है अब बेमानी

गोया खुद ही छुप गया हो 
कपड़ों की तहों के बीच
अतीत की गर्माहट
सियाही की सरसराहट लिए
एक किताब में दबने से
आई हुई मोड़ों में
वर्षों से रह रहा है  
सब की दृष्टि से छुप कर 
पुराना गोपन प्रेम
इसीलिए तो आज तक  
फाड़ा नहीं जा सका
निर्जीव-सा किंतु स्पंदित
वह कागज का टुकड़ा

विषाक्त फिनायल की 
गोलियों के साथ
दिन, सप्ताह, वर्ष
व्यतीत करते हुए 
जीवित है आज भी
क्योंकि 
प्रेम कभी मरता 
जीता रहता है 
नितांत गोपनीयता के साथ
व्यक्ति की अंतिम सांस तक।
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कविता | इतराता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इतराता है प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

होती है अनेक
औचित्यहीन चेष्टाएं
कभी चिटकनी खोलना 
कभी टिक जाना 
दरवाजे से
और फिर अचानक 
दरवाजा लगाकर 
चिटकनी चढ़ा देना

यूं ही 
महसूस करना 
कि कोई सामने है
बालों को संवारना 
होठों पर 
मुस्कुराहट की 
रेखा का दौड़ जाना

यही तो है 
जागते स्वप्न का है 
लालित्य
जो अदृश्य को भी 
दृश्य में ढाल कर
खेलता है 
चेतना के अवचेतन से

और ठीक उसी समय 
इतराता है प्रेम 
अपनी अनंत, असीम
सम्मोहन शक्ति पर।      
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17 June, 2025

कविता | भोर का प्रेम | (सुश्री) शरद सिंह

भोर का प्रेम 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पक्षियों के कलरव से
जागती भोर
तोड़ती है
सूरज की अंगड़ाइयों को
गति पकड़ने लगती है
हवा भी

घरों के भीतर
खनखना उठते हैं बरतन
जल उठते हैं चूल्हे
पतीलियों में उबलती 
शक्कर, चायपत्ती
दूध और इलायची के संग
चाय छनती है
भाप उठती 
हो जाता है शुरू
कोलाहल

ठीक उसी समय
आता है प्रेम चाय में 
घुलकर
जहां मुस्कुरा कर 
परस्पर
एक-दूसरे को
थमाया जाता है प्याला
पारिवारिक भीड़ के बीच
प्याले को थामती हुई उंगलियां
चुपके से दबा देती हैं 
दूसरे की उंगलियों को
कौंध जाती है बिजली सी
दोनों की देह में
प्रेम मुस्कुराता है 
शालीनता से

किसी एक घर में
प्रेम और अधिक 
मुखर हो जाता है
और चाय से भी पहले 
शयनकक्ष में प्रवेश कर 
बालों को सहलाता है
माथे पर 
कुनकुनी धूप के 
एक गहरे चुंबन के साथ
जागता है

सो, भोर होते ही
जीवन में 
समाने लगता है प्रेम 
अपनी पूरी 
विविधता के साथ

बस, कोई उसे 
महसूस कर पाता है 
और कोई नहीं।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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15 June, 2025

कविता | प्रेम का धर्म | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम का धर्म
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

किसने कहा कि 
प्रेम / नास्तिक है

निराकार और साकार 
दोनों है प्रेम
लौकिक और अलौकिक
दोनों है प्रेम

प्रेम जीव है 
और आत्मा भी 
प्रेम जब गाढ़ा हो जाए
तो परमात्मा भी

प्रेम नैमिषारण्य का 
चक्र कुंड है
महेश्वर  का 
दीपस्तम्भ भी

प्रेम कृष्ण की 
बांसुरी है
तो राधा का 
विश्वास भी

प्रेम अनिल है 
अनल है, अनंत है
रीझी हुई पृथ्वी पर
स्वस्ति चिन्ह है

जो भी पवित्र है 
वह आस्तिक है
और प्रेम से बढ़कर 
पवित्र और ब्रह्म 
कुछ भी नहीं

प्रेम सभी धर्मों में 
समाकर भी धर्म से परे
है एक मौलिक धर्म 
जो बना देता है 
घोर आस्तिक

इसीलिए
प्रेम में डूबा व्यक्ति 
निबाहता है 
हर समय 
प्रेम-धर्म
अविरल, अनवरत
अनंत की अभिलाषा में।        
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वे थे मेरे पिता, याद आती है उनकी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | Father's Day 2025

बचपन में ही छूट गई थी उंगली जिनकी 
वे  थे  मेरे  पिता, याद   आती है उनकी 
धुंधली-सी स्मृतियां ही हैं अब तो बाकी 
सदा कमी पाई  अपने जीवन में उनकी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#FathersDay2025 ... 
जब मैं मात्र 2 वर्ष की थी, तब मेरे पिताजी श्री रामधारी सिंह जी का निधन हो गया था... मुझे उनके स्पर्श का... उनके स्नेह  का स्मरण भी नहीं है... बस, मां बताया करती थीं कि वे हम दोनों बहनों को बहुत प्यार करते थे....

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14 June, 2025

कविता | प्रेम होने दो अभिव्यक्त | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेमकविता :
प्रेम होने दो अभिव्यक्त 
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

उसने कहा
उससे -
मुझे मत बताओ
कि
तुम्हें प्रेम है मुझसे
क्योंकि प्रेम
सदियों से
दुहराए जाते 
शब्दों से नहीं,
वह तो
व्यक्त होता है
अनुभूति की
राग-रागिनियों से
लय, माधुर्य
आरोह-अवरोह से,
प्रेम होने दो अभिव्यक्त 
भंगिमाओं के 
अलौकिक
पवित्र 
संगीत से
होने दो ध्वनित 
सांसों के तार-वाद्यों को
किसी कंदरा से लौटते
स्वर समूह की तरह
शब्दों के बिना
शब्दशः।     
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13 June, 2025

कविता | प्रेम में मगन धरती | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम में मगन धरती 
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शब्द खो देते हैं
जब अपनी ध्वनियां
ठीक वहीं से 
शुरु होता है
अंतर्मन का कोलाहल
और गूंज उठता है
प्रेम का अनहद नाद
बहने लगता है
अनुभूतियों का लावा
धमनियों में
रक्त की तरह,
हलचल कर उठती हैं
धड़कनों की
टेक्टोनिक प्लेट्स
भूकंप आता है
हृदय की गहराइयों में
लेकिन
दरार आती है
परदृष्टियों की 
उथली सतह पर
किंतु प्रेम में मगन धरती 
डोलती रहती है 
अपनी ही धुन में।
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12 June, 2025

कविता | प्रेमाभिव्यक्ति | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


प्रेमाभिव्यक्ति
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

चौंकता है मन
ठिठकता है
हो जाता है कभी
अवाक भी
लगते हैं शब्द भी
निर्लज्ज
मानो 
बिना समझे भावना को
उंडेल दिया हो
किसी ने
अपनी अभिलाषा का
बेमेल रंग

कभी-कभी
शब्द भी 
हल्का कर देते हैं
प्रेम को
बना देते हैं सतही
इसीलिए
मौन ही 
उचित अभिव्यक्ति 
होती है
प्रेम की
कभी-कभी।        
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11 June, 2025

कविता | प्रेम एकाकी मन के लिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम एकाकी मन के लिए
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

चिलचिलाती धूप में
सूखते गले को
मिल जाए जैसे
एक मुट्ठी छांह
और
एक घूंट पानी

बारिश की बाढ़
और 
गहरी सीलन में
चमके धूप की
कुनकुनी किरण

कड़कड़ाती ठंड में
फुटपाथ पर 
कांपती, ठिठुरती
देह को
कोई ओढ़ा दे कंबल

सूनी रसोई औ
छूंछे डिब्बों में
मिल जाएं
कटोरी भर आटा

तो फिर से
जाग उठता है 
विश्वास 
जीवन के प्रति
ठीक ऐसा ही तो होता है
प्रेम
एकाकी मन के लिए।     
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10 June, 2025

कविता | सिसकता है प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

सिसकता है प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

पार्क के 
सूने कोने में
बैठे-बैठे
बेंच से झुक कर
उसने उठाया
एक सूखा पत्ता
अनायास
निरुद्देश्य
बड़ी बारीकी से
देखा उसे
उलट-पलट कर
कौंधा-
यह भी किसी डाल पर
रहा होगा
किसी का प्रेम

हाथ कांपा 
गिर गया पत्ता
उंगलियों से सरकता हुआ

कहते हैं प्रेम में
हरियाता हैं जीवन
एक पत्ते की तरह
मुरझाता है
एक पत्ते की तरह

डाल पर होने की खुशी 
और बिछड़ने का ग़म
वही जानता है 
जो छूट जाता है, 
वह नहीं जो छोड़ जाता है

क्या पता है? 
एक पार्क के सूने कोने में 
बेरंग पुरानी बेंच
पर बैठा प्रेम सिसकता है 
आज भी
शायद इसीलिए
सबसे ज्यादा पत्ते
गिरते हैं सूख कर
उसी कोने में।
        - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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09 June, 2025

कविता | एक प्रेम कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

एक प्रेम कविता 
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अच्छे लगते हैं 
मावसी अंधेरे में 
आसमान में टिमटिमाते तारे
जैसी काले क़ाग़ज पर 
चमकीली-सफेद स्याही से 
लिख दी गई हो 
एक प्रेम कविता
जिसे पढ़ नहीं सकते
न चांद, न सूरज
न धरती पर
वृक्ष की छांह में रेंगते
निशाचर कीड़े
न गहरी नींद मेरी में सोते
संदेहाकुल लोग
इसे पढ़ सकते हैं सिर्फ़ वे ही
जो जागते हैं
अपनी-अपनी छत पर 
या खिड़की से झांकते 
या फिर 
दहलान में टहलते
प्रेम में डूबे हुए 
पर अकेले 
किसी की स्मृतियों को 
अपने सीने से लगाए
हां, पढ़ सकते हैं वे ही।          
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07 June, 2025

कविता | प्रेम का पुष्प | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम का पुष्प
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कभी देखा है
हथेली पर खिला हुआ 
ताज़ा, सुगंधित पुष्प?
नहीं न!
सदा नहीं भीगती 
हथेली
सदा नहीं खिलता 
पुष्प
किसी-किसी की 
हथेली
रह जाती है 
पुष्प बिना
जिसमें होती ही नहीं
प्रेम की लकीर
यद्यपि
प्रेम को लकीर नहीं
भावना चाहिए
हथेली पर पुष्प 
खिलाने के लिए।        
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06 June, 2025

कविता | अर्द्धरात्रि का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का प्रेम
    - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अर्द्ध रात्रि का 
एकांगी प्रेम
ठीक वैसा ही
होता है जैसे 
अर्द्ध रात्रि का चंद्रमा
किसी फकीर की तरह
चलता चला जाता है 
अपनी ही राह पर
अपनी ही धुन में
चाहे उसमें कोई 
कलंक देखे या 
देखे चांदी-सी चमक
चाहे उसमें कोई 
गोल रोटी देखे या देखे 
चरखा चलाती औरत
पर खुद चंद्रमा
कुछ नहीं देखता 
कुछ नहीं सोचता
चलता रहता है 
सम्मोहित-सा
अपने ही 
खण्डित स्वप्न के पीछे
भोर तक।
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04 June, 2025

कविता | विशुद्ध प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

विशुद्ध प्रेम
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भावनाओं की नौका
पर सवार
विश्वास की पतवार
को थाम कर
विरोध की असंख्य 
जलधाराओं को
पार कर
निज को छोड़ कर पीछे
समर्पण और
परवाह की पूंजी लिए
जहां पहुंचता है 
एक केवट-हृदय
वही तो तट है
विशुद्ध प्रेम का।
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03 June, 2025

कविता | अंधेरा प्रेम का | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अंधेरा प्रेम का
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अंधेरा स्पर्श को जीता है
दृश्य को नहीं
दृश्य का पहाड़ा
पढ़ती हुई दुनिया
उलझी रहती है विवादों में
आंख मूंद कर
हासिल किए गए
अंधेरे से
जाग उठती है कुण्डलिनी
बिना किसी बीजमंत्र के
मिट जाते हैं सारे 
मानसिक क्लेश 
और विवाद
यदि वह 
पवित्र अंधेरा हो
योग का, ध्यान का
या प्रेम का
एक अलौकिक स्पर्श की भांति।
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02 June, 2025

कविता | प्रेम ने छुआ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम ने छुआ 
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दृष्टि बदल जाए
अर्थात / दृष्टिकोण ही
सब कुछ देखने का
निविड़ अंधकार में
दिखे दीपक की लौ
जेठ की तपती दुपहरी में
छाया मिले
सजल बादल की
और
बिना बारिश
उगे इन्द्रधनुष
ठिठुरते जाड़े में
सुलगे अदृश्य अलाव
बुरा न लगे
किसी भी बात का
तो समझो कि
प्रेम ने छुआ है
हौले से
कांधे को।
यही तो लगा होगा
शकुंतला और दुष्यंत
सस्सी और पुन्नू को भी।           
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01 June, 2025

कविता | बिना प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बिना प्रेम
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह   

अगले पल के 
भविष्य को भी
जान लेना चाहता
हर कोई
क्या होगा
परीक्षा का रिजल्ट
पैकेज मिलेगा या नहीं
घर बसेगा या नहीं
मकान बनेगा या नहीं
पर 
कोई नहीं पढ़वाता
हथेली की लकीरों में प्रेम
और न पूछता है
भाग्य बांचने वाले
मिट्ठू से
प्रेम की संभावना,
जबकि बिना प्रेम
निरर्थक ही तो हैं
बाकी सब
यहां तक कि
ये दुनिया और
लंबी आयु भी।
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31 May, 2025

कविता | प्रेम में हो कर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम में हो कर
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हरिद्वार के गंगातट पर
दोने में रख कर
धारा को 
अर्पित किए गए 
दीप की थरथराती
आंखों से
दूर जाती
लौ की भांति
ख़ुद से ही दूर जाता
मन
प्रेम के शिवत्व
और सुंदरता की
आकांक्षा में
डूबता, उतराता 
बहता रहता है
अनन्त की ओर
इस सत्य से मुंह फेर कर
कि कोई भी धारा
दोने को छीन
तेल को बिखेर
दीप को पलट
बुझा सकती है लौ...
भला, कौन सोचता है
प्रेम में हो कर इतना सब!       
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कविता | अमावस में लिखा गया प्रेमपत्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अमावस में लिखा गया प्रेम पत्र
  - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रात की स्याही से
लिखा गया / प्रेम पत्र
पढ़ा आकाशगंगा ने 
पढ़ा सप्त ऋषियों ने 
पढ़ लिया
ध्रुव तारे ने भी
अपने हाथों में लेकर
मंगल, बुध, बृहस्पति
सभी ने
हां, उन सभी ने
पढ़ा,
नहीं था जिनके लिए
वह पत्र
बस, उसी ने नहीं पढ़ा
लिखा था जिसके लिए
दोष किसी का नहीं
महज भूल थी 
पत्र लिखने वाले की...
तुम्हीं कहो,
क्या आमावस में
चांद कभी आता है आकाश में?
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29 May, 2025

पुस्तक समीक्षा | सांची कै रए सुनो, रामधई | बुंदेली गजलों में समसामयिक समस्याओं का विमर्श | समीक्षक-डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

छंदबद्ध काव्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर एवं "गीत ऋषि" की उपाधि से विख्यात डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी द्वारा मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई" की समीक्षा जो दैनिक "आचरण" में प्रकाशित हुई, साभार यहां साझा कर रही हूं....
     इतनी सुंदर सारगर्भित समीक्षा कर मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए आदरणीय डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी का हार्दिक आभार🌹🙏🌹
-------------------
पुस्तक समीक्षा
सांची कै रए सुनो, रामधई!
बुंदेली गजलों में समसामयिक समस्याओं का विमर्श
   समीक्षक-डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया 
.........
बुंदेली गज़ल संग्रह- सांची कै रए सुनो, रामधई!
कवयित्री--डॉ (सुश्री)शरद सिंह 
प्रकाशक --जे. टी. एस. प्रकाशन
बी-508 गली नंबर 17विजय पार्क दिल्ली 10053
मूल्य --150 रूपये 

     देश में स्त्री विमर्श की प्रथम पंक्ति में समादृत  उपन्यासकार, कथा लेखिका, 60 से अधिक पुस्तकों की यशस्वी रचनाकार परम विदुषी डॉ (सुश्री) शरद सिंह जी का  बुंदेली गजल संग्रह-*सांची कै रए सुनो, रामधई!* पाठकों के लिए  साहित्याकाश पर चमकते  देदीप्यमान नक्षत्र जैसा आनंद दायक है। इसके पूर्व डॉ शरद सिंह जी के अनेक बुंदेली संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें, *बुंदेली लोक कथाएँ*, बुंदेली में नियमित स्तंभ लेखन, बुंदेली में कथा संग्रह *राख तरें के अंगरा* प्रमुख हैं, अंग्रेजी भाषा में भी आपके ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ सुश्री शरद सिंह, हिंदी,अंग्रेजी बुंदेली भाषाओं की श्रेष्ठ साधिका हैं।
अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत डॉ शरद सिंह को शताधिक पुस्तकों की समीक्षा लिखने का गौरव भी  प्राप्त है।
बुंदेली भाषा प्राकृत-शौरसैनी एवं संस्कृत से पैदा हुई है अतः हम कह सकते हैं की बुंदेली का जन्म उच्च कुल में हुआ है, 10 वीं शताब्दी के चंदेल वंश से लेकर बुंदेला वंश तक बुंदेली का बेहद विस्तार हुआ है। बाल्मीकि रामायण में भी बुंदेलखंड के व्यापार, रहन- सहन, खानपान, आदि का उल्लेख मिलता है।
डॉ सुश्री शरद सिंह ने साहित्य की एक समृद्ध परंपरा को विस्तार देते हुए बुंदेली गजल  *सांची कै रए सुनो, रामधई!* का सृजन कर अपनी रागात्मक सरोकार का परिचय दिया है। जब गज़ल ने अरबी भाषा में जन्म लिया तो इसे औरतों की बातचीत कहा गया, चूंकि इसमें दैहिक प्रेम अधिक होता था अतः इसे इश्के-मिज़ाजी कहा गया  जब इसे फ़ारसी ने स्वीकार किया तो ग़ज़ल आध्यात्म से जुड़कर इश्के- मिजाज़ी से इश्के-हकीकी हो गई।
उर्दू में आने के बाद गज़ल का भारतीयकरण हो गया और इसके तेवर बदलते गए- निराला, बलवीर सिंह रंग, जानकी वल्लभ शास्त्री एवं दुष्यंत कुमार ने गजल की दशा और दिशा को नया मोड़ दिया, अब यह गजल महफ़िलों से निकल कर आम आदमी के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी, इस आहट को सामाजिक सरोकारों की कवयित्री डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने न केवल सुना वरन उसे गुना भी और उसे बड़ी शालीनता से लोक भाषा बुंदेली में लोक- बिंबों के साथ बुंदेली गजल  *सांची कै रए सुनो, रामधई!* में उतार दिया।
 संग्रह की शीर्षक ग़ज़ल इस रत्नाकर के अनमोल मोती की तरह चमकदार है --
*सांची कै रए सुनो रामधई।पीरा हमरी गुनो रामधई।*
*जो तुम हमको भलो चात हो, हमरे काँटे चुनो रामधई।*
इस ग़ज़ल में समाज के गहन दर्द को अत्यंत सहजता से व्यक्त करने में डॉ सुश्री शरद जी सफल रहीं हैं.
आपके पास भाव,भाषा एवं कथ्य की विविधता का असीम कोष है और इस संग्रह को पढ़ते हुए हम ग़ज़ल के फलक पर शब्दों का मनमोहक इंद्रधनुष देखते हैं.
उर्दू ग़ज़ल में क़ाफ़िया, रदीफ़ और बहर के अनुशासन का पालन किया जाना अनिवार्य होता है,
*सांची कै रए सुनो रामधई!* ग़ज़ल संग्रह में डॉ शरद सिंह जी कहीं भी ग़ज़ल विधान से ख़ारिज नहीं हुईं हैं. आपकी गज़लों में आपके ज्ञान, अनुभव एवं सामाजिक संवेदनशीलता की त्रिवेणी है जिसमें अवगाहन कर पाठक निश्चित ही धन्य-धन्य हो जाएगा ऐसा मेरा विश्वास है।
बुंदेलखंड में मुहावरों को जिन्हें कैनात कहते हैं का प्रयोग बहुतायत से होता है, डॉ शरद सिंह ने इस ग़ज़ल संग्रह में अनेक कैनातों का प्रयोग किया है,---
*दोरे टूटे खुलीं किवारियाँ।*
*लाज बचावें कैसें तिरियाँ।*
*शरद सबई गुंतारे छोड़ो, बैठो जाकें नेचें बरियाँ।*
इस ग़ज़ल को इस दौर में नारी अस्मिता की चिंता की प्रतिनिधि ग़ज़ल कहा जा सकता है।
 ऐसा नहीं है कि डॉ शरद सिंह की दृष्टि शहर, गाँव और आम आदमी के इर्द- गिर्द ही घूमती है उनके चिंतन के आयाम अनंत तक जाते हैं, बुंदेलखंड के जंगलों में पैदा होने वाले वे फल जो कुछ समय पूर्व तक बुंदेलखंड के हाट-बाज़ारों, मेलों-ठेलों की शान और आकर्षण के केंद्र हुआ करते थे अब जंगल  कटने से  विलुप्त होते जा रहे हैं, जिसकी पीड़ा को बखूबी ग़ज़ल में उठाया गया है,पर्यावरण के प्रति आपकी अन्वेषणात्मक दृष्टि में  चिंता एवं चिंतन का व्यापक असर दिखता है---
*चार चिरोंजी तेंदू कभरई सबई बिकत्ते।*
*बिरचुन बेरी घड़ियाघुल्ला सोई रहत्ते।*
ग्रामीण जीवन में शृंगार के जेवरों/साधनों को डॉ शरद जी ने जिस बारीकी से ग़ज़ल में पिरोया है वैसा प्रयोग इसके पूर्व मैंने कहीं नहीं पढ़ा है --
*गिलट के बूंदा, कंठी संगे बिकत तीं चुरियां,*
*पाँव पायलें लच्छा सोई हाट आउत्ते।*
लोक संस्कृति के पुनर्जागरण की इस ग़ज़ल में लोक की धड़कन स्पंदित हो रही है।
बुंदेलखंड के त्यौहारों में भाईचारे, एकता, सौहार्द एवं आनंद के अनुपम रंग दिखते हैं जिन्हें डॉ शरद सिंह ने बहुत प्यारे ढंग से ग़ज़ल में उकेरा है ---
*होली राखी नवराते औ मने दिवारी,*
*त्यौहारन पे कछू जने तो स्वांग रचत्ते।*
बुंदेलखंड में स्वांग बनाकर पुरुष एवं महिलाएँ   त्यौहारों या फिर विवाह आदि के  आनंद क्षणों को बहुगुणित का देते हैं यह आनंद की पराकाष्ठा है जिसे शब्दों में डॉ शरद सिंह जी ने मुखर कर दिया है।
         ग्रामीण जीवन के खेल बिलकुल अलग होते थे जो अब नई सभ्यता ने निगल लिए हैं, लोक की इस विडंबना को डॉ शरद जी ने बहुत संजीदगी से ग़ज़ल में अभिव्यक्त किया है --
*खेल चपेटा खिपड़ी गट्टा कंचा गुल्ली,*
*अकती पे गुड्डा-गुड़िया के खेल रचत्ते।*
*शरद भुलाए कबऊ ने भूलेंगे वे दिन,*
*सबई उपत कें इक दूजे के गले मिलत्ते।*
डॉ शरद जी की इस ग़ज़ल ने बुंदेलखंड के संपूर्ण सांस्कृतिक वैभव के दर्शन करा दिए।मैं अपने गाँव की भूली बिसरी गलियों से होकर अपने बचपन को फिर से जी आया, मैं डॉ शरद सिंह जी की सारस्वत् प्रज्ञा को नमन करता हूँ आपके भाव भाषा की संप्रेणीयता अद्भुत है आपके चमत्कारिक सृजन ने अंतर्मन को भिगो दिया, साधुवाद।

चूँकि डॉ शरद सिंह का जन्म बुंदेलखंड में हुआ और आपका कर्मक्षेत्र भी बुंदेलखंड रहा है अतः हम कह सकते हैं  आपकी लेखनी में बुंदेली माटी की सुगंध महकती है,राजनैतिक एवं समाजिक क्षेत्र में चाटुकारिता एक लोक लुभावन खेल की तरह लोकप्रिय हो रही है सत्ताधारी भी चाहते हैं कि आमजन आँख बंदकर उनकी जय- जयकार करते रहें डॉ शरद सिंह ने एक बुंदेली घरेलू खेल के माध्यम से इसे बखूबी ग़ज़ल में व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है --

*अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो, औ अस्सी नब्बे पूरे सौ।*
*कुर्सी वाले जेई चाउत, आंख मीच के बोलो हौ।।*
डॉ शरद सिंह कहती हैं कि सत्ता की हाँ में हाँ मिलाना बहुत पुराना खेल है हर युग में यह अलग- अलग ढंग से खेला जाता रहा है-
*जे सो खेल पुरानो ठेरो,*
*ईमे कौन नओ किस्सा,*
*कौन सो ठेका कीको मिलहे,* 
*इन्ने-उन्ने तै कर लऔ।*.
        डॉ शरद सिंह बिना लाग-लपेट के खरी- खरी बात कहने की पक्षधर हैं।
एक लोकोक्ति को बड़ी चतुराई से डॉ शरद सिंह ने ग़ज़ल में सँवारा है,--
*घोर-घोर रानी, कित्तो-कित्तो पानी।*
*राजा भओ चतुरा, पब्लिक भइ सयानी।*.
लोकतंत्र ने राजा को चतुर और जनता को समझदार बना दिया है दोनों अपने -अपने तरीके से देश को चला रहे  हैं,  समय के कड़वे सच को कहने का हौसला डॉ शरद सिंह की लेखनी में  है.
समाजिक सरोकारों की सिद्ध रचनाधर्मिता डॉ शरद सिंह की गजलों को धारदार बनाती है, समाज की चिंता से वह गहरे तक जुड़ी होतीं हैं,चाहे वह विषय व्यक्तियों से जुड़ा हो, पर्यावरण से जुड़ा हो या मूक पशुओं की अव्यक्त पीड़ा से जुड़ा हो आपने पूरी गंभीरता एवं संवेदनशीलता से उसे गजलों में पिरोया है, पॉलीथिन(पन्नी) के प्रयोग से होने वाले प्रदूषण एवं मूक पशुओं की मौतों की ज्वलंत समस्या को आपने मार्मिकता के साथ ग़ज़ल में मुखर किया है--
*घरे भीतरे पानी घुस गओ, नरदा पुर गए पन्नी से।*
*गली,मोहल्ला,कुनिया- कतरा सबरे भर गए पन्नी से।*
*कचड़ा में मैकी जो पन्नी खाबे वारी चीजों संग,*
*गैया-गरुआ ढोर हरें बी, खा के मर गए पन्नी से।।*
सामाजिक चेतना को झकझोरने वाला ऐसा  ह्रदयस्पर्शी चिंतन श्लाघनीय है।

बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*की प्रत्येक ग़ज़ल एक संपूर्ण विस्तृत समीक्षा की अधिकारिणी है जितनी बार इस संग्रह की अथाह गहराई में उतरो उतनी बार अर्थबोध का नया रत्न हाथ में आता है।
 गजल संग्रह में भाषा की विविधता देखने मिलती है, कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए सामान्य बोलचाल में प्रचलित बुंदेली शब्दों के साथ ख़डी बोली, अवधी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी के शब्दों को  भी सहजता के साथ स्वीकार किया गया है और ये शब्द स्थान विशेष पर सर्वाधिक उपयुक्त भी हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ शरद सिंह जी एक श्रेष्ठ भाषाविद भी हैं।

  बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*का समापन डॉ शरद जी ने जीवन की नश्वरता के शाश्वत सत्य की आत्मस्वीकृति के साथ किया है यह गज़ल इस संग्रह के शिखर के कलश की वह स्वर्णिम आभा है जो बुंदेली साहित्य जगत को दूर-दूर तक आलोकित करेगी--

*अमरौती खा ने आओ, कोउ इते को राने।*
*पिंजरा के पंछी खों भैया, एक दिना उड़ जाने।*
*जे जो महल अटारी ठेरी,नें जे प्रान बचेंहें,*
*समै तमंचा चले शरद जब, चूकत कोन निसाने।।*
वेद पुराणों उपनिषदों में वर्णित जीवन के अटल एवं जटिल सत्य को इतनी सहजता से लिख देना डॉ शरद सिंह जी की लेखनी का ही कमाल हो सकता है, निःसंदेह  आपके पास अभिव्यक्ति की विलक्षण कला है।
मुझे विश्वास है की आपके पूर्व प्रकाशित ग्रंथों की तरह यह बुंदेली ग़ज़ल संग्रह  *सांची कै रए सुनो रामधई!* साहित्य जगत में  आपकी कीर्ति पताका को नई ऊचाईयों तक ले जाएगा।
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28 May, 2025

कविता | वह नहीं कर सकता प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वह नहीं कर सकता प्रेम      
            - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जो आसमान में चमकते 
तारों को नहीं देखता
जो चांद को घटते-बढ़ते 
महसूस नहीं करता
जो शीतल हवा में 
पत्तों के डोलने 
या आंधी में 
पूरे पेड़ के 
हिल जाने को 
नहीं देख पाता 
जो कभी नहीं सुनता 
चिड़ियों की आवाज़ें
जल धाराओं की ध्वनियां
जिसकी दृष्टि से परे है
फूल का खिलना या 
तितली का पंख फैलाना
जो नहीं समझ पाता
खेत और मेहनत 
रोटी और भूख का समीकरण
वह नहीं कर सकता 
कभी भी, किसी से भी,
कैसा भी प्रेम।          
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27 May, 2025

कविता | प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

अगरबत्ती के धुएं-सा
कमरे में  
महकता प्रेम
देर तक
देता है 
पवित्रता का अहसास,
वहीं
कलुषित भावनाएं
औंधे दिए-सी
ढांक देती है
मन के हर कोने को
अंधेरों से
बस, परखना
कलुष और पवित्रता को
छल को, छद्म को, कपट को

क्योंकि समय है
प्रेम को परखने का
प्रेम भी जिहादी जो होने लगा है।       
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26 May, 2025

कविता | भीड़ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भीड़
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हम जुलूस में ढल कर
ललकते हैं/ एक सेल्फी के लिए
फिर
ढूंढते हैं दूसरे दिन
अखबार में छपी
सामूहिक फोटो में 
अपना चेहरा
ताकि सोशल मीडिया पर
ठोंक सकें अपनी पीठ
हमें क्या, जो कहीं
कोई औरत
हो नृशंसता की शिकार
हमें तो आदत है
दूसरे की आपदा में
अपना अवसर जुगाड़ने की
सो, हम करते हैं प्रतीक्षा
एक अदद
मोमबत्ती परेड की
जिससे उस औरत को 
न्याय मिले या न मिले 
पर हमें तो 
मिल जाता है अवसर
एक और तस्वीर का
वरना क्या सोचना कि
किस औरत के विरुद्ध
की गई है अमानवीय हिंसा*...
हिंसा करने वाला
अवसर ढूंढे या न ढूंढे
पर हम ढूंढते हैं
दूसरे की आपदा में
अपने अवसर
क्योंकि 
अब हम, हम नहीं
एक आत्माहीन भीड़ हैं
हवा के बहाव में बहने वाली भीड़।         
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(*खंडवा की घटना का स्मरण करते हुए)
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24 May, 2025

कविता | क्या कहूं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

क्या कहूं ?
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सदा उसी प्रेम ने
मेरी ज़िंदगी का 
रास्ता क्यों काटा
जिसकी न तो रीढ़ थी
न गहराई
न विश्वास
न समर्पण
न निःस्वार्थता
लेकिन मैं नहीं कहूंगी 
उसे काली बिल्ली 
क्योंकि बिल्लियां 
जानबूझकर रास्ता नहीं काटतीं,
फिर क्या कहूं
उस प्रेम को?
         - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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23 May, 2025

कविता | शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शब्द
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अर्थहीन हो जाते हैं 
शब्द
जब उनमें 
भावनाएं नहीं 
होते हैं सिर्फ़ चंद अक्षर 
जैसे 
झूठ के बंजर बीज 
जो आंसुओं से 
भीग कर भी
कभी 
अंकुरित नहीं होते।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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22 May, 2025

कविता | रिश्ते | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

रिश्ते
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रिश्तों में भी
है ज़रूरी
उष्मा, ऊर्जा 
और सतत प्रवाह
थमें हुए रिश्तों में
जम जाती है काई
और
होने लगते हैं
दुर्गंध युक्त
पूरी तरह सूखने तक।
       - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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21 May, 2025

कविता | दरार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

दरार
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दीवार की दरार में
उग सकता है
एक नन्हें पौधे से
पीपल का वृक्ष तक
किन्तु
संबंधों में आई 
दरार
होती है निर्जीव
बंजर।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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20 May, 2025

कविता | कुछ लोग | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कुछ लोग
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जिन हाथों से 
फिसल रही ज़िंदगी
हर दिन
उन्हीं से
रिश्तों को बिसात बना कर
चलते हैं दुर्भावनाओं के मोहरे
बड़े फ़ख़्र से

कुछ लोग नहीं जानते 
कि क्या खो रहे हैं वे!
          - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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19 May, 2025

कविता | शर्मिंदगी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शर्मिंदगी
-----------
गिरगिट
शर्मिंदा है
अपने
गिरगिट होने पर
जब से
बदलने लगा है
इंसान
हर पल अपना रंग।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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18 May, 2025

कविता | बिकाऊ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता | बिकाऊ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
बिकाऊ
-------
रोज बंधती 
रोज टूटती 
है उम्मीद
हाथ खाली हों
तो ख़्वाब सच नहीं होते 
इस बिकाऊ दुनिया में
सब कुछ बिकाऊ है
सबसे ज़्यादा 
इंसान और रिश्ते।
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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14 May, 2025

ग़ज़ल | आजकल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ग़ज़ल/ आजकल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

ज़िंदगी  लगती  उदासी  आजकल
आस्था लगती धुआं-सी आजकल

मित्रता के नाम पर धोखा-फ़रेब
बात कहने को जरा सी आजकल  

कंदराएं अब  भली   लगने  लगीं
हो गया मन आदिवासी आजकल

निर्जला व्रत कह दिया हमने मगर 
आत्मा तक है प्यासी आजकल

यूं 'शरद' का मन बहुत ही खिन्न है
हर हंसी  है  सप्रयासी आजकल
..........................
#शायरी #ग़ज़ल #डॉसुश्रीशरदसिंह 
#DrMissSharadSingh #Shayari #ghazal #shyarilovers #shayariofdrmisssharadsingh

07 May, 2025

कविता | कांधे यादों के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

कविता | कांधे यादों के | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मेरे माज़ी का
सलीब 
बहुत भारी है
कांधे दुखने लगे हैं
यादों के।
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

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05 May, 2025

कविता | भूख | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भूख
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

जिसके पास 
होता है सब कुछ 
वही लिखता है 
भूख पर कविता  
क्योंकि 
भूखा तो 
जूझता रहता है
एक अदद रोटी के लिए।
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04 May, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई!" की डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी द्वारा समीक्षा

सागर के "गीतऋषि" कहे जाने वाले देश के प्रतिष्ठित गीतकार डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी ने मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई!" की बहुत सुंदर समीक्षा की है जो कल 03.05.2025 को दो दैनिक समाचार पत्रों "नया दौर" एवं "सागर दिनकर" में प्रकाशित हुईं।


        इतनी सुंदर एवं सारगर्भित समीक्षा करने के लिए मैं डॉ सीरोठिया जी की अत्यंत आभारी हूं... उन्हें हार्दिक धन्यवाद 🙏


      उल्लेखनीय है कि  डॉ सीरोठिया जी मूलतः चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े हुए हैं तथा वे चिकित्सा विभाग के उच्च पदों पर कार्यरत रहे।  इंडियन मेडिकल एसोसिएशन मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष  एवं नेशनल आईएमए के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.... किंतु हिंदी साहित्य के प्रति उन्हें अगाध प्रेम है और वे निरंतर हिंदी साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध कर रहे हैं।

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डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी का हार्दिक आभार  🚩🙏🚩
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साभार : समीक्षा का टेक्स्ट 🙏 👇
*पुस्तक समीक्षा*
*सांची कै रए सुनो, रामधई!*
*बुंदेली गजलों में समसामयिक समस्याओं का विमर्श*
     *समीक्षक-डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया*
..............
*बुंदेली गज़ल संग्रह-* सांची कै रए सुनो, रामधई!
*कवयित्री*--डॉ (सुश्री)शरद सिंह
*प्रकाशक*---जे. टी. एस. प्रकाशन
बी-508 गली नंबर 17विजय पार्क दिल्ली 10053
*मूल्य* --150 रूपये
...............
     देश में स्त्री विमर्श की प्रथम पंक्ति में समादृत  उपन्यासकार, कथा लेखिका, 60 से अधिक पुस्तकों की यशस्वी रचनाकार परम विदुषी डॉ (सुश्री) शरद सिंह जी का  बुंदेली गजल संग्रह-*सांची कै रए सुनो, रामधई!* पाठकों के लिए  साहित्याकाश पर चमकते  देदीप्यमान नक्षत्र जैसा आनंद दायक है। इसके पूर्व डॉ शरद सिंह जी के अनेक बुंदेली संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें, *बुंदेली लोक कथाएँ*, बुंदेली में नियमित स्तंभ लेखन, बुंदेली में कथा संग्रह *राख तरें के अंगरा* प्रमुख हैं, अंग्रेजी भाषा में भी आपके ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ सुश्री शरद सिंह, हिंदी,अंग्रेजी बुंदेली भाषाओं की श्रेष्ठ साधिका हैं।
अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत डॉ शरद सिंह को शताधिक पुस्तकों की समीक्षा लिखने का गौरव भी  प्राप्त है।
बुंदेली भाषा प्राकृत-शौरसैनी एवं संस्कृत से पैदा हुई है अतः हम कह सकते हैं की बुंदेली का जन्म उच्च कुल में हुआ है, 10 वीं शताब्दी के चंदेल वंश से लेकर बुंदेला वंश तक बुंदेली का बेहद विस्तार हुआ है। बाल्मीकि रामायण में भी बुंदेलखंड के व्यापार, रहन- सहन, खानपान, आदि का उल्लेख मिलता है।
डॉ सुश्री शरद सिंह ने साहित्य की एक समृद्ध परंपरा को विस्तार देते हुए बुंदेली गजल  *सांची कै रए सुनो, रामधई!* का सृजन कर अपनी रागात्मक सरोकार का परिचय दिया है। जब गज़ल ने अरबी भाषा में जन्म लिया तो इसे औरतों की बातचीत कहा गया, चूंकि इसमें दैहिक प्रेम अधिक होता था अतः इसे इश्के-मिज़ाजी कहा गया  जब इसे फ़ारसी ने स्वीकार किया तो ग़ज़ल आध्यात्म से जुड़कर इश्के- मिजाज़ी से इश्के-हकीकी हो गई।
उर्दू में आने के बाद गज़ल का भारतीयकरण हो गया और इसके तेवर बदलते गए- निराला, बलवीर सिंह रंग, जानकी वल्लभ शास्त्री एवं दुष्यंत कुमार ने गजल की दशा और दिशा को नया मोड़ दिया, अब यह गजल महफ़िलों से निकल कर आम आदमी के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी, इस आहट को सामाजिक सरोकारों की कवयित्री डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने न केवल सुना वरन उसे गुना भी और उसे बड़ी शालीनता से लोक भाषा बुंदेली में लोक- बिंबों के साथ बुंदेली गजल  *सांची कै रए सुनो, रामधई!* में उतार दिया।
संग्रह की शीर्षक ग़ज़ल इस रत्नाकर के अनमोल मोती की तरह चमकदार है --
*सांची कै रए सुनो रामधई।पीरा हमरी गुनो रामधई।*
*जो तुम हमको भलो चात हो, हमरे काँटे चुनो रामधई।*
इस ग़ज़ल में समाज के गहन दर्द को अत्यंत सहजता से व्यक्त करने में डॉ सुश्री शरद जी सफल रहीं हैं.
आपके पास भाव,भाषा एवं कथ्य की विविधता का असीम कोष है और इस संग्रह को पढ़ते हुए हम ग़ज़ल के फलक पर शब्दों का मनमोहक इंद्रधनुष देखते हैं.
उर्दू ग़ज़ल में क़ाफ़िया, रदीफ़ और बहर के अनुशासन का पालन किया जाना अनिवार्य होता है,
*सांची कै रए सुनो रामधई!* ग़ज़ल संग्रह में डॉ शरद सिंह जी कहीं भी ग़ज़ल विधान से ख़ारिज नहीं हुईं हैं. आपकी गज़लों में आपके ज्ञान, अनुभव एवं सामाजिक संवेदनशीलता की त्रिवेणी है जिसमें अवगाहन कर पाठक निश्चित ही धन्य-धन्य हो जाएगा ऐसा मेरा विश्वास है।
बुंदेलखंड में मुहावरों को जिन्हें कैनात कहते हैं का प्रयोग बहुतायत से होता है, डॉ शरद सिंह ने इस ग़ज़ल संग्रह में अनेक कैनातों का प्रयोग किया है,---
*दोरे टूटे खुलीं किवारियाँ।*
*लाज बचावें कैसें तिरियाँ।*
*शरद सबई गुंतारे छोड़ो, बैठो जाकें नेचें बरियाँ।*
इस ग़ज़ल को इस दौर में नारी अस्मिता की चिंता की प्रतिनिधि ग़ज़ल कहा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि डॉ शरद सिंह की दृष्टि शहर, गाँव और आम आदमी के इर्द- गिर्द ही घूमती है उनके चिंतन के आयाम अनंत तक जाते हैं, बुंदेलखंड के जंगलों में पैदा होने वाले वे फल जो कुछ समय पूर्व तक बुंदेलखंड के हाट-बाज़ारों, मेलों-ठेलों की शान और आकर्षण के केंद्र हुआ करते थे अब जंगल  कटने से  विलुप्त होते जा रहे हैं, जिसकी पीड़ा को बखूबी ग़ज़ल में उठाया गया है,पर्यावरण के प्रति आपकी अन्वेषणात्मक दृष्टि में  चिंता एवं चिंतन का व्यापक असर दिखता है---
*चार चिरोंजी तेंदू कभरई सबई बिकत्ते।*
*बिरचुन बेरी घड़ियाघुल्ला सोई रहत्ते।*
ग्रामीण जीवन में शृंगार के जेवरों/साधनों को डॉ शरद जी ने जिस बारीकी से ग़ज़ल में पिरोया है वैसा प्रयोग इसके पूर्व मैंने कहीं नहीं पढ़ा है --
*गिलट के बूंदा, कंठी संगे बिकत तीं चुरियां,*
*पाँव पायलें लच्छा सोई हाट आउत्ते।*
लोक संस्कृति के पुनर्जागरण की इस ग़ज़ल में लोक की धड़कन स्पंदित हो रही है।
बुंदेलखंड के त्यौहारों में भाईचारे, एकता, सौहार्द एवं आनंद के अनुपम रंग दिखते हैं जिन्हें डॉ शरद सिंह ने बहुत प्यारे ढंग से ग़ज़ल में उकेरा है ---
*होली राखी नवराते औ मने दिवारी,*
*त्यौहारन पे कछू जने तो स्वांग रचत्ते।*
बुंदेलखंड में स्वांग बनाकर पुरुष एवं महिलाएँ   त्यौहारों या फिर विवाह आदि के  आनंद क्षणों को बहुगुणित का देते हैं यह आनंद की पराकाष्ठा है जिसे शब्दों में डॉ शरद सिंह जी ने मुखर कर दिया है।
         ग्रामीण जीवन के खेल बिलकुल अलग होते थे जो अब नई सभ्यता ने निगल लिए हैं, लोक की इस विडंबना को डॉ शरद जी ने बहुत संजीदगी से ग़ज़ल में अभिव्यक्त किया है --
*खेल चपेटा खिपड़ी गट्टा कंचा गुल्ली,*
*अकती पे गुड्डा-गुड़िया के खेल रचत्ते।*
*शरद भुलाए कबऊ ने भूलेंगे वे दिन,*
*सबई उपत कें इक दूजे के गले मिलत्ते।*
डॉ शरद जी की इस ग़ज़ल ने बुंदेलखंड के संपूर्ण सांस्कृतिक वैभव के दर्शन करा दिए।मैं अपने गाँव की भूली बिसरी गलियों से होकर अपने बचपन को फिर से जी आया, मैं डॉ शरद सिंह जी की सारस्वत् प्रज्ञा को नमन करता हूँ आपके भाव भाषा की संप्रेणीयता अद्भुत है आपके चमत्कारिक सृजन ने अंतर्मन को भिगो दिया, साधुवाद।

चूँकि डॉ शरद सिंह का जन्म बुंदेलखंड में हुआ और आपका कर्मक्षेत्र भी बुंदेलखंड रहा है अतः हम कह सकते हैं  आपकी लेखनी में बुंदेली माटी की सुगंध महकती है,राजनैतिक एवं समाजिक क्षेत्र में चाटुकारिता एक लोक लुभावन खेल की तरह लोकप्रिय हो रही है सत्ताधारी भी चाहते हैं कि आमजन आँख बंदकर उनकी जय- जयकार करते रहें डॉ शरद सिंह ने एक बुंदेली घरेलू खेल के माध्यम से इसे बखूबी ग़ज़ल में व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है --

*अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो, औ अस्सी नब्बे पूरे सौ।*
*कुर्सी वाले जेई चाउत, आंख मीच के बोलो हौ।।*
डॉ शरद सिंह कहती हैं कि सत्ता की हाँ में हाँ मिलाना बहुत पुराना खेल है हर युग में यह अलग- अलग ढंग से खेला जाता रहा है-
*जे सो खेल पुरानो ठेरो,*
*ईमे कौन नओ किस्सा,*
*कौन सो ठेका कीको मिलहे,*
*इन्ने-उन्ने तै कर लऔ।*.
        डॉ शरद सिंह बिना लाग-लपेट के खरी- खरी बात कहने की पक्षधर हैं।
एक लोकोक्ति को बड़ी चतुराई से डॉ शरद सिंह ने ग़ज़ल में सँवारा है,--
*घोर-घोर रानी, कित्तो-कित्तो पानी।*
*राजा भओ चतुरा, पब्लिक भइ सयानी।*.
लोकतंत्र ने राजा को चतुर और जनता को समझदार बना दिया है दोनों अपने -अपने तरीके से देश को चला रहे  हैं,  समय के कड़वे सच को कहने का हौसला डॉ शरद सिंह की लेखनी में  है.
समाजिक सरोकारों की सिद्ध रचनाधर्मिता डॉ शरद सिंह की गजलों को धारदार बनाती है, समाज की चिंता से वह गहरे तक जुड़ी होतीं हैं,चाहे वह विषय व्यक्तियों से जुड़ा हो, पर्यावरण से जुड़ा हो या मूक पशुओं की अव्यक्त पीड़ा से जुड़ा हो आपने पूरी गंभीरता एवं संवेदनशीलता से उसे गजलों में पिरोया है, पॉलीथिन(पन्नी) के प्रयोग से होने वाले प्रदूषण एवं मूक पशुओं की मौतों की ज्वलंत समस्या को आपने मार्मिकता के साथ ग़ज़ल में मुखर किया है--
*घरे भीतरे पानी घुस गओ, नरदा पुर गए पन्नी से।*
*गली,मोहल्ला,कुनिया- कतरा सबरे भर गए पन्नी से।*
*कचड़ा में मैकी जो पन्नी खाबे वारी चीजों संग,*
*गैया-गरुआ ढोर हरें बी, खा के मर गए पन्नी से।।*
सामाजिक चेतना को झकझोरने वाला ऐसा  ह्रदयस्पर्शी चिंतन श्लाघनीय है।

बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*की प्रत्येक ग़ज़ल एक संपूर्ण विस्तृत समीक्षा की अधिकारिणी है जितनी बार इस संग्रह की अथाह गहराई में उतरो उतनी बार अर्थबोध का नया रत्न हाथ में आता है।
गजल संग्रह में भाषा की विविधता देखने मिलती है, कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए सामान्य बोलचाल में प्रचलित बुंदेली शब्दों के साथ ख़डी बोली, अवधी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी के शब्दों को  भी सहजता के साथ स्वीकार किया गया है और ये शब्द स्थान विशेष पर सर्वाधिक उपयुक्त भी हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ शरद सिंह जी एक श्रेष्ठ भाषाविद भी हैं।

  बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*का समापन डॉ शरद जी ने जीवन की नश्वरता के शाश्वत सत्य की आत्मस्वीकृति के साथ किया है यह गज़ल इस संग्रह के शिखर के कलश की वह स्वर्णिम आभा है जो बुंदेली साहित्य जगत को दूर-दूर तक आलोकित करेगी--

*अमरौती खा ने आओ, कोउ इते को राने।*
*पिंजरा के पंछी खों भैया, एक दिना उड़ जाने।*
*जे जो महल अटारी ठेरी,नें जे प्रान बचेंहें,*
*समै तमंचा चले शरद जब, चूकत कोन निसाने।।*
वेद पुराणों उपनिषदों में वर्णित जीवन के अटल एवं जटिल सत्य को इतनी सहजता से लिख देना डॉ शरद सिंह जी की लेखनी का ही कमाल हो सकता है, निःसंदेह  आपके पास अभिव्यक्ति की विलक्षण कला है।
मुझे विश्वास है की आपके पूर्व प्रकाशित ग्रंथों की तरह यह बुंदेली ग़ज़ल संग्रह  *सांची कै रए सुनो रामधई!* साहित्य जगत में  आपकी कीर्ति पताका को नई ऊचाईयों तक ले जाएगा।
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