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02 June, 2025
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कविता | अमावस में लिखा गया प्रेमपत्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
29 May, 2025
पुस्तक समीक्षा | सांची कै रए सुनो, रामधई | बुंदेली गजलों में समसामयिक समस्याओं का विमर्श | समीक्षक-डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया
28 May, 2025
कविता | वह नहीं कर सकता प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता | प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
26 May, 2025
कविता | भीड़ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता | क्या कहूं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कविता | शब्द | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
22 May, 2025
कविता | रिश्ते | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
21 May, 2025
कविता | दरार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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19 May, 2025
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14 May, 2025
ग़ज़ल | आजकल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
07 May, 2025
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कविता | भूख | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
04 May, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह के बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई!" की डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी द्वारा समीक्षा
सागर के "गीतऋषि" कहे जाने वाले देश के प्रतिष्ठित गीतकार डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी ने मेरे बुंदेली ग़ज़ल संग्रह "सांची कै रए सुनो, रामधई!" की बहुत सुंदर समीक्षा की है जो कल 03.05.2025 को दो दैनिक समाचार पत्रों "नया दौर" एवं "सागर दिनकर" में प्रकाशित हुईं।
इतनी सुंदर एवं सारगर्भित समीक्षा करने के लिए मैं डॉ सीरोठिया जी की अत्यंत आभारी हूं... उन्हें हार्दिक धन्यवाद 🙏
उल्लेखनीय है कि डॉ सीरोठिया जी मूलतः चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े हुए हैं तथा वे चिकित्सा विभाग के उच्च पदों पर कार्यरत रहे। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष एवं नेशनल आईएमए के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं.... किंतु हिंदी साहित्य के प्रति उन्हें अगाध प्रेम है और वे निरंतर हिंदी साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध कर रहे हैं।
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डॉ श्याममनोहर सीरोठिया जी का हार्दिक आभार 🚩🙏🚩
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साभार : समीक्षा का टेक्स्ट 🙏 👇
*पुस्तक समीक्षा*
*सांची कै रए सुनो, रामधई!*
*बुंदेली गजलों में समसामयिक समस्याओं का विमर्श*
*समीक्षक-डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया*
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*बुंदेली गज़ल संग्रह-* सांची कै रए सुनो, रामधई!
*कवयित्री*--डॉ (सुश्री)शरद सिंह
*प्रकाशक*---जे. टी. एस. प्रकाशन
बी-508 गली नंबर 17विजय पार्क दिल्ली 10053
*मूल्य* --150 रूपये
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देश में स्त्री विमर्श की प्रथम पंक्ति में समादृत उपन्यासकार, कथा लेखिका, 60 से अधिक पुस्तकों की यशस्वी रचनाकार परम विदुषी डॉ (सुश्री) शरद सिंह जी का बुंदेली गजल संग्रह-*सांची कै रए सुनो, रामधई!* पाठकों के लिए साहित्याकाश पर चमकते देदीप्यमान नक्षत्र जैसा आनंद दायक है। इसके पूर्व डॉ शरद सिंह जी के अनेक बुंदेली संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें, *बुंदेली लोक कथाएँ*, बुंदेली में नियमित स्तंभ लेखन, बुंदेली में कथा संग्रह *राख तरें के अंगरा* प्रमुख हैं, अंग्रेजी भाषा में भी आपके ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ सुश्री शरद सिंह, हिंदी,अंग्रेजी बुंदेली भाषाओं की श्रेष्ठ साधिका हैं।
अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत डॉ शरद सिंह को शताधिक पुस्तकों की समीक्षा लिखने का गौरव भी प्राप्त है।
बुंदेली भाषा प्राकृत-शौरसैनी एवं संस्कृत से पैदा हुई है अतः हम कह सकते हैं की बुंदेली का जन्म उच्च कुल में हुआ है, 10 वीं शताब्दी के चंदेल वंश से लेकर बुंदेला वंश तक बुंदेली का बेहद विस्तार हुआ है। बाल्मीकि रामायण में भी बुंदेलखंड के व्यापार, रहन- सहन, खानपान, आदि का उल्लेख मिलता है।
डॉ सुश्री शरद सिंह ने साहित्य की एक समृद्ध परंपरा को विस्तार देते हुए बुंदेली गजल *सांची कै रए सुनो, रामधई!* का सृजन कर अपनी रागात्मक सरोकार का परिचय दिया है। जब गज़ल ने अरबी भाषा में जन्म लिया तो इसे औरतों की बातचीत कहा गया, चूंकि इसमें दैहिक प्रेम अधिक होता था अतः इसे इश्के-मिज़ाजी कहा गया जब इसे फ़ारसी ने स्वीकार किया तो ग़ज़ल आध्यात्म से जुड़कर इश्के- मिजाज़ी से इश्के-हकीकी हो गई।
उर्दू में आने के बाद गज़ल का भारतीयकरण हो गया और इसके तेवर बदलते गए- निराला, बलवीर सिंह रंग, जानकी वल्लभ शास्त्री एवं दुष्यंत कुमार ने गजल की दशा और दिशा को नया मोड़ दिया, अब यह गजल महफ़िलों से निकल कर आम आदमी के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी, इस आहट को सामाजिक सरोकारों की कवयित्री डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने न केवल सुना वरन उसे गुना भी और उसे बड़ी शालीनता से लोक भाषा बुंदेली में लोक- बिंबों के साथ बुंदेली गजल *सांची कै रए सुनो, रामधई!* में उतार दिया।
संग्रह की शीर्षक ग़ज़ल इस रत्नाकर के अनमोल मोती की तरह चमकदार है --
*सांची कै रए सुनो रामधई।पीरा हमरी गुनो रामधई।*
*जो तुम हमको भलो चात हो, हमरे काँटे चुनो रामधई।*
इस ग़ज़ल में समाज के गहन दर्द को अत्यंत सहजता से व्यक्त करने में डॉ सुश्री शरद जी सफल रहीं हैं.
आपके पास भाव,भाषा एवं कथ्य की विविधता का असीम कोष है और इस संग्रह को पढ़ते हुए हम ग़ज़ल के फलक पर शब्दों का मनमोहक इंद्रधनुष देखते हैं.
उर्दू ग़ज़ल में क़ाफ़िया, रदीफ़ और बहर के अनुशासन का पालन किया जाना अनिवार्य होता है,
*सांची कै रए सुनो रामधई!* ग़ज़ल संग्रह में डॉ शरद सिंह जी कहीं भी ग़ज़ल विधान से ख़ारिज नहीं हुईं हैं. आपकी गज़लों में आपके ज्ञान, अनुभव एवं सामाजिक संवेदनशीलता की त्रिवेणी है जिसमें अवगाहन कर पाठक निश्चित ही धन्य-धन्य हो जाएगा ऐसा मेरा विश्वास है।
बुंदेलखंड में मुहावरों को जिन्हें कैनात कहते हैं का प्रयोग बहुतायत से होता है, डॉ शरद सिंह ने इस ग़ज़ल संग्रह में अनेक कैनातों का प्रयोग किया है,---
*दोरे टूटे खुलीं किवारियाँ।*
*लाज बचावें कैसें तिरियाँ।*
*शरद सबई गुंतारे छोड़ो, बैठो जाकें नेचें बरियाँ।*
इस ग़ज़ल को इस दौर में नारी अस्मिता की चिंता की प्रतिनिधि ग़ज़ल कहा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि डॉ शरद सिंह की दृष्टि शहर, गाँव और आम आदमी के इर्द- गिर्द ही घूमती है उनके चिंतन के आयाम अनंत तक जाते हैं, बुंदेलखंड के जंगलों में पैदा होने वाले वे फल जो कुछ समय पूर्व तक बुंदेलखंड के हाट-बाज़ारों, मेलों-ठेलों की शान और आकर्षण के केंद्र हुआ करते थे अब जंगल कटने से विलुप्त होते जा रहे हैं, जिसकी पीड़ा को बखूबी ग़ज़ल में उठाया गया है,पर्यावरण के प्रति आपकी अन्वेषणात्मक दृष्टि में चिंता एवं चिंतन का व्यापक असर दिखता है---
*चार चिरोंजी तेंदू कभरई सबई बिकत्ते।*
*बिरचुन बेरी घड़ियाघुल्ला सोई रहत्ते।*
ग्रामीण जीवन में शृंगार के जेवरों/साधनों को डॉ शरद जी ने जिस बारीकी से ग़ज़ल में पिरोया है वैसा प्रयोग इसके पूर्व मैंने कहीं नहीं पढ़ा है --
*गिलट के बूंदा, कंठी संगे बिकत तीं चुरियां,*
*पाँव पायलें लच्छा सोई हाट आउत्ते।*
लोक संस्कृति के पुनर्जागरण की इस ग़ज़ल में लोक की धड़कन स्पंदित हो रही है।
बुंदेलखंड के त्यौहारों में भाईचारे, एकता, सौहार्द एवं आनंद के अनुपम रंग दिखते हैं जिन्हें डॉ शरद सिंह ने बहुत प्यारे ढंग से ग़ज़ल में उकेरा है ---
*होली राखी नवराते औ मने दिवारी,*
*त्यौहारन पे कछू जने तो स्वांग रचत्ते।*
बुंदेलखंड में स्वांग बनाकर पुरुष एवं महिलाएँ त्यौहारों या फिर विवाह आदि के आनंद क्षणों को बहुगुणित का देते हैं यह आनंद की पराकाष्ठा है जिसे शब्दों में डॉ शरद सिंह जी ने मुखर कर दिया है।
ग्रामीण जीवन के खेल बिलकुल अलग होते थे जो अब नई सभ्यता ने निगल लिए हैं, लोक की इस विडंबना को डॉ शरद जी ने बहुत संजीदगी से ग़ज़ल में अभिव्यक्त किया है --
*खेल चपेटा खिपड़ी गट्टा कंचा गुल्ली,*
*अकती पे गुड्डा-गुड़िया के खेल रचत्ते।*
*शरद भुलाए कबऊ ने भूलेंगे वे दिन,*
*सबई उपत कें इक दूजे के गले मिलत्ते।*
डॉ शरद जी की इस ग़ज़ल ने बुंदेलखंड के संपूर्ण सांस्कृतिक वैभव के दर्शन करा दिए।मैं अपने गाँव की भूली बिसरी गलियों से होकर अपने बचपन को फिर से जी आया, मैं डॉ शरद सिंह जी की सारस्वत् प्रज्ञा को नमन करता हूँ आपके भाव भाषा की संप्रेणीयता अद्भुत है आपके चमत्कारिक सृजन ने अंतर्मन को भिगो दिया, साधुवाद।
चूँकि डॉ शरद सिंह का जन्म बुंदेलखंड में हुआ और आपका कर्मक्षेत्र भी बुंदेलखंड रहा है अतः हम कह सकते हैं आपकी लेखनी में बुंदेली माटी की सुगंध महकती है,राजनैतिक एवं समाजिक क्षेत्र में चाटुकारिता एक लोक लुभावन खेल की तरह लोकप्रिय हो रही है सत्ताधारी भी चाहते हैं कि आमजन आँख बंदकर उनकी जय- जयकार करते रहें डॉ शरद सिंह ने एक बुंदेली घरेलू खेल के माध्यम से इसे बखूबी ग़ज़ल में व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है --
*अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो, औ अस्सी नब्बे पूरे सौ।*
*कुर्सी वाले जेई चाउत, आंख मीच के बोलो हौ।।*
डॉ शरद सिंह कहती हैं कि सत्ता की हाँ में हाँ मिलाना बहुत पुराना खेल है हर युग में यह अलग- अलग ढंग से खेला जाता रहा है-
*जे सो खेल पुरानो ठेरो,*
*ईमे कौन नओ किस्सा,*
*कौन सो ठेका कीको मिलहे,*
*इन्ने-उन्ने तै कर लऔ।*.
डॉ शरद सिंह बिना लाग-लपेट के खरी- खरी बात कहने की पक्षधर हैं।
एक लोकोक्ति को बड़ी चतुराई से डॉ शरद सिंह ने ग़ज़ल में सँवारा है,--
*घोर-घोर रानी, कित्तो-कित्तो पानी।*
*राजा भओ चतुरा, पब्लिक भइ सयानी।*.
लोकतंत्र ने राजा को चतुर और जनता को समझदार बना दिया है दोनों अपने -अपने तरीके से देश को चला रहे हैं, समय के कड़वे सच को कहने का हौसला डॉ शरद सिंह की लेखनी में है.
समाजिक सरोकारों की सिद्ध रचनाधर्मिता डॉ शरद सिंह की गजलों को धारदार बनाती है, समाज की चिंता से वह गहरे तक जुड़ी होतीं हैं,चाहे वह विषय व्यक्तियों से जुड़ा हो, पर्यावरण से जुड़ा हो या मूक पशुओं की अव्यक्त पीड़ा से जुड़ा हो आपने पूरी गंभीरता एवं संवेदनशीलता से उसे गजलों में पिरोया है, पॉलीथिन(पन्नी) के प्रयोग से होने वाले प्रदूषण एवं मूक पशुओं की मौतों की ज्वलंत समस्या को आपने मार्मिकता के साथ ग़ज़ल में मुखर किया है--
*घरे भीतरे पानी घुस गओ, नरदा पुर गए पन्नी से।*
*गली,मोहल्ला,कुनिया- कतरा सबरे भर गए पन्नी से।*
*कचड़ा में मैकी जो पन्नी खाबे वारी चीजों संग,*
*गैया-गरुआ ढोर हरें बी, खा के मर गए पन्नी से।।*
सामाजिक चेतना को झकझोरने वाला ऐसा ह्रदयस्पर्शी चिंतन श्लाघनीय है।
बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*की प्रत्येक ग़ज़ल एक संपूर्ण विस्तृत समीक्षा की अधिकारिणी है जितनी बार इस संग्रह की अथाह गहराई में उतरो उतनी बार अर्थबोध का नया रत्न हाथ में आता है।
गजल संग्रह में भाषा की विविधता देखने मिलती है, कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए सामान्य बोलचाल में प्रचलित बुंदेली शब्दों के साथ ख़डी बोली, अवधी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी के शब्दों को भी सहजता के साथ स्वीकार किया गया है और ये शब्द स्थान विशेष पर सर्वाधिक उपयुक्त भी हैं अतः कहा जा सकता है कि डॉ शरद सिंह जी एक श्रेष्ठ भाषाविद भी हैं।
बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!*का समापन डॉ शरद जी ने जीवन की नश्वरता के शाश्वत सत्य की आत्मस्वीकृति के साथ किया है यह गज़ल इस संग्रह के शिखर के कलश की वह स्वर्णिम आभा है जो बुंदेली साहित्य जगत को दूर-दूर तक आलोकित करेगी--
*अमरौती खा ने आओ, कोउ इते को राने।*
*पिंजरा के पंछी खों भैया, एक दिना उड़ जाने।*
*जे जो महल अटारी ठेरी,नें जे प्रान बचेंहें,*
*समै तमंचा चले शरद जब, चूकत कोन निसाने।।*
वेद पुराणों उपनिषदों में वर्णित जीवन के अटल एवं जटिल सत्य को इतनी सहजता से लिख देना डॉ शरद सिंह जी की लेखनी का ही कमाल हो सकता है, निःसंदेह आपके पास अभिव्यक्ति की विलक्षण कला है।
मुझे विश्वास है की आपके पूर्व प्रकाशित ग्रंथों की तरह यह बुंदेली ग़ज़ल संग्रह *सांची कै रए सुनो रामधई!* साहित्य जगत में आपकी कीर्ति पताका को नई ऊचाईयों तक ले जाएगा।
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