31 May, 2025

कविता | प्रेम में हो कर | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम में हो कर
     - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हरिद्वार के गंगातट पर
दोने में रख कर
धारा को 
अर्पित किए गए 
दीप की थरथराती
आंखों से
दूर जाती
लौ की भांति
ख़ुद से ही दूर जाता
मन
प्रेम के शिवत्व
और सुंदरता की
आकांक्षा में
डूबता, उतराता 
बहता रहता है
अनन्त की ओर
इस सत्य से मुंह फेर कर
कि कोई भी धारा
दोने को छीन
तेल को बिखेर
दीप को पलट
बुझा सकती है लौ...
भला, कौन सोचता है
प्रेम में हो कर इतना सब!       
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