कविता
अन्न के पास बैठी कविता
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अन्न के पास बैठी
कविता
सुनती है
भूख की ध्वनियां,
महसूस करती है
खाली पेट वाली
आंतों की कुलबुलाहटें,
मुट्ठी भर दानों की इच्छाएं,
अचरज होता है उसे
काग़ज़ के नोटों की शक्ति पर
वे नहीं
तो
सामने रखा अन्न
हो कर भी नहीं
अन्न, भूख और रोटी का
समीकरण
रखता है आबाद
देह का बाज़ार,
इंसानों की मंडी,
कर्ज का बोझा
और
लाचारी का सबक
उस कविता को
बहुत कुछ
देखना, सुनना
और समझना है अभी।
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