प्रेम की पराकाष्ठा
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
आंखों सामने
वृहद भीड़
परस्पर बातों का कोलाहल
ध्वनियां... ध्वनियां...
असंख्य ध्वनियां...
निरंतर कानों के
पर्दों से टकरातीं
मानो
हहराते समुद्र की
तूफानी लहरें
टकरा रही हों
तट की कृत्रिम
चट्टानों से
या
एक झरना
गिर रहा हो
सैंकड़ों फीट की
ऊंचाई से
झरझराता हुआ
शोर की सप्तधाराओं को
उपजाता हुआ
तेजगति हवाएं
बजाती हों सीटियां
अरण्य से हो कर
अट्टालिकाओं तक
छू कर निकलती हों
गरदन की
नाज़ुक शिराओं को
फिर भी
प्रतीत हो ऐसा
कि विचरण कर रहा है मन
अंतरिक्ष की
ध्वनि-शून्यता में
तो समझो,
प्रेम की पराकाष्ठा
पर जा पहुंचीं हैं
अव्यक्त भावनाएं।
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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