11 June, 2025

कविता | प्रेम एकाकी मन के लिए | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम एकाकी मन के लिए
 - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

चिलचिलाती धूप में
सूखते गले को
मिल जाए जैसे
एक मुट्ठी छांह
और
एक घूंट पानी

बारिश की बाढ़
और 
गहरी सीलन में
चमके धूप की
कुनकुनी किरण

कड़कड़ाती ठंड में
फुटपाथ पर 
कांपती, ठिठुरती
देह को
कोई ओढ़ा दे कंबल

सूनी रसोई औ
छूंछे डिब्बों में
मिल जाएं
कटोरी भर आटा

तो फिर से
जाग उठता है 
विश्वास 
जीवन के प्रति
ठीक ऐसा ही तो होता है
प्रेम
एकाकी मन के लिए।     
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