कविता | #सच 2
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक टूटे हुए कप की तरह
खंडित ज़िन्दगी
अपने वज़ूद में
होती है
और नहीं भी
कबर्ड से कूड़ादान
तक की यात्रा
किसी शवयात्रा से
कंम नहीं
यह जानता है
वह टूटा हुआ कप
जो किसी हाथों में सजता था
होठों से लगता था
मगर खंडित होते ही
हो गई
उसकी उपयोगिता भी ख़त्म
ठीक ऐसे ही
वह खण्डित ज़िन्दगी भी
रहती है फ़िजूल
बावजूद जीए जाने के।
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