26 May, 2025

कविता | भीड़ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

भीड़
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

हम जुलूस में ढल कर
ललकते हैं/ एक सेल्फी के लिए
फिर
ढूंढते हैं दूसरे दिन
अखबार में छपी
सामूहिक फोटो में 
अपना चेहरा
ताकि सोशल मीडिया पर
ठोंक सकें अपनी पीठ
हमें क्या, जो कहीं
कोई औरत
हो नृशंसता की शिकार
हमें तो आदत है
दूसरे की आपदा में
अपना अवसर जुगाड़ने की
सो, हम करते हैं प्रतीक्षा
एक अदद
मोमबत्ती परेड की
जिससे उस औरत को 
न्याय मिले या न मिले 
पर हमें तो 
मिल जाता है अवसर
एक और तस्वीर का
वरना क्या सोचना कि
किस औरत के विरुद्ध
की गई है अमानवीय हिंसा*...
हिंसा करने वाला
अवसर ढूंढे या न ढूंढे
पर हम ढूंढते हैं
दूसरे की आपदा में
अपने अवसर
क्योंकि 
अब हम, हम नहीं
एक आत्माहीन भीड़ हैं
हवा के बहाव में बहने वाली भीड़।         
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(*खंडवा की घटना का स्मरण करते हुए)
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