05 July, 2025

प्रेम कविता | प्रेम करते हो तो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

प्रेम कविता
प्रेम करते हो तो
      - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

राग मल्हार हो
या मालाहारी*
अपने भीगे स्वरों से
करता है स्वागत
जल की उन बूंदों का
जो उठी थीं सागर से
उन्मुक्त, अतल, अनंत 
गगन नापने
किंतु न जा सकीं आगे 
क्षोभमंडल** से
हवाओं की 
तनी हुई भृकुटी ने
रोक लिया रास्ता
 
भले ही 
बूंद़ों ने गोपियों-सा 
संगठित हो 
किया था रार भी
चमकी थीं 
अनेक बिजलियां
फिर समझ गई बूंदे़ं
लौटना होगा वापस 
धरती पर
तो क्यों न लौट जाए
अपने मूल स्वरूप में
- यही सोचा बूंद ने 
और बरस पड़ीं 
जंगल, पहाड़, नदियों, 
बस्तियों और सागरों पर

कण-कण ने 
लगा लिया गले
उन बूंदों को
क्योंकि 
कोई मुखौटा 
कोई भी छल-छद्म 
या कपट नहीं,
प्रेम तो चाहता है सदा
पारदर्शी जल जैसी 
मौलिकता 
अपने अस्तित्व में

यही तो कहती है 
बारिश की हर बूंद-
प्रेम करते हो तो
मत झिझको लौटने से
बस, रहो निष्कपट
निष्ठावान और
विश्वसनीय
प्रिय के प्रति।
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* कर्नाटक संगीत का राग
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