ज्वार
- डॉ शरद सिंह
पीड़ा, प्रेम
आकुलता, व्याकुलता
भावनाओं का ज्वार ही तो है
जो बहा लाता है
अपने साथ यादों को
जो बहा ले जाता है
अपने साथ वादों को
बस, रह जाती है स्तब्धता
कस कर बंधी हुई मुट्ठी में
गीली रेत की तरह
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ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद ओंंकार जी 🙏
Deleteबेहतरीन भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteदिल्ली शुक्रिया मीना भारद्वाज जी 🙏
Deleteसमय बहुत कारगर है, कसी मुठ्ठी से भी रेत सूखते ही फिसल जाती है
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद गगन शर्मा जी 🙏
Deleteगहरी और मंथी हुई रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद संदीप कुमार शर्मा जी
Deleteहृदय स्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी 🙏
Deleteअनीता सैनी जी, मेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार 🙏
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी
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