13 June, 2021

सिर्फ़ यही चाह | कविता | डॉ शरद सिंह

सिर्फ़ यही चाह
         - डॉ शरद सिंह

वह दिन आएगा
जब बंद हो जाएंगी
मेरी आंखें
थम जाएंगी
मेरी सांसें
देह हो जाएगी निर्जीव
उस दिन 
न भूख होगी
न प्यास होगी
न होगी 
ऑक्सीजन की दरकार
न प्रेम, न सहयोग
न दवा, न दया

उस दिन
मिल जाए मेरे हिस्से की 
रोटी, पानी, कपड़े, छत 
और ऑक्सीजन
उनमें से किसी को भी
जो हैं एकाकी,
दया पर निर्भर
शरणार्थी शिविरों में,
हाथ में कटोरा लिए
मंदिरों के सामने,
हाथ फैला कर दौड़ते
गाड़ियों के पीछे

वह चाहे
स्त्री हो या पुरुष
बूढ़ा या बच्चा
उसे मिले 
मेरे हिस्से का 
सब कुछ अच्छा-अच्छा
सिर्फ़ यही चाह
हो जाए पूरी
विलोपित हो जाएं  
वे सब
जो इच्छाएं
रह गईं अधूरी।
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6 comments:

  1. कैसी कैसी चाह और कैसी कैसी इच्छाएं ...

    मार्मिक .

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    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता स्वरूप जी 🙏

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  2. बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति।
    सादर

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आनीता सैनी जी 🙏

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  3. हार्दिक धन्यवाद ओंकार जी 🙏

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  4. चर्चा मंच में मेरी कविता को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏

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