पांव-पांव चादर
- डॉ शरद सिंह
रोज़ रात को
जब पड़ती हैं बिस्तर पर
सिलवटें
मेरी करवटों से
जागता है रतजगे का अहसास
नापती हूं अपनी चादर को
कभी चादर बड़ी
और पांव छोटे
तो कभी पांव बड़े
और चादर छोटी
किसी दिहाड़ी मज़दूर की
आमदनी की तरह
कभी कम तो कभी ज़्यादा
चादर बदलती रहती है अपनी नाप
या फिर मेरे पांव ही
होते रहते हैं
कभी छोटे तो कभी बड़े
नींद की लम्बाई
करती है तय
पांव और चादर की नाप को
और
नींद वश में है बेचैनी के
बेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
सत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर
यह खेल
हर रात का,
यह खेल पांव-पांव चादर का
आया है मेरे हिस्से में
नियति बन कर।
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बेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
ReplyDeleteसत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर
यह खेल
हर रात का,
यह खेल पांव-पांव चादर का
आया है मेरे हिस्से में
नियति बन कर।
....एक घुटन भरा जीवन और इसकी त्रासदी का बेहतरीन चित्रण किया है आपने। ।।।।
बहुत बहुत शुभकामनायें आदरणीया। ।।।
हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (२१-0६-२०२१) को 'कुछ नई बाते नये जमाने की सिखाना भी सीख'(चर्चा अंक- ४१०२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार अनीता सैनी जी 🙏
Deleteकृपया रविवार को सोमवार पढ़े।
ReplyDeleteसादर
🌹🙏🌹
Deleteबेचैनी पढ़ती है पहाड़ा
ReplyDeleteसत्ते सात, अट्ठे आठ का
मुड़ जाते हैं पांव घुटनों से
हो जाती है चादर लम्बी
सिर ढांपते ही
चादर से बाहर
निकल आते हैं पांव
तभी घुटता है दम,
फड़फड़ाती है चादर
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीया
हार्दिक धन्यवाद अनुराधा चौहान जी
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद सुशील कुमार जोशी जी
Deleteये कशमकश है रतजगे की, संवेदनाओं से भरी बहुत ही भावपूर्ण सृजन।
ReplyDeleteअभिनव।