बढ़ा दो दायरा
- डॉ शरद सिंह
टूट चुके अंतर्मन में
उठता है एक अज़ब द्वंद्व
देह से परे
रचती हैं स्मृतियां
देह का इंद्रजाल
जब तक उपयोगी है देह
साथ देती हैं सांसें भी
तभी तो
कभी आने को आतुर
आया भी तो अनमना-सा
भयभीत, डरा-सा
घाव कुरेदने के अलावा
न कोई चर्चा और
न कोई प्रश्न
क्या यही है
कथित अपनेपन का
स्याह पक्ष
दोष क्या उसे?
सभी को बना दिया है समय ने
संवेदनहीन
कोरोना ने फेफड़ों को ही नहीं गलाया
गला दिया है प्रेम को,
विश्वास को, आत्मीयता को
एक औपचारिक ज़िन्दगी
कब तक जिएगा कोई?
समय कहता है
बढ़ा दो दायरा
आत्मीयता का
और समेट लो उन्हें भी
जैसे पनाह देता है
यूनाइटेड नेशंस
शरणार्थियों को
जो जीवित तो हैं
पर
नहीं भी
मर चुकी है धड़कन
मगर उनकी सांसें
अभी भी हैं उनकी देह में।
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