धर्म और प्रेम
- डॉ शरद सिंह
उसके मन ने
कहा उससे
प्रेम करो
किससे
इंसान से?
नहीं-नहीं
लोग क्या कहेंगे...
और चुन लिया उसने
पाषाण-मूर्ति को
प्रेम के लिए
प्रशंसा करते हैं लोग
उसकी
वह मुस्कुराती
अपने भीतर की
रिक्तता छिपाती
जी रही है
लौकिक और अलौकिक के
द्वंद्व में फंसी
कहे-सुने जाने से
भयभीत
अरे, कोई समझाए
उस पगली को
जहां भय हो
वहां
न होता है धर्म
और न प्रेम।
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 27 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमेरी कविता को पांच लिंको का आनंद में शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार यशोदा अग्रवाल जी 🙏
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेरी कविता को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभा दिगम्बर नासवा जी 🙏
Deleteऔर चुन लिया उसने
ReplyDeleteपाषाण-मूर्ति को
प्रेम के लिए....
एक नए तरह की सुंदर अनुभूति लिए इस रचना हेतु साधुवाद। ।।।
हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम सिन्हा जी 🙏
Deleteजीवनकी सच्चाई कह दी आपने,बेहतरीन रचना शरद जी,
ReplyDeleteवह मुस्कुराती
ReplyDeleteअपने भीतर की
रिक्तता छिपाती
जी रही है
लौकिक और अलौकिक के
द्वंद्व में फंसी
कहे-सुने जाने से
भयभीत----बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां है
ये भी कहते हैं-
ReplyDeleteभय बिन होत न प्रीत 😊
बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteमन को छूते भाव।
सादर
बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअद्भुत! पाषाण से प्रेम वो भी लोक भय से ।
ReplyDeleteगहनता लिए हृदय स्पर्शी सृजन।
अभिनव।
अरे, कोई समझाए
ReplyDeleteउस पगली को
जहां भय हो
वहां
न होता है धर्म
और न प्रेम।
बहुत ही सुन्दर... हृदयस्पर्शी सृजन।
बहुत सुंदर
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