- डॉ शरद सिंह
कांच के
रंग-बिरंगे कंचे-से दिन को
जब वक़्त की उंगली
गिरा देती है जब गड्ढे में
एक सधी हुई हल्की-सी हरक़त से
समझ में नहीं आता
जीत हुई कि हार
मन बच्चों-सा झगड़ता है
अपने-आप से
सहसा जाग उठते हैं
बचपन के दिन
बड़ों से घिरे,
सुरक्षित,
ज़िद्दी,
निश्चिंत
और
बंदिशों का घेरा तोड़ कर
निकल भागने लालायित
जल्दी-जल्दी बड़े हो जाने को आतुर
अपने फ़ैसले ख़ुद लेने के इच्छुक
एक दिन
घेरा टूटते ही
बड़े होते ही
जब रह जाते हैं
निपट अकेले
तब
याद आता है बचपन
याद आते हैं कंचे
याद आते हैं बड़े
याद आती हैं बंदिशें
तब खुद को पाते हैं
वर्तमान के साथ अतीत के गड्ढे में
जीत और हार
सब बेमानी हो जाते हैं उस पल
अकेलापन
बदल देता है
जीवन का अर्थ
एक पल में
हमेशा के लिए।
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