05 December, 2020

सिर्फ़ इक दर्द बचा | कविता | डॉ शरद सिंह

सिर्फ़ इक दर्द बचा
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- डॉ शरद सिंह

सर्द रातों में जले बन के अलाव जो
वो नहीं थे किसी अख़बार के रद्दी पन्ने
उनमें कुछ ख़त थे 
थीं उनमें हसीं तस्वीरें 
उनमें कुछ हर्फ़ थे, 
कुछ जुमले,
कई वादे भी
ज़िंदगी मिल के बिताने के
इरादे भी।
मैंने खुद को न बचाया था
कभी खुद के लिए
इसलिए तुम थे उनमें भी बहुत ज़्यादा से
और मैं कम थी हमेशा की तरह,
जबकि काग़ज़ वो 
निकले थे, मेरे माज़ी के तहख़ाने से
अब है खाली-सा वही तहख़ाना
सिर्फ़ इक दर्द बचा पहचाना 
जल चुके हैं वो सभी काग़ज़ अब तो
फिर भी यहां
राख में छोड़ गए आग के जो भी किस्से
देख लो, 
आज वो आए हैं मेरे ही हिस्से।
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12 comments:


  1. जल चुके हैं वो सभी काग़ज़ अब तो
    फिर भी यहां
    राख में छोड़ गए आग के जो भी किस्से
    देख लो,
    आज वो आए हैं मेरे ही हिस्से।

    .....बहुत-बहुत सुंदर रचना। साधुवाद व शुभकामनाएं आदरणीया।

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    1. हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी 🙏🌹🙏

      मेरे ब्लॉग्स पर आपका सदैव स्वागत है 💐

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 07 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार यशोदा अग्रवाल जी,
    यह मेरे लिए सुखद अनुभूति है कि आपने मेरी रचना को ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल किया है।

    पुनः आभार 🙏🌹🙏

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  4. Replies
    1. आपकी अमूल्य टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार विभा रानी श्रीवास्तव जी 🙏🌹🙏

      मेरे ब्लॉग्स पर सदैव आपका स्वागत है 💐

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  5. हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय दी।
    सादर

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    1. हार्दिक धन्यवाद अनीता सैनी जी 🙏🌹🙏

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  6. मर्मस्पर्शी रचना

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अभिलाषा जी 🌹🙏🌹

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  7. अति सुन्दर रचना दिल को छू गई

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  8. बहुत ही भावपूर्ण ।

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