05 July, 2021

सज़ा | कविता | डॉ शरद सिंह

सज़ा
      - डॉ शरद सिंह

कब मिलेगी मुक्ति
लोहे की ठंडी सलाख़-सी
जागती रातों से
पथरीले फ़र्श-सा 
हो चला बिस्तर
चुभता है 
पीठ की हड्डियों में
सलवटों से सिकुड़ी चादर
छीलती है देह को
किसी किसनी की तरह

कब पीछा छोड़ेगा
यह अहसास
कि सलीब ढो रही हूं अपना
या तराश रही हूं
अपनी क़ब्र का पत्थर
या जोड़ रही हूं लकड़ियां
अपनी चिता के लिए
जबकि मालूम है-
नगरपालिका का शववाहन
ले जाएगा
एक दिन
एक लावारिस लाश की तरह
फिर भी एक ख़्वाब
उतरता है
जागती आंखों में
कि एक सुबह 
कोई चूमेगा मेरा माथा
और चमकदार रोशनी के साथ
मुंद जाएंगी मेरी आंखें
हमेशा के लिए

सांसों की खड़ियां लेकर 
ज़िंदगी की दीवार पर 
एक-एक दिन की
लकीरे खींचते हुए 
सोचती हूं
एक क़ैदी की तरह 
आख़िर
कब ख़त्म होगी 
जीने की ये सज़ा?
          -------------
#शरदसिंह #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह
#SharadSingh #Poetry #poetrylovers
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh #HindiPoetry 

9 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद सुशील कुमार जोशी जी 🙏

      Delete
  2. मेरी कविता को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार अनीता सैनी जी 🌹🙏🌹

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर सृजन बेहतरीन अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  4. बहुत ही अच्छी और गहन रचना। खूब बधाई

    ReplyDelete
  5. ओह!! कितनी वेदना कितना दर्द।
    निशब्द।

    ReplyDelete
  6. जीना सजा नहीं लगना चाहिए। सजा लगे तो भी उसे काटना तो पड़ता है। हँसकर या रोकर।
    पर कभी कभी ये अहसास सभी को होता है।

    ReplyDelete
  7. मर्मस्पर्शी सृजन ।

    ReplyDelete
  8. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,शरद दी।

    ReplyDelete