बचे रह जाना
- डॉ शरद सिंह
पतझड़ ने कर दिया पेड़ को ठूंठ
कुछ भी न बचा
जीवन का चिन्ह
सिवाय एक पत्ते के
जो फड़फड़ा रहा है
तीखी धूप और गर्म हवा में
ख़ुद को कोसता हुआ
कि वही क्यों रह गया शेष
जब सब झरे
तो झर जाना था उसे भी
जैसे सोचता था
वह मोची
जो बैठता था इस पेड़ के नीचे
कि जब ठूंठ हो गया पेड़
तो अब वह बैठेगा
किसकी छाया में
जब फिर से -
चलने लगेंगी सड़कें
भरने लगेगा कोलाहल
टूटने लगेंगी चप्पलें
फटने लगेंगे जूते
तब उसके पास
होगी निहाई
होगी रांपी
होगी हथौड़ी
होगी सुई
होगा धागा
नहीं होगी तो
बस, पेड़ की छाया
मोची उदास है
पत्ता उदास है
उदास है पृथ्वी का हर कोना
पतझड़ पसर गया है
हवा गर्म हो चली है
पांव क़ैद हैं घरों के भीतर
पथरा रही हैं आंखें मोची की
सूख चली हैं नसें पत्ते की
दोनों टूट कर भी
नहीं टूटे हैं
पर क्यों?
वे भी नहीं जानते उत्तर
सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।
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जड़ें उखड़ जाएँ तो फिर जिंदगी ठूंठ बनकर रह जाती है
ReplyDeleteबहुत सटीक सामयिक चिंतन प्रस्तुति
हार्दिक धन्यवाद कविता रावत जी 🙏
Deleteदोनों टूट कर भी
ReplyDeleteनहीं टूटे हैं
पर क्यों?
वे भी नहीं जानते उत्तर
सिवा बचे रह जाने की पीड़ा के।--गहरी रचना है...बहुत अच्छे और गहरे शब्द।
बहुत-बहुत धन्यवाद संदीप जी 🙏
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