- डॉ शरद सिंह
आपस में न मिल पाना भी
मार देता है संवेदनाओं को
साक्षात देखना
चेहरा पढ़ना
हाथ मिलाना
स्पर्श के खेतों में उपजी
आत्मीयता की फसल
पेट भर देती है दिलों के
पर इन दिनों
पसरता जा रहा है सन्नाटा
नहीं खुलते दरवाज़े
नहीं खेलते बच्चे
कभी बालकनी तो कभी
छत पर से
परस्पर
पूछना कुशलक्षेम
लगता है महज़
वीडियो-का्ंफ्रेंसिग तरह
अच्छे दिनों का सपना लिए
चले गए अनेक
अनन्त यात्रा में
बचे हुओं ने छोड़ दी है
अच्छे दिन की आस
हाथ लगे हैं
ब्लैक फंगल वाले काले दिन
अब तो संघर्ष है
सिर्फ़ बचे रहने का
उद्देश्य संकुचित हो चला है
जीवन का
और दूर हो चले हैं हम
परपीड़ा, परदुख से
बढ़ते हुए मौत के आंकड़ों के बीच
शोकसंवेदना के लिए भी
न जा पाना
हमें कहीं कर न दे संवेदनाहीन
और लगाते रहें ठहाके बुरे दिन।
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हार्दिक धन्यवाद मीना भारद्वाज जी 🙏
ReplyDeleteअब तो संघर्ष है
ReplyDeleteसिर्फ़ बचे रहने का
उद्देश्य संकुचित हो चला है
जीवन का
और दूर हो चले हैं हम
परपीड़ा, परदुख से
बढ़ते हुए मौत के आंकड़ों के बीच
शोकसंवेदना के लिए भी
न जा पाना
हमें कहीं कर न दे संवेदनाहीन
और लगाते रहें ठहाके बुरे दिन। बहुत ही गहरी रचना।
हार्दिक धन्यवाद संदीप कुमार शर्मा जी 🙏
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद ओंकार जी 🙏
Deleteयथार्थ चित्रण
ReplyDeleteयथार्थ चित्रण
ReplyDeleteयथार्थ चित्रण
ReplyDeleteसही शरद जी! संघर्ष बस जीवन का रहा है वो भी संशय के घेरे में हरतरफ एक खौफ है।
ReplyDeleteसटीक यथार्थ।