31 May, 2021
ध्वनियां | कविता | डॉ शरद सिंह
30 May, 2021
एक आवाज़ | कविता | डॉ शरद सिंह
जो बचे हुए हैं | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित
मेरी कविता "जो बचे हुए हैं" को आज 30.05.2021 को "नवभारत" के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया गया है....
हार्दिक आभार "नवभारत"🙏
29 May, 2021
सीने में समुद्र | कविता | डॉ शरद सिंह
28 May, 2021
क़लम की नोंक पर ठहरी कविता | कविता | डॉ शरद सिंह
27 May, 2021
सपने | कविता | डॉ शरद सिंह
बचे रह जाना | कविता | डॉ शरद सिंह
25 May, 2021
एक हंसी | कविता | डॉ शरद सिंह
24 May, 2021
गुनहगार | कविता | डॉ शरद सिंह
घोषणाएं | कविता | डॉ शरद सिंह
23 May, 2021
उसे क्या | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत में प्रकाशित
22 May, 2021
अंधेरा घिरने पर | कविता | डॉ शरद सिंह
20 May, 2021
दस्तक | कविता | डॉ शरद सिंह
19 May, 2021
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18 May, 2021
अहसास | कविता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अहसास
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अव्यवस्थाओं के अभ्यस्त हम
चुराने लगे हैं नज़रें
मौत की ख़बरों से
हम नहीं जानना चाहते
कि ख़ामी कहां है
हम नहीं जानना चाहते
कि दोषी कौन है
हम नहीं जानना चाहते
कि जिम्मेदार कौन है
हम वो बन चुके हैं
जो बिता देना चाहते हैं
'व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी' के परिसर में
अपना बचा हुआ जीवन
अब नहीं है
सच और झूठ के बीच महीन रेखा
अब है चौड़ी खाई
जिसे नहीं फलांग सकेंगे हम
हमारे पांव हो चुके हैं बौने
हाथ कंधों से ऊपर उठते ही नहीं
गरदन झुक चुकी है
और दिमाग़ हो चला है विचारशून्य
हमारी उंगलियों में तो तर्जनी ही नहीं है
ठीक वैसे ही
जैसे पूंछ का उपयोग न होने पर
हम मनुष्यों ने खो दी अपनी पूंछ
अब हम जीने के आदी हो चले हैं
बिना तर्जनी के,
अच्छा है
बना रहेगा सुरक्षित होने का भ्रम
और हम
अख़बारों में पढ़ते रहेंगे चुटकुले
छांट-छांट कर
परिस्थिति से पलायन
समा गया है हमारे रक्त में
बदल रहा है हमारा डीएनए
बदल रहा है हमारा जिनोम
तो क्या
ज़िन्दा रहने का अहसास
बचा तो है
यह क्या कम है....?
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