मालिक
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
अधिक नहीं तो दो मुट्ठी ही धूप मुझे दे देना, मालिक।
बदले में दो सांसे मेरी चाहे कम कर लेना, मालिक।
ढेरों खुशियां, ढेरों पीड़ा, होती है सह पाना मुश्क़िल
मन की कश्ती जर्जर ठहरी, धीरे-धीरे खेना, मालिक।
मैं तो हरदम प्रश्नचिन्ह के दरवाज़े बैठी रहती हूं
मुझे परीक्षा से डर कैसा, जब चाहे, ले लेना मालिक।
मोल-भाव पर उठती-गिरती, ये दुनिया बाज़ार सरीखी
साथ किसी दिन चल कर मेरे, चैन मुझे ले देना,मालिक।
बिना नेह के ‘शरद’ व्यर्थ है, दुनिया भर का सोना-चांदी
अच्छा लगता अपनेपन का सूखा चना-चबेना, मालिक।
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)
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अधिक नहीं तो दो मुट्ठी ही धूप मुझे दे देना, मालिक।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
हार्दिक धन्यवाद मनोज जी 🌹🙏🌹
Deleteवाह , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद संगीता स्वरूप जी 🌹🙏🌹
Deleteसुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया संजय भास्कर जी 🌹🙏🌹
Deleteताज़गी भरी रचना. अच्छी लगी.
ReplyDeleteऐसे ही लिखती रहना हमदम.
बहुत धन्यवाद नूपुरं जी 🌹🙏🌹
Deleteवाह!दो मुठ्ठी धूप और एक मुठ्ठी आसमान मिल जाते तो और क्या चहिए ज़माने में..
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा! श्रेष्ठतम भाव सुंदर सृजन।
हर परीक्षा यूं ही उत्तीर्ण करते चलिये
यूं भाव से पुकारा है तो स्नेह प्यार से देगा मालिक।
सस्नेह।
कुसुम कोठारी जी, आपकी शुभकामनाओं के प्रति कृतज्ञ हूं 🙏
Deleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार 🌹🙏🌹
दिव्या अग्रवाल जी,
ReplyDelete"पांच लिंकों का आनन्द" में मेरी ग़ज़ल को शामिल करने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद एवं आभार 🌹🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
वाह!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल।
ग़ज़ल में भजन-सा समर्पण । अभिनंदन शरद जी ।
ReplyDeleteसुकृतिम् ?
ReplyDeleteइस रचना की किन शब्दों में सराहना करूं |बहुत ही सुन्दर रचना है |
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