धूप चुरा ली
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
उसकी मुट्ठी भरी हुई है, मेरी मुट्ठी खाली- खाली।
उसने पहले छतरी मांगी, फिर चुपके से धूप चुरा ली।
वो चंदा है आसमान का, तारों से मन बहलायेगा
उसको क्या मालूम पड़ेगा, मावस होती कितनी काली।
कौन पैरवी करता मेरी, वो वक़ील था, वो ही जज था
उसने अपनी ही दलील पर, अपनी ‘पीनल कोड’ बना ली।
इक पत्थर है मेरे आगे, जिसको ईश्वर मान लिया है
कुछ न कुछ तो करना ही था जब दुनिया ने नज़र फिरा ली।
‘शरद’ रात है जितनी लम्बी, आंखें उतनी जागी-जागी
सपनों ने भी जैसे उसी यादों के संग लगन करा ली।
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह 'पतझड़ में भीग रही लड़की' से)
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बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मनोज जी 🌹🙏🌹
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (०४-०२-२०२१) को 'जन्मदिन पर' (चर्चा अंक-३९६७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
प्रिय अनीता सैनी जी,
Deleteमेरी ग़ज़ल को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार 🙏
यह मेरे लिए सुखद है। आपको बहुत बहुत धन्यवाद 🌹🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
सुन्दर और भावपूर्ण अशआरों से सजी लाजवाब ग़ज़ल ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मीना भारद्वाज जी 🌹🙏🌹
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDelete"उसने पहले छतरी मांगी, फिर चुपके से धूप चुरा ली।"
ReplyDeleteबहुत खूब शरद जी,सादर नमन आपको
उसने पहले छतरी मांगी, फिर चुपके से धूप चुरा ली।"
ReplyDeleteचलिए छतरी जाने का गम नहीं रहा
वाह बहुत और भावपूर्ण गजल
ReplyDeleteक्या बात है !!! वाह शरद जी ! हर शेर में गहरी बात।
ReplyDeleteकौन पैरवी करता मेरी, वो वक़ील था, वो ही जज था
उसने अपनी ही दलील पर, अपनी ‘पीनल कोड’ बना ली।
यह तो विशेष अच्छा लगा।
लाजवाब....❤️
ReplyDeleteउम्दा अभिव्यक्ति ।
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