ग़ज़ल - दर्द का रंग
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
एक भूखे को दिखे चांद भी रोटी जैसा
दर्द का रंग भी दुनिया में है कैसा-कैसा
उसकी नज़रों में ग़रीबों की जगह कोई नहीं
उसकी नज़रों में हरेक शख़्स है ऐसा- वैसा
वो सियासत की, तिज़ारत की ज़बां कहता है
उसको रिश्तों में भी दिखता है फ़क़त ही पैसा
एक दरिया का किनारों से भला क्या रिश्ता
उसको लम्हा नहीं मिलता है ठहरने जैसा
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