19 December, 2021

अपशब्द | कविता | डॉ शरद सिंह | नवभारत

मित्रो, "नवभारत" के रविवारीय परिशिष्ट में आज "अपशब्द" शीर्षक कविता प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत 🙏

अपशब्द
       - डॉ शरद सिंह
अपशब्द
नहीं कहना चाहती
मेरी वाणी
किन्तु
जब कुछ छिछले कटाक्ष
टकराते हैं कानों से
तो उबाल आता है मन में
बंधने लगती हैं मुट्ठियां
उमड़ता है आवेग
देने को
मुंहतोड़ ज़वाब

तभी
मेरा अवचेतन
खींचने लगता है
चेतना की वल्गाएं
और 
कहता है
दस्तक दे कर
माथे पर
मत बनो उसके जैसी

नहीं करता परवाह
सूर्य, बृहस्पति या शुक्र
छुद्र उल्काओं की
घूमता है अपनी धुरी पर
निस्पृह हो कर
जबकि 
हो जाती हैं राख
स्वतः जल कर
छुद्र उल्काएं

बात सहज है
और नहीं भी
आप्लावित धैर्य
छलक पड़ने को
हो उठता है आतुर
तब 
निकल पड़ते हैं अपशब्द
मेरे भी मुख से
पर उन्हें सुनती हैं
बंद कमरे की
खिड़कियां, दरवाज़े
और दीवारें
चेतन और अवचेतन के बीच 
एक आदिम द्वंद्व
द्वार खुलने तक
शांति का 
तय होता रस्ता
अक्षमताओं की भूमि पर
बोता रहता है
क्षमताओं का बीज

शांत मन
एक बार फिर
काटता है मुस्कुराहट की
लहलहाती फसल
और
सोचते हैं देखने वाले
उफ! ये कितनी बेअसर है।
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5 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (20-12-2021 ) को 'चार दिन की जिन्दगी, बाकी अंधेरी रात है' (चर्चा अंक 4284) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. बधाई !
    यथार्थांकन !

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