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सियासत का लहू | शायरी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
इक हक़ीक़त की तरह
झूठ वो कहता है सदा,
उसकी रग - रग में
सियासत का लहू बहता है
- डॉ शरद सिंह
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झुकती पृथ्वी | कविता | डॉ शरद सिंह
झुकती पृथ्वी
- डॉ शरद सिंह
किसी प्रेमिका
या
नववधू सी
प्रेम के
संवेग से
भर कर नहीं,
मां के ममत्व से
उद्वेलित हो कर नहीं
पृथ्वी
घूम रही है
झुकी-झुकी
अपनी धुरी पर
कटते जंगलों
सूखती नदियों
गिरते जलस्तरों
बढ़ते प्रदूषण
और
ओजोन परत में
हो चले छेदों पर
आंसू बहाती हुई
घबराई-सी।
पृथ्वी
घूम रही है
अपने कक्ष में
हादसों को देखती
झेलती अपराधों को
नापती संवेदना के
गिरते स्तर को
नौकरी के हाट में बिकते
युवाओं को
और सूने घर में
छूट रहे बूढ़ों को
निर्माण से नष्ट की ओर
बढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती
पृथ्वी
अब और
झुक जाना चाहती है
हम इंसानों की
करतूतों पर शरमाती हुई।
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