28 November, 2021

पाषाण | कविता | डॉ शरद सिंह

पाषाण
      - डॉ शरद सिंह
आज 
आसमान 
कुछ ज़्यादा चमकदार 
कुछ हल्का नीला
कुछ उदारमना
लग रहा
कुछ तटस्थ भी

ऐसा क्यों?
बहुत सोचा
तो हुआ अहसास
आज सुबह से
आंखें नहीं भीगीं
दर्द नहीं गहराया
अपनों का छूटा साथ
कथित मित्रों के
घात, आघात
याद आई
सबकी
पर नहीं घेरा व्यथा ने
अर्थात् 
पाषाण होने की
प्रक्रिया में है हृदय
वेदना और संवेदना से परे।
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2 comments:

  1. कुछ बदलाव जरूरी है ।
    कहना बहुत जरूरी है !!

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  2. पाषाण अपक्षय के मारे , नित संवेदनता से हारे ।
    देते हैं छांव जुड़े सारे , कविता प्यारी , छांदस प्यारे !!

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