11 November, 2021

झुकती पृथ्वी | कविता | डॉ शरद सिंह


झुकती पृथ्वी
        - डॉ शरद सिंह

किसी प्रेमिका
या
नववधू सी
प्रेम के
संवेग से
भर कर नहीं,
मां के ममत्व से
उद्वेलित हो कर नहीं

पृथ्वी
घूम रही है
झुकी-झुकी
अपनी धुरी पर
कटते जंगलों
सूखती नदियों
गिरते जलस्तरों
बढ़ते प्रदूषण
और
ओजोन परत में
हो चले छेदों पर
आंसू बहाती हुई
घबराई-सी।

पृथ्वी
घूम रही है
अपने कक्ष में

हादसों को देखती
झेलती अपराधों को
नापती संवेदना के
गिरते स्तर को
नौकरी के हाट में बिकते
युवाओं को
और सूने घर में
छूट रहे बूढ़ों को
निर्माण से नष्ट की ओर
बढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती

पृथ्वी
अब और
झुक जाना चाहती है
हम इंसानों की
करतूतों पर शरमाती हुई।
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7 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१२-११-२०२१) को
    'झुकती पृथ्वी'(चर्चा अंक-४२४६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 12 नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. शायद अब सही समय है,श्रंगार रस के आवरण से कुछ बाहर निकल कर यथार्थ से परिचित होने का । सार्थक रचना,🙏

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  4. बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर उम्दा रचना

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  5. निर्माण से नष्ट की ओर
    बढ़ती व्यवस्थाओं पर
    सुबकती हुई
    हिचकियां लेती
    लापरहवाहियों के
    ब्लैक होल की ओर बढ़ती
    क्या करे आखिर शर्मिंदगी से झुकना ही पड़ता है माँ को या धरती माँ को अपने संतानो की करतूतों पर।
    विचारणीय सृजन।

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  6. पर्यावरण-प्रवण सुंदर कृति !

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  7. प्रखर विसंगति-रंजन !

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