झुकती पृथ्वी
- डॉ शरद सिंह
किसी प्रेमिका
या
नववधू सी
प्रेम के
संवेग से
भर कर नहीं,
मां के ममत्व से
उद्वेलित हो कर नहीं
पृथ्वी
घूम रही है
झुकी-झुकी
अपनी धुरी पर
कटते जंगलों
सूखती नदियों
गिरते जलस्तरों
बढ़ते प्रदूषण
और
ओजोन परत में
हो चले छेदों पर
आंसू बहाती हुई
घबराई-सी।
पृथ्वी
घूम रही है
अपने कक्ष में
हादसों को देखती
झेलती अपराधों को
नापती संवेदना के
गिरते स्तर को
नौकरी के हाट में बिकते
युवाओं को
और सूने घर में
छूट रहे बूढ़ों को
निर्माण से नष्ट की ओर
बढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती
पृथ्वी
अब और
झुक जाना चाहती है
हम इंसानों की
करतूतों पर शरमाती हुई।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१२-११-२०२१) को
'झुकती पृथ्वी'(चर्चा अंक-४२४६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 12 नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
शायद अब सही समय है,श्रंगार रस के आवरण से कुछ बाहर निकल कर यथार्थ से परिचित होने का । सार्थक रचना,🙏
ReplyDeleteबहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर उम्दा रचना
ReplyDeleteनिर्माण से नष्ट की ओर
ReplyDeleteबढ़ती व्यवस्थाओं पर
सुबकती हुई
हिचकियां लेती
लापरहवाहियों के
ब्लैक होल की ओर बढ़ती
क्या करे आखिर शर्मिंदगी से झुकना ही पड़ता है माँ को या धरती माँ को अपने संतानो की करतूतों पर।
विचारणीय सृजन।
पर्यावरण-प्रवण सुंदर कृति !
ReplyDeleteप्रखर विसंगति-रंजन !
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