16 November, 2021

बेअसर | कविता | डॉ शरद सिंह

बेअसर
       - डॉ शरद सिंह
अपशब्द
नहीं कहना चाहती
मेरी वाणी
किन्तु
जब कुछ छिछले कटाक्ष
टकराते हैं कानों से
तो उबाल आता है मन में
बंधने लगती हैं मुट्ठियां
उमड़ता है आवेग
देने को
मुंहतोड़ ज़वाब

तभी
मेरा अवचेतन
खींचने लगता है
चेतना की वल्गाएं
और 
कहता है
दस्तक दे कर
माथे पर
मत बनो उसके जैसी

नहीं करता परवाह
सूर्य, बृहस्पति या शुक्र
छुद्र उल्काओं की
घूमता है अपनी धुरी पर
निस्पृह हो कर
जबकि 
हो जाती हैं राख
स्वतः जल कर
छुद्र उल्काएं

बात सहज है
और नहीं भी
आप्लावित धैर्य
छलक पड़ने को
हो उठता है आतुर
तब 
निकल पड़ते हैं अपशब्द
मेरे भी मुख से
पर उन्हें सुनती हैं
बंद कमरे की
खिड़कियां, दरवाज़े
और दीवारें
चेतन और अवचेतन के बीच 
एक आदिम द्वंद्व
द्वार खुलने तक
शांति का 
तय होता रस्ता
अक्षमताओं की भूमि पर
बोता रहता है
क्षमताओं का बीज

शांत मन
एक बार फिर
काटता है मुस्कुराहट की
लहलहाती फसल
और
सोचते हैं देखने वाले
उफ! ये कितनी बेअसर है।
          ---------
#शरदसिंह #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह
#SharadSingh #Poetry #poetrylovers
#World_Of_Emotions_By_Sharad_Singh #HindiPoetry #हिंदीकविता #कविता #हिन्दीसाहित्य

1 comment: