18 November, 2021

वह | कविता | डॉ शरद सिंह

वह
    - डॉ शरद सिंह
वह 
कई दिन से
ढूंढ रहा है
एक अदद आसरा
एक अदद मालिक
जो दे उसे
कुछ टुकड़े रोटी के
और फुट भर जगह
घर के दरवाज़े पर

कई घर
कई दरवाज़े
देख चुका है वह
कई-कई बार

किसी ने दुत्कारा
पानी डालकर भगाया
किसी ने पुचकारा
दी बासी रोटी भी
पर
पनाह नहीं दी
किसी ने उसे

पसलियों के बीच
धौंकनी-सी
चलती सांसें
जूझ रहीं ज़िंदगी से
मौत की प्रतीक्षा में

मरना कोई नहीं चाहता
वह भी नहीं
भले ही जन्मा
सड़क के किनारे
स्वतंत्र प्राणी के रूप में
पर चाहता है ग़ुलामी
ज़िन्दा रहने के लिए

मगर
अफ़सोस
एक दिन 
किसी कूड़े के ढेर में
या सड़क पर 
कुचली हुई
दिखेगी उसकी देह
ग़ुलामी भी 
नहीं होगी उसे नसीब

ग़ुनाह कि-
उसकी नस्ल
है देसी
नहीं है वह-
अल्सेशियन, पामेरियन, 
डेल्मीशियन, लेब्राडोर,
जर्मन शेफर्ड या बुलडॉग

नहीं हुई है उसकी
ब्रीड क्राफ्टिंग
नहीं जन्मा वह
किसी फार्मिंग स्टेशन में
नहीं है उसकी क़ीमत
हज़ारों रुपयों में
वह तो निपट देसी
सड़कछाप पिल्ला है
चार दिन भटकेगा
करेगा 'कूं कूं'
और फिर 
हो जाएगा ख़ामोश
हमेशा के लिए।
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4 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ नवंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. हृदय स्पर्शी सृजन।

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. कविता ये नहीं , विक्षिप्ता ये......

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