20 May, 2021

दस्तक | कविता | डॉ शरद सिंह

दस्तक
     - डॉ शरद सिंह
जब तक हम सोते रहेंगे 
तब तक बुरे ख़्वाब जागते रहेंगे
कब आएगा वक़्त
इरादों की फटी चादर सीने का
कहीं ये दस्तक उसी वक़्त की तो नहीं?
जो लाशों के ढेर से गुज़र कर 
आई है याद दिलाने
कि वे ज़िन्दा रह सकते थे
अगर रैलियां न होतीं
अगर कुंभ न होता
अगर समय पर जांच की कमी न होती
अगर बेड...
अगर ऑक्सीजन...
अगर डॉक्टर....
अगर अटेंडेंट....
अगर दवाओं की कालाबाज़ारी....
अगर नकली दवाएं....
अगर....अगर...अगर...
वे सब ज़िन्दा रहते 
यदि 'सिस्टम' में इतने 'अगर' न होते
तो तीन पर्तों में लिपट कर 
विदा न होते हमारे परिजन

तो ध्यान करना होगा एकाग्र
खोलने होंगे कान 
और सुननी होगी वह दस्तक
जो झुलस कर आ रही है
सामूहिक चिताओं से

कुछ ऐसे भी हैं-
जो जुटे हैं मानवता की सेवा में
जो कर रहे हैं विधान 
लावारिस कर दी गई 
आत्माओं की शांति के लिए
जो खिला रहे हैं भूखों को खाना
जो पोंछ रहे हैं आंसू बचे हुओं के
उठ खड़े होना होगा उनके साथ
आख़िर वे भी तो इंसान हैं
निर्भीक इंसान,
दस्तक यही तो कह रही है
जागें और ध्यान से सुनें
अपनी धड़कन
कि हम अभी ज़िन्दा हैं
कि देख सकते हैं बुरे ख़्वाबों के
अंधेरे से बाहर
तो क्यों न दें सबूत ख़ुद को
और जोड़ दे कड़ियां
दस्तकों की
हर खोखले 'सिस्टम' से परे।
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3 comments:

  1. हम अभी ज़िन्दा हैं
    कि देख सकते हैं बुरे ख़्वाबों के
    अंधेरे से बाहर
    तो क्यों न दें सबूत ख़ुद को
    और जोड़ दे कड़ियां
    दस्तकों की
    हर खोखले 'सिस्टम' से परे..सार्थक प्रश्न उठाती और नव ऊर्जा का संचार करती उत्तम कृति ।सादर शुभकामनाएं।

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    1. हार्दिक धन्यवाद जिज्ञासा सिंह जी 🙏

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